बातचीत का रास्ता ( समाहार)
कश्मीर के लाखो लोग कश्मीर से बाहर शरणार्थियों जैसी स्थिति में रहने को बाध्य हैं। कश्मीर से उन्हें निर्वासित करने वाले लोग मनमानी की इतनी छूट होते हुए भी आजादी चाहते हैं। उन्होंने हिंदुओं को इसलिए कश्मीर से बाहर कर दिया मुसलमान हिंदुओं के साथ शांति से नहीं रह सकता। भारत में प्रबुद्ध कहे जाने वाले मुसलमानों में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई है? असुरक्षा की भावना का कारण यह है कि भारत में हिंदू बहुमत में हैं। हिंदुओं के बहुमत में होने पर मुसलमान सुरक्षित नहीं अनुभव कर सकते। और कश्मीर के उदाहरण से सिद्ध है कि मुसलमानों का बहुमत होने पर हिंदू सुरक्षित नहीं रह सकते।
विभाजन का आधार था, मुसलमानों का यह मानना कि हिंदुओं के साथ दूसरे सभी धर्मों के लोग शांति से रह सकते हैं परंतु मुसलमान शांति से नहीं रह सकते। जिस बात को वे जानते थे पर मानने को तैयार नहीं थे, वह यह कि एक मत के मुसलमान दूसरे मुसलमानों के साथ भी शांति नहीं रह सकते।
इस्लाम के संस्थापक के अपने निजी विचार क्या थे इसे जानने का हमारे पास कोई विश्वसनीय आधार नहीं है। कुरान उन्होंने नही लिखा, न हदीस लिखा। जिन्होंने लिखा उन्होंने उनका इस्तेमाल किया। उनके नाम पर जो कुछ हुआ वह हिंसा और क्रूरता के अतिरिक्त कुछ नहीं था।
हमारे देश का विभाजन भी तर्क के स्थान पर हिंसा का प्रयोग करते हुए किया गया। मुसलमान मुसलमानों के साथ रह सकते हैं या नहीं यह उनकी समस्या है। जिस जनमत संग्रह से विभाजन का निर्णय हुआ उसमें वर्तमान भारतीय भूभाग के मुसलमानों में लगभग सभी की सहमति थी। ऐसा मत वर्तमान पाकिस्तान के कुछ मुसलमानों का नहीं था, परंतु उनको मुसलमान होने के नाते पाकिस्तान में ही रहने को बाध्य किया गया।
यह तय है कि जब तक मुसलमान पक्का मुसलमान होने का प्रयत्न करेगा तब तक उसके साथ किसी दूसरे मजहब या विश्वास का व्यक्ति शांति से नहीं रह सकता।
विभाजन से पहले मुसलमान जितने मुसलमान थे उसकी तुलना में आज के मुसलमान अधिक कट्टर मुसलमान और हिंदू जितने हिंदू थे उससे नरम हिंदू होते चले गए हैं। विभाजन से पहले दक्षिणपंथी हिंदू जिस तल्ख भाषा में बात करते थे उसमें लोकतांत्रिक भागीदारी के कारण नरमी आई है। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दर्शकों में आर्य समाज का शुद्धि आंदोलन समाप्त हो गया। घर वापसी की विरल घटनाएं जब तब सुनने को मिलती हैं, परंतु उनमें कुछ ही समय पहले प्रलोभन आदि के द्वारा ईसाई बनाए गए आदिवासियों को उनकी परंपरा की याद दिला कर वापस लाने का प्रयत्न होता है जिसका मुस्लिम समाज पर प्रभाव नहीं पड़ता।
हिंदुओं में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है जो परंपरावादी सोच और जीवन शैली से दूरी बनाकर रहना अपने लिए गौरव की बात मानते हैं। मुस्लिम समुदाय में ऐसे लोगों की संख्या नदारद है। ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत कम है जो अपने को सेकुलर कहते हैं, पर वे भी मुसलमानों की कट्टरता पर परदा डालने या उधर से ध्यान हटाने का काम करते हुए भ्रम पैदा करने का प्रयत्न करते हैं कि मुस्लिम समाज में कोई समस्या नहीं है यदि है तो हिंदू समुदाय के उन लोगों के कारण है जो मुसलमानों की तरह ही कट्टर हैं। मुस्लिम कट्टरता उसका स्थाई भाव नहीं है, हिंदू कट्टरपंथियों की प्रतिक्रिया है। इसलिए उनकी साहित्यिक रचनाओं में, उनके लेखों, व्याख्यानों और कलाकृतियों में प्रच्छन्न रूप से वह पर्यावरण तैयार किया जाता है जिसमें इस्लामिक कट्टरता का बचाव किया जा सके। मुस्लिम पक्के हैं तो कट्टर मुस्लिम हैं और उदार या धर्मनिरपेक्ष हैं तो बिना पावर ऑफ अटॉर्नी के उनके वकील हैं , जो बिना फीस उनका बचाव करते हैं। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण यथार्थ है जिसका सामना नहीं किया जा सकता, सामना कर सकें तो भी बयान नहीं किया जा सकता, इस दहशत के कारण कि यदि ऐसा किया तो चरित्र हनन हो जाएगा।
मनुष्य आत्म सम्मान की रक्षा के लिए प्राण देने को तैयार हो जाता है इसलिए चरित्र हनन का डर उसे इतना भयभीत कर देता है कि वह जिस सच्चाई को देख चुका है उसे भी बयान नहीं कर पाता।
मैंने यह रास्ता चरित्र हनन का जोखिम उठाते हुए अपनाया। सत्य की रक्षा आत्मरक्षा से अधिक जरूरी है। वह बचा रहे और आप का कलंक भी बचा रहे तो उससे यह कलंक भी धुल जाएगा, आपका पुनर्वास भी हो जाएगा । अपने अनुभव-सत्य पर टिके रहने के लिए इतना ही आश्वासन पर्याप्त है और इसी के बल पर मैं वर्तमान यथार्थ को और हमारी समस्याओं के स्थाई समाधान को प्रस्तुत करने का साहस जुटा पाया हूं।
मुस्लिम समुदाय का प्रेरणा स्रोत हिंसा, उपद्रव, जहालत का रहा है। एक कौम को छोड़कर सभी को मिटा दो या उसका उनके सामने सभी को झुका दो। एक किताब को छोड़कर सभी को नष्ट कर दो। एक विचार को छोड़कर दूसरा कोई विचार पनपने मत दो। एक विश्वास को छोड़कर दूसरे विश्वासों के लिए जगह मत छोड़ो। जो किताब का हुक्म है, तामील करो। बहाने करने का, बचने का, किसी तरह की ढील बरतने का मतलब है शिर्क, सबसे बड़ा गुनाह । इसलिए सच्चे मुसलमान के साथ मुसलमान तक शांति से नहीं रह पाता, दूसरा कोई तो शांति और अमन से रह ही नहीं सकता।
भारत पर हमला करने वाले मुसलमान जैसे भी थे, हिंदुओं के संसर्ग में रहने के बाद उनकी कट्टरता में कमी आई थी। जिन मुसलमानों ने जिन्ना के सिद्धान्त को मानते हुए कि हिंदुओं के साथ सम्मान के साथ रहने को असंभव मानते हुए एक अलग देश का समर्थन किया था, वे इतने कट्टर नहीं थे जितने आज हो चुके हैं। मैं जिस स्कूल में पढ़ता था उसमें मुस्लिम बच्चे भी पढ़ते थे। धर्म के आधार पर उनका कोई स्कूल नहीं था। मुझे अपने गांव जाने पर यह देख कर हैरानी हुई कि हमारे गांव की मस्जिद में मुसलमानों के लिए एक अलग सरकारी स्कूल चलता है। विभाजन के दुर्भाग्यपूर्ण दिनों में भी हमारे गांव में किसी मुस्लिम को न तो अपमानित होना पड़ा था न ही किसी तरह की खरोंच आई थी, न मस्जिद में नमाज पढ़ने से आगे या पीछे किसी को यह समस्या आई थी कि वे हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते।
जो लोग पहले अपने हितों के लिए सही प्रतिनिधित्व के अभाव की चिंता से ग्रसित थे, वे अब एक नई चिंता से ग्रस्त हो गए कि हिंदुओं के साथ किसी तरह का संपर्क ही नहीं रख सकते।
इसे भारतीय मुसलमानों ने नहीं पैदा किया। इसे सेक्युलरवादी राजनीति ने पैदा किया। जो तुम नहीं चाहते हो वह भी हम तुम्हें दे कर जो तुम नहीं बनना चाहते हो वह भी हम तुम्हें बनाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे हमारा शासन कायम रहे।
जो लोग किसी के साथ बैठ कर पढ़ नहीं सकते, वे किसी व्यवस्था में एक साथ मिलकर काम कैसे कर सकते हैं? करें तो काम से अधिक समस्यायें पैदा करेंगे। यदि इसके कारण उनके साथ भेदभाव हो जाए तो इसके लिए केवल शिकायत नहीं करनी चाहिए, यह भी देखना चाहिए इसकी जड़ें कितनी गहरी हैं। उनकी विश्वसनीयता को कौन लोग कम कर रहे हैं? उनसे बचाव का क्या तरीका हो सकता है? मुस्लिम समाज में जागरूकता कम हुई है। पहले भी नहीं थी पर इतनी कम भी नहीं थी।
विभाजन से पहले की तुलना में मुस्लिम कट्टरता को बढ़ाने वाले जो अन्य घटक मुझे दिखाई देते हैं वे निम्न हैंः
1. पहले अरब देशों के तेल भंडार का दोहन आरंभ नहीं हुआ था। उनमें वह समृद्धि नहीं आई थी कि वे अय्याशी के इतने आदी हो जाएं छोटे-मोटे कामों के लिए उन्हें दूसरे देशों से कामगार बुलाने पड़े। मुस्लिम देश होने के कारण मुसलमानों के लिए वरीयता थी परंतु उसका लाभ उठाने वालों को अपने को सच्चा मुसलमान सिद्ध करने की बाध्यता भी थी।
2. देश के विभाजन से पहले पैन-इस्लामियत एक खयाल थी, बाद के दौर में यह एक सचाई में बदल गयी। मुसलमान होने के कारण मुस्लिम देशों में मुसलमानों के लिए कुछ अधिक रियायत और मुसलमान सिद्ध होने के लिए कुछ अधिक कठोर शर्ते और उनके लौटने के बाद भारत में उन के माध्यम से मजहबी पाबंदी के नाम पर कट्टरता का विस्तार। वहां से पैसा कमाकर लौटने के बाद मुसलमान वही मुसलमान नहीं रह जाता जो वहां कमाने गया था।
2. नव धनाढ्य जैसे परिपक्वता के अभाव में अपनी जड़ें मजबूत करने की जगह, धन की बर्बादी शेखी बघारने में करता है, उसी तरह अरबों ने मुस्लिम देशों का नेता बनने की कोशिश में अपने धन की बर्बादी इस्लाम की कट्टरता के विस्तार में किया, इसके इतने नमूने भारत में देखने में आते हैं कि उनकी गणना करने की योग्यता मुझ में नहीं है।
3. तेल भंडार पर अपना कब्जा बनाए रखने के लिए अमेरिका ने अरब देशों की संपत्ति को इनके विकास पर खर्च होने और अपने लिए ही संकट मोल लेने की जगह, उनको पिछड़ा रखने के लिए उनकी धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा दिया और उनकी सलाह पर पेट्रो डॉलर का दूसरों की नजर से अपार परंतु डॉलर की उल्टी करने वाले देशों की नजर से एक मामूली रकम का प्रयोग दूसरे देशों की मुस्लिम आबादी में कट्टरता बढ़ाने के लिए किया गया, जो दिखाई तो देता है परंतु जिसे हम देख नहीं पाते।
4. सेक्युलर राजनीति की आड़ में भारतीय लोकतंत्र में मुस्लिम कट्टरता को कितने रूपों में बढ़ावा दिया गया, उनका अनुमान हम सभी को है, परंतु उनका सही लेखा देने के लिए जो आंकड़े चाहिए वह मेरे पास नहीं है।
इन विविध कारणों से पहले का मुसलमान यदि हिंदुओं के साथ रहने में कोई ऐसी असुविधा नहीं अनुभव करता था जिसके कारण हिंदुओं के साथ शांति से रह ही न सके ताे आज के मुसलमान के लिए हिंदुओं के साथ शांति से रह पाना असंभव लगता है। इस कथन को उलट कर रखें तो वह अधिक सही होगा। सार यह कि विभाजन से पहले अपने सामाजिक, आर्थिक और भूभौतिक ताने-बाने के कारण हिंदू और मुसलमान अलग रह नहीं सकते थे और आज साथ रहने के लिए तैयार ही नहीं हैं। असंतोष अनेक रूपों में प्रकट होता है। अल्पसंख्यक मुसलमानों को भी समायोजित करने के लिए जिन मांगों की पूर्ति की जानी चाहिए वे भारतीय संविधान की परिधि में संभव नहीं है इसलिए उन्हें अतिसांवेधानिक रियायतें देनी होती है।
मुहम्मद अली जिन्ना को भारतीय इतिहास में खलनायक के रूप में पेश किया जाता रहा है जिसमें यह समझना कठिन है कि वह नेहरू और गांधी से अधिक यथार्थवादी थे और इन दोनों से कम मानवतावादी नहीं थे। हम उन्हें समझदार नहीं कह सकते, क्योंकि उन्होंने जिस सोच को आगे बढ़ाया था वह भारतीय सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक जटिलताओं के कारण व्यावहारिक नहीं था। परंतु इसका समाधान उनके पास था –
विभाजन के बाद आबादी का शांतिपूर्ण अदला-बदली।
गांधी और नेहरू स्वप्नजीवी थे, जिन्ना यथार्थवादी थे। उनकी पाकिस्तान में नहीं चली, हिंदुस्तान में उसे चलने नहीं दिया गया। परंतु समस्या बातचीत की नहीं है, जो बात हुई थी, जो अपेक्षाएं पूरी करनी थीं वे पूरी नहीं की गईं।
बातचीत हो चुकी है। उस पर अमल करने की जरूरत है। परंतु क्या इसका साहस कोई कर सकता है। मुस्लिम बहुल कश्मीर हिंदुओं को सहन नहीं कर सकता। उसे पाकिस्तान में होना चाहिए। शेष भाग भारत का अभिन्न अंग हैं क्योंकि वहां हिंदू अधिसंख्य हैं।
शेष भारत में मुसलमान असुरक्षित अनुभव करते हैं। उन्हें सुरक्षित वातावरण में जाना चाहिए। पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदुओं को भारतीय भूभाग में बसाया जाना चाहिए। समस्या बातचीत की नहीं है। बातचीत हो चुकी है। समस्या उसको लागू करने की है। जब तक उसे लागू नहीं किया जाता तब तक भारत और पाकिस्तान न तो शांति से रह सकते हैं, न अपना विकास कर सकते हैं। परंतु क्या है किसी में ऐसा साहस जो बातचीत से जो तय हुआ था उसे कार्य रूप में परिणत कर सके?