Post – 2019-04-04

बुद्धिजीवी की भूमिका (2)

जब हम बुद्धिजीवी शब्द का प्रयोग करते हैं, तब इस बात को अक्सर दरकिनार कर देते हैं कि यह एक कामचलाऊ वर्गीकरण है जिसमें ऐसे सभी अनुशासनों को समेट लिया गया है, जिनमें शारीरिक परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती और जिन पर मोटे तौर पर ब्राह्मणों का एकाधिकार रहा है – साहित्य, दर्शन, धर्मशास्त्र या न्याय विचार, राजविद्या, अर्थशास्त्र, आन्वाक्षिकी, चिकित्सा, मनोविज्ञान, गणित, ज्योतिर्विज्ञान, आदि । इन्हें सामान्यतः वांग्मय अर्थात वाणी में निबंध क्रिया व्यापार कहा जा सकता है। ब्राह्मणों को प्राचीन भारत का बुद्धिजीवी वर्ग कहा जाता जा सकता है।

परंतु यहां एक मुश्किल खड़ी हो जाती है। बुद्धिजीवी वर्ग अंग्रेजी के इंटेलिजेंसिया का हिंदी अनुवाद है। समझने वालों ने पश्चिमी अवधारणाओं को आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया है। वे सीधे बुद्धिजीवी वर्ग को नहीं समझते, यह याद करते हैं कि यह किस अंग्रेजी शब्द का अनुवाद है, अंग्रेजी के कोश में उसकी परिभाषा देखते हैं, परिभाषा का हिंदी में अनुवाद करते हैं, और फिर हिंदी के लोगों को बताते हैं कि इसका अर्थ यह है। हमारी आलोचना, हमारा चिंतन, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, पश्चिमी देशों के बराबर आने की आकांक्षा में, उनकी भड़ैती करने का पर्याय बनता चला गया है। हमारा बौद्धिक स्खलन हुआ है, या बौद्धिक उत्कर्ष?

किसी की परछाई बनना अपने को मिटा देने का पर्याय है। पराधीन भारत में एक बुद्धिजीवी भारतीय वर्ग था जो अपनी सीमाओं, असुविधाओं और प्रतिबंधों के कारण पश्चिमी विद्वानों की समकक्षता में नहीं आ पाता था, और उनके प्रभाव से बच नहीं पाता था, परंतु उनकी निष्पत्तियों पर संदेह करता था, विरोध करता था, अपने निजी निष्कर्ष निकालता था, भले उसके विचारों में, तथ्य संकलन में, प्रतिपादन में कुछ अनगढ़ता बनी रह जाय। परंतु वे थे। हमारे समाज में एक बुद्धिजीवी वर्ग बचा रह गया था।

स्वतंत्रता के बाद हमने घुटने टेक दिए। पश्चिम में बुद्धिजीवी वर्ग है, हमारे यहां नहीं है। हमारे यहां पश्चिम की परछाइयां यथार्थ का भ्रम पैदा करती हैं।

अफसोस परछाइयों के पास भी आज इतनी ताकत आ गई है कि उनके बीच में यदि कोई सोचने समझने वाला व्यक्ति चला जाए तो वे उसे रौंद कर रख देंगी।

हमारे बुद्धिजीवियों ने कोई नया सिद्धांत नहीं दिया है, अपनी किसी समस्या का समाधान नहीं किया है। नई समस्याएं खड़ी की हैं, जिसे ही वे अपना योगदान मानते हैं।

जिन लोगों ने एक बुद्धिजीवी की गरिमा के साथ अपने तर्कों, प्रमाणों और निष्कर्षों से पश्चिमी अध्येताओं की वर्चस्ववादी जालसाजी को तार-तार कर के रख दिया, उनको उचित सम्मान देने की जगह, परछाइयों ने उन्हें रौंदकर मिटाने का प्रयास किया और नाकाम रहे। क्यों, आप जानना चाहेंगे?

इसलिए कि वे तथाकथित बुद्धिजीवियों के बीच प्रतिष्ठा पाने के लिए नहीं, बुद्धिजीवी की भूमिका का निर्वाह करते हुए अपने समाज को शिक्षित कर रह रहे थे। परछाइयों से समाज नहीं बनता। सारी कमजोरियों और अनगढ़ताओं के बावजूद, समाज एक जीवंत उपस्थिति होता है। बुद्धिजीवी होने का दावा करने वाले पश्चिमी जगत की परछाइयों ने अनर्गल आलोचनाओं और आक्षेपों से जिसे रौंदना चाहा, उनके पाठकों ने उन्हें शिरोधार्य कर लिया ।

क्या आपने रामविलास शर्मा का नाम सुना है? क्या उन्हें अपने जीवन काल में जितनी यातनाओं के बीच अविचलित अपना काम करना पड़ा उसका कोई अनुमान है?

दुर्भाग्य से हिंदी के इतिहास में दो रामविलास शर्मा पैदा नहीं हुए, परंतु वह अकेला उन सभी विभूतियों की प्रतिमा खड़ी करते हुए, उनके सामने नतमस्तक होता रहा जिन्हें हमारे समाज ने उससे पहले या तो कम समझा था या गलत समझा था। आज के समय में बुद्धिजीवी की भूमिका क्या होती है इसे रामविलास शर्मा से ही जाना जा सकता है।