बातचीत का रास्ता (2)
बातचीत से किसी समस्या का स्थाई समाधान तभी हो सकता है जब समाज अपने व्यावहारिक जीवन में नैतिकता के उच्चतम आदर्शों का निर्वाह करे। सभ्यता के विकास के क्रम में आदर्श और व्यवहार की दूरी उसी अनुपात में बढ़ती गई जिस अनुपात में विषमता का विस्तार हुआ। सतयुग के सम्मोहन और कलियुग की गिरावट का काल्पनिक खाका इसी सामाजिक यथार्थ पर आधारित है।
परंतु उस आदर्श अवस्था में भी विभिन्न जत्थों के बीच बातचीत से काम नहीं चलता था। उनमें आपसी टकराव होता था। ऐसे भी चरण आए जिनमें शिकार पर पलने वाले समुदायों को अन्य जानवरों की तुलना में मनुष्य का शिकार करना आसान लगता था। ऐसे समुदाय भारत में भी थे, इसे हम प्रतीकात्मक अवशेषों में देख सकते हैं। उनके साथ संवाद से काम नहीं चल सकता था। भिन्न इरादे रखने वालों के साथ संवाद की विफलता की सबसे पुरानी शिकायतें ऋग्वेद में मिलती हैं,
न यः संपृच्छे न पुनर्हवीतवे न संवादाय रमते ।
तस्मान्नो अद्य समृतेरुरुष्यतं बाहुभ्यां न उरुष्यतम् ॥ 8.101.4
जो न सीधे मुंह बोलता है, न किसी की सुनता है न ही जिसे बातचीत पसंद है आज उसी से पाला पड़ा है। हे मित्र और वरुण अपने बाहबल से उससे हमारा उद्धार करो।
नाम भले देवों का लिया जाए, बाहुबल तोअपना ही काम में आता रहा होगा।
ऐसी दूसरी भी अनेक ऋचाएं हैं। उनके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है पर यह बताना प्रासंगिक हो सकता है कि उनमें कुछ ऐसी भी हैं जिनमें यह कामना की गई है कि शत्रु के पाषाण हृदय पर लौह लेखनी से प्रेम संदेश लिखकर उसे हमारे प्रति कोमल बनाएं।
आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे । अथेमस्मभ्यं रन्धय ॥
यां पूषन्ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याघृणे । तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ॥ 3-53.7-८
इन उद्धरणों से हमारा विमर्श किंचित बोझिल हो जाता है, फिर भी यह याद दिलाना जरूरी लगता है कि जिन वैदिक जनों को क्रूर, युद्धोन्मादी, उपद्रवी और बर्बर सिद्ध किए जाने वाले लिख इतिहास लिखे जाते रहे वे केवल अपने शांति पाठ में ही शांतिप्रेमी नहीं थे अपितु एक बर्बर और असभ्य परिवेश में शांति और संवाद और न्याय के आधार पर दूसरों को बदलते हुए एक सांस्कृतिक क्रांति कर रहे थे।
जिन जनों से उनका पाला पड़ता था वे इस देश के भी बर्बर और असभ्य समुदाय थे। देशांतर में तो इन्हीं से ही पाला पड़ता था। युद्ध और हिंसा की अपेक्षा संवाद से, भाईचारे से टकराव को कम करने का हमारा इतिहास बहुत पुराना है और वह हमारी चेतना का अंग बना हुआ है। यह केवल परंपरावादियों में ही नहीं है, उससे विद्रोह करने, उससे अलग जाने वाले, उसको नष्ट करने वाले उपद्रवकारियों में भी है जो उपद्रव को क्रांति की संज्ञा देते हैं। परंतु उन्हें परंपरा का पूरा ज्ञान नहीं है। और वह परंपरा का किसी रूप में पालन करने के लिए तैयार नहीं होते हैं।
हिंसा और युद्ध संवाद की संभावना के अभाव और संवाद की विफलता के परिणाम हैं। पशुओं से संवाद संभव नहीं, उनका सामना होने पर दो ही विकल्प रह सकते हैं – भागकर बचा जा सकता हो तो बचना और यदि शक्ति हो तो प्रतिघात करना। परंतु यह पशुओं का चुनाव है जो हर दशा में अपने बचाव चिंता करता है, उसके पास इससे ऊपर का कोई मूल्य नहीं होता। पशुओं के साथ हम यही व्यवहार करते हैं। मनुष्य के साथ, उसके जीवन से अधिक उसकी गरिमा की रक्षा जरूरी होती है। इसलिए अन्य कोई विकल्प न होने के बाद वह अपमानित होकर जीने की अपेक्षा स्वाभिमान की रक्षा करते हुए मर जाना पसंद करता है।
संवाद की विफलता के बाद युद्ध के लाभ और हानि का विचार गौण हो जाता है, आत्मसम्मान, देशाभिमान की रक्षा, मनुष्यों के बीच, मनुष्य होकर जीने की प्रमुख शर्त बन जाती है। भारत ने इसका पालन किया है यह उपभोक्तावादी और सुविधाजीवी क्रान्तिकारियों को भूल जाता है।
हमारे देश में विद्रोह कम हुए हैं, आत्म चिंतन अधिक हुआ है, परंतु आज का हमारा आचरण हमारे प्राचीन जातीय आचरण के ठीक विपरीत हो चला है। हमने अपनी पहल से अपनी समस्याओं को समझने का प्रयत्न नहीं किया, यहां तक कि हमने स्वयं अपनी पहल से अपनी समस्याएं तक नहीं पैदा कीं। क्या विचित्र संयोग है कि समस्याएं पैदा करने वाला हमें समस्याओं के समाधान की सलाह देता है, उनके तरीके बताता है और हम उन पर अमल करते हैं। यह तक नहीं सोच पाते कि कहीं समस्याएं पैदा करने वाला समाधान के नाम पर समस्याओं के समाधान को अधिक जटिल न बना रहा हो। हमारी अधिकांश सामाजिक समस्याएं दूसरों के इरादों और उनकी फितरत से पैदा की गई हैं, यह समझ तक हमारे भीतर नहीं है।