वल्चर कल्चर
नीतिकारों का मानना है कि एक खास किस्म के लोग तभी तक समझदार लगते हैं जब तक वे कुछ बोलते नहीं हैं। अपनी विशेष जानकारी के क्षेत्र के बाहर हम सभी लोग उसी कोटि में आते हैं। व्यवहारिक राजनीति की परिधि में मैं भी उसी कोटि में आता हूं। यही सोच कर राजनीतिक समस्याओं पर बात करते हुए भी अपने ऊपर नियंत्रण रखने की कोशिश करता हूं कि राजनीतिक सक्रियता के भयावह परधर्म से बचा रहूँ। परंतु मुहावरा है ‘खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है’ । इसलिए जब नोबेल का भारी तमगा लटकाए विशेषज्ञों को अधिकार बाह्य विषयों पर, विशेषकर व्यावहारिक राजनीति पर लिखते बोलते पढ़ता और सुनता हूं, नियंत्रण कमजोर पड़ जाता है। जानता हूं कि व्यावहारिक राजनीति सत्ता पाने का संग्राम है, और उस युग का संग्राम है जिस में भाग लेने वाले जघन्य से जघन्य हथियारों का प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि उनके युद्ध और प्रेम में सभी तरह अपराध जायज हैं। परन्तु बुद्धिजीवी स्वयं अपने को और अपने समाज को और एक तरह से कहें पूरी दुनिया को अपराधों से बचाने का प्रयत्न करता है, जिनको सत्ता के लिए, अपने प्राप्य से अधिक पाने के लिए किया जाता है।
अतः बात आज भी मैं व्यावहारिक राजनीति की नहीं, सोचने समझने वालों की सत्ता की राजनीति में बढ़ती भागीदारी और इससे पैदा होने वाले मूल्यों के ह्रास और उसके परिणाम बौद्धिक, नैतिक और वैचारिक निर्वात की करूंगा जिसमें कबीलाई नैतिकता तक के लिए जगह नहीं रह जाती। उसमें भले सत्ता के लिए, सफलता के लिए, अपने वैध प्राप्य से अधिक पाने के लिए कुछ भी किया जा सकता हो।
नैतिकता से शून्य राजनीति लुटेरों के बीच उनका ग्रास बनने से अपने को बचाने की चिंता का पर्याय बन जाती है। परंतु स्वतंत्रता के बाद से ही सत्ता पाने और मुट्ठी में बनाए रखने के लिए वे सभी हथकंडे प्रयोग में लाए गए जो आरंभ में किसी की समझ में नहीं आए परंतु जिनके कारण ही हम उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में पहुंचे हैं जिसमें व्यावहारिक राजनीति वल्चर कल्चर में बदल चुकी है और इसका चरित्र इतना जगजाहिर है कि इस पर किसी भी रंग का पर्दा डालें, वह पारदर्शी हो जाएगा। एक जीवंत देश को उसके जीते जी ही शव मान कर प्रसन्न और उस पर चोंच मारते, एक दूसरे को हटाते हुए अपने हिस्से के लिए जगह जगह बनाने के लिए कूदते फांदते गिद्धों का जमावड़ा आंखों के सामने आ जाएगा।
इस बीभत्स यथार्थ की ओर ध्यान इसलिए गया कि हाल ही में मुझे उस व्यक्ति का एक साक्षात्कार देखने को मिला, जिसे लाखों लोग देख चुके हैं और संभव है आप में से भी बहुतों ने देखा हो । जिस बात ने मुझे आहत किया वह था हमारे समय के एक असाधारण प्रतिभाशाली युवक का अपनी सफलता के लिए गिद्धों की जमात में शामिल हो जाना। आज उसका दूसरा रूप एक मैसेज में मिला जिस पर मैं अपनी खिन्नता कुछ पहले प्रकट कर चुका हूं।
ऐसे लोग नैतिक दृष्टि से ही गिरे नहीं होते अपितु बौद्धिक दृष्टि से भी कोरे होते हैं। वे ऐसी मूर्खता करते हैं जिनके परिणाम उनकी इच्छा के विपरीत होते हैं। कौन नहीं जानता कि किसी को सिद्धदोष हुए बिना किसी अपराध का अपराधी कहना गाली है जो संज्ञेय अपराध है ? व्यवहारिक राजनीति अपराधियों का अभयारण्य है। उन्हें यदि पता हो कि दूसरे के अपराध से उनको फायदा हो रहा है तो वे उसके विरुद्ध वे कदम भी नहीं उठाएंगे जो विधान द्वारा उपलब्ध हैं। सिद्ध दोष हुए बिना चोर कहने वाले पर मानहानि का दावा करने पर मुंहफट व्यक्ति को जमानत लेनी होगी और उसके बाद दुबारा उसने कहा तो जमानत नहीं मिलेगी। वह जेल में होगा। इस विकल्प के होते हुए भी मोदी न केवल उसके विरुद्ध मानहानि का दावा नहीं करते, उल्टे स्वयं इस बात का प्रचार करते हैं कि देखो यह मुझे चोर कह रहा है। इसका लाभ उन्हें मिल रहा है और मिलेगा इसके बाद भी चोर कहने वाला अपनी आदत से बाज नहीं आता, न ऐसी ही पुरानी गलतियों से कोई सबक सीखता है।
चोर कहने वाले की समझ पर लोग पहले से तरस खाते आए हैं, जिससे उसके लिए उसका विशेषण उसकी संज्ञा बन चुका है। वह क्षम्य है। परंतु अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले गाली गलौज में क्यों शामिल हो रहे हैं। मरने वाले का अंतिम हथियार मारने वाले को गाली देना और कोसना होता है। उसका प्रयोग करते हुए आप स्वयं किस परिणाम की घोषणा कर रहे हैं?
जिस तानाशाही को आप अनिष्टकर मानते हैं, उसको आमंत्रित करने के लिए क्या आप कोई कसर बाकी रहने दे रहे हैं?
परंतु इस बौद्धिक दुर्गति और नैतिक अधोगति की ओर, जैसा मैंने कहा, मेरा ध्यान प्रशांत किशोर के उस इंटरव्यू से गया, जिसमें वह व्यक्ति नैतिकता निरपेक्ष चरित्र दर्शाता हुआ यह दावा कर रहा था कि उसके कारण ही मोदी को 2014 में विजय मिली, फिर मोदी से अपनी चाहत के अनुसार कुछ पाने में विफल होने के बाद नए शिकार की तलाश की और नीतीश कुमार को विजय का भरोसा दिया और अपने इस कौशल की बल बिहार में भाजपा को सफल नहीं होने दिया। इसके बाद वह नीतीश को भी छोड़ कर पंजाब में अमरेन्द्र को विजयी बनाने के लिए सक्रिय हुआ और विजय दिलाई। आगे उनसे क्उछ खास मिलता न देख कर उन्हें छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस से संपर्क साधा, लालू प्रसाद यादव से संपर्क साधा, शिवसेना से संपर्क साधा, राहुल गोधी और सोनिया गांधी से भी उसके अच्छे संबंध हैं। वह प्रतिभाशाली है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। उसका इस सीमा तक रोबोटाइजेशन हो चुका है, कि नैतिकता, देश का कोई भविष्य, समाज का कल्याण उसकी निजी सफलता के आगे निरर्थक हो चुका है।
उसके सभी दावे अर्धसत्य हैं। 1- मोदी की विजय का पूर्वाभास मनमोहन सिंह के रबर स्टैप बन जाने से उत्पन्न निर्वात और देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है जैसे अनेक कथनो से उत्पन्न हिन्दुत्व चेतना का परिणाम था। यदि वह नीतीश का सलाहकार बना तो लालू का पलड़ा भारी क्यों पड़ा? नीतीश जीते नहीं हारे। राज्य स्तर पर जहां मोदी से टक्कर न थी, वह बहुत बड़े नेता थे। पंजाब में ड्रग तस्करी में अकाली दल की संलिप्तता ने उसकी साख गिरा दी थी। उस निर्वात में अमरेन्द्र सिंह का संयत व्यवहार एक गारंटी था। कर्जमाफी का नाममात्र को असर पड़ा। आमआदमी नंगा होने लगी थी।
मरना इतना दुखद नहीं होता जितना अपनी आंखों के सामने अपनी अगली पीढ़ियों का नैतिक आत्मघात। निजी सफलता के लिए आदमी का जीते जी गिद्ध मे बदल जाना।