Post – 2019-04-03

बुद्धिजीवी की भूमिका

किसी भी विषय में हमारी अधिकतम जानकारी भी अनेक दृष्टियों से अधूरी और कुछ मामलों में दूषित होती है। जानकारी का यह अधूरापन अलग अलग व्यक्तियों के मामले में अलग अलग हुआ करता है। हमारे देखने के अलग अलग कोण होते हैं, अलग अलग दूरियां होती हैं। ये दूरियां उस समस्या से हमारे प्रभावित या अप्रभावित होने के अनुपात में होती हैं। देखने और सोचने के कोण हमारी शिक्षा, संस्कार, विश्वास और इतिहास से निर्धारित होते हैं।

इसलिए हम जो कुछ लिखते या कहते हैं वह सत्य नहीं होता, हमारी सर्वोत्तम जानकारी और सद्विश्वास के अनुसार सच होता। यदि हम यह दुराग्रह करें कि हम जिस नतीजे पर पहुंचे हैं, वही सही है और जो इसे नहीं मानता वह गलत है, तो इससे वैचारिक तानाशाही पैदा होती है जो विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का निषेध करती है।

तानाशाही के दो रूप हैं । पहला, शासन द्वारा आरोपित, दूसरा बुद्धिजीवियों के बीच किसी एक विचार दृष्टि के प्रभुत्व के कारण उससे अनमेल विचारदृष्टियों का निषेध। दोनों में समानता यह है कि अपने को अंतिम सत्य का एकाधिकारी मानकर उससे असहमत जनों को दुष्ट मान लिया जाता है।

पुराने समय में दुष्ट के लिए राक्षस, असुर, पिशाच, शैतान शब्दों का प्रयोग किया जाता था। आप इन शब्दों का अर्थ जानते हैं? नहीं जानते। हमारे बुद्धिबली भी नहीं जानते जिनका विचारजगत पर वैसा ही तानाशाही अधिकार रहा है जैसा राज सत्ता में कभी कभी पैदा होने वाले तानाशाहों का होता है।

दोहराना पड़ रहा है। राक्षस का अर्थ होता है रक्षा करने वाला। जिन लोगों ने इसे इतना घृणित शब्द बना दिया, इस दाग के लग जाने के बाद सोचे विचारे बिना सीधे उनका संहार करना एक जरूरी और पवित्र कार्य बन जाए, वे उस चीज को नष्ट करना चाहते थे जिसे वे अपनी जान देकर और दूसरों की जान लेकर भी बनाना चाहते थे जिसे नष्ट करके उनसे शत्रुता करने वाले खुशहाल होना चाहते थे।

यहीं से आरंभ हुई थी कृषि क्रांति। प्रगतिशील, प्रकृति के नियमों को जानते हुए उसे बदलने को नए नए प्रयोग करते हुए अग्रसर होने वाले कृषि-कर्मियों और यथास्थितिवादियों, आज के पर्यावरणवादियों के पूर्वजों के बीच टकराव और एक दूसरे के लिए इतनी घृणा कि एक दूसरे को मिटाने को, उसकी हत्या करने को एक जरूरी और पवित्र कर्म मानते रहेे।

असुर प्रकृति पर निर्भर इन्हीं यथास्थितिवादियों का दूसरा नाम था। वे स्थाई बस्ती बसाकर नहीं रहते थे इसलिए उनका एक नाम अहि भी था। आप में से कुछ लोगों ने धातुपाठ में ‘अहि गतौ’ पढ़ा होगा। रेंगने या कहीं स्थायी निवास बना कर न रहने वाले जीवों के लिए प्रयुक्त यह शब्द कब सरकने वाले जीवों में सांप के लिए, मनुष्यों में पर्वतीय क्षेत्रों के लुटेरे गिरोहों के लिए और आकाश में उड़ने वाले बादलों के लिए रूढ़ हो गया इसका हमें भी पता नहीं है।

परंतु हमें यह पता है कि मानव गरिमा के लिए अकिंचन होते हुए भी, यथास्थितिवादियों का दमन, उत्पीड़न सहते हुए, प्रकृति की बाधाओं को झेलते हुए, अध्यवसाय करते हुए, जागते सोते असुरक्षित रहते हुए, जो कुछ सुलभ हुआ उसी पर जीने मरने और मौज मस्ती करने वालों और विकास में बाधक ही नहीं, इसके लिए कृत संकल्प लोगों के प्रति निर्दय लोगों के प्रति प्रगतिशीलों की घृणा का अपना कारण था परंतु उनसे असहमत यथास्थितिवादियों का एक वैचारिक आधार था।

उस समय में जब राजसत्ता का उदय नहीं हुआ था, विचारधारा का टकराव, और अपनी विचार दृष्टि के प्रसार में बाधक तत्वों का विनाश सामाजिक चेतना का हिस्सा बनाया जा चुका था। इससे हम यह तो कह ही सकते हैं कि विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को केवल राजसत्ता ही सीमित, अनुकूलित, और बाधित नहीं करती है। विचार दृष्टि भिन्नता उससे अधिक निर्मम होती है।

शैतान का मूल सत है। यह पश्चिमी जगत में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की नासमझी का परिणाम है। इसलिए भारतीय परिप्रेक्ष्य में जहां ‘अहि’ अज्ञानी, विचरणशील और यथास्थितिवादी समुदायों के लिए प्रयोग में आता था, उसके ठीक विपरीत सत्यान्वेषी, वैज्ञानिक सोच रखने वाले के लिए प्रयोग में आया। आपका अमृत लेकर जहर का आदी अमृत को जहर बनाकर सेवन करेगा। पश्चिमी समुदायों ने प्रेरणा तो भारत से ली, परंतु अपने सांस्कृतिक उपापचय के अनुरूप उलटे अर्थ में ग्रहण किया। देव भारत में कृषि क्रांति के जनक थे, पश्चिमी पुराण कथा में आदिम वन संपदा के संरक्षक बन गए। उनके प्राकृत उद्यान में विचरने वाला असुर आदम बन गया और उसकी आंख की पट्टी खोलने वाला वैज्ञानिक सांप बना दिया गया जिसे देखते ही मिटा दिया जाना चाहिए। पुराण कथा का यह विरोध सांस्कृतिक विरोध की धाराओं के रूप में आज तक प्रवाहित है।

बुद्धिजीवी का सबसे पहला कर्तव्य विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना है और इसके कारण ही उसका सबसे बड़ा दायित्व है दूसरों के विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करना।और इसका उपाय है जहां तक संभव है अभियोग, आरोप और भर्त्सना से बचते हुए, आत्मप्रमाणता ग्रंथि से बचते हुए, अपनी असहमति को अपने तर्क और प्रमाण देते हुए प्रतिवाद करना, और जहां ऐसा संभव न हो वहां नम्रता पूर्वक सहमत होना। ऐसा हो नहीं रहा है।

बुद्धिजीवी अपनी भूमिका भूल गया है, क्या इसके बाद भी उसे वुद्धिजीवी कहा जा सकता है? कोई गेरुआ पहन कर, साधुओं की जमात में होने का दम भरे और लंपटता करे उसे साधु कहेंगे या लंपट?
(आगे जारी)