Post – 2019-03-19

अपनी खबर
मैं अपने काम के बाद केवल अपने पाठकों की चिंता करता हूँ।
बारे मेे कोई लेखक या आलोचक क्या कहता है इसकी ओर ध्यान नहीं दे पाता। उसकी फुर्सत नहीं मिलती। इधर मेरे पुत्र को मेरे बारे में जानने और बताने की याद आई तो उन्होंने मुझे https://www.rachanakar.org/ में प्रकाशित हृदयेश जी का एक लंबा संस्मरण मेल कर दिया जिसमें मेरा कुछ विस्तार से उल्लेख है।
कहानीकार के रूप में मैं हृदयेश जी का बहुत आदर करता हूं और उन पर लिखने की बड़ी इच्छा थी। न लिख पाने का मन में मलाल भी है। एक व्यक्ति के रूप में भी मैं उनको सरल -सहज-आत्मीय ही मानता हूं इसलिए यह समझ में न आया कि उन्होंने कुछ बातें खिन्नता के कारण गढ़ लीं या यायदाश्त ने साथ न दिया और उनको उन्होंने कल्पना से उन्हें गढ़ लिया। पहले मैं केवल आदर करता था, अब उनकी दशा पर सहानुभूति भी अनुभव करता हूँ।
इसमें सबकी रुचि तो न होगी परंतु जिनकी रुचि हो उनके लिए और रेकार्ड दुरुस्त करने के लिए गलत अंशों को [ ] चिन्हित करते हुए अपनी टिप्पणी के साथ देना जरूरी समझता हूं।

उन्होंने यह भी कहा था कि उनके मित्र आयकर अधिकारी विनोद कुमार श्रीवास्तव ने, जो उनके लेखकीय व्यक्तित्व का आदर करते हैं, उन पर उस सम्मान आयोजन में भाग लेने का दबाव बनाया था. [इसके साथ वह गोपनीय सूचना भी दी थी कि उस वर्ष के सम्मान की दौड़ में काशीनाथ सिंह भी शामिल थे, किन्तु जूरी के सदस्यों ने बहुमत से उनके नाम की संस्तुति की थी.]
टि. यह सूचना उन्हें कहीं और से मिली होगी, या मन में काशीनाथ सिंह से अपने को महत्वपूर्ण सिद्ध करने की दबी लालसा होगी।
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[ भगवान सिंह ने बताया था कि आम खिलाने के वास्ते वह साथ में नामवर सिंह को भी लाना चाहते थे. बात तय हो चुकी थी. किन्तु नामवर सिंह के इस बीच एकाएक बन गए कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के कारण उनका यहाँ आना रद्द हो गया. नामवर सिंह जाते तो वह उनकी भी उनसे भेंट-मुलाकात कराते. नामवर सिंह की बौद्धिकता उनकी कद्दावर शख्सियत को लेकर हृदयेश में आतंक था. नामवर सिंह से मिलते, बात करते हुए वह सहज नहीं रह पाते]
टि. यह इतनी हास्यास्पद कल्पना है कि इस पर टिप्पणी की भी आवश्यकता। संभव है पीड़ा यह हो कि नामवर जी ने उन पर कुछ नहीं लिखा। परंतु मेरी न सही नामवर जी के स्वभाव का पता होना चाहिए था।
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उनको अपना वह विचार कुछ समय के लिए स्थगित करने की सलाह दी थी, ‘मेरा किताबघर से नयी कहानियों का संग्रह दो-एक माह में आने वाला है. कृपया इस संग्रह की कहानियों पर भी आप पहले नजर डाल लें.’
उत्तर आया, ‘लिखने का ताप मुझमें अभी है. ताप ठंडा नहीं होना चाहिए. आप प्रकाशक से कहकर मुझे संग्रह की डमी तुरन्त भिजवा दें.’
[डमी उनको भिजवा दी गयी.
हृदयेश ने उससे पूर्व नेशनल पब्लिशिंग हाउस से निकला संग्रह ‘नागरिक’ भी प्रकाशक को लिखकर भिजवा दिया. फिर अपनी चार-पाँच प्रतिनिधि कहानियों की छाया प्रतियाँ भी. उनका मानना था कि सही और पूर्ण मूल्यांकन के लिए पर्याप्त सामग्री सामने होनी चाहिए.]
टि. इस तरह की ढेर सारी सामग्री उन्होंने पहल सम्मान से पहले भेजी थी। उसका प्रसंग ही अलग था।
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भगवान सिंह के सान्निध्य से प्राप्त अपने अनुभवों के आधार पर वह उनको सहज ही ईमानदार मान सकते थे बतौर एक लेखक और व्यक्ति दोनों. उनके व्यवहार में खरेपन की खुरखुराहट थी, पर साथ ही वहां बनी पारदर्शिता उस खुरखुराहट को महसूस नहीं होने देती थी. प्रदीप सक्सेना में भी यों ये ही विशेषताएँ थीं, पर स्थितियाँ जन्य विवशताएँ वहां बड़ी बन गयी थीं. भगवान सिंह अपनी वचनबद्धता निभाएंगे, उनसे ऐसी आशा अधिक थी. इसलिए भी कि ढांचों में वही अंतिम व्यक्ति थे.
भगवान सिंह को यथास्थिति जानने के लिए पत्र डाला गया. उत्तर आया, ‘ताप जाता रहा है. उसके वापस आने की प्रतीक्षा है.’
एक बड़े वक्फे के बाद फिर पत्र ाला, ‘ताप वापस आया या अभी दूरस्थ है?’
उत्तर, ‘इधर एक पुस्तक की समीक्षा करने को आ गई थी. दो-एक लेख भी लिखने पड़े. आ गया दूसरा काम पहले वाले काम को पीछे ठेल देता है.’
एक और बड़े वक्फे के बाद फिर पत्र डाला. इस बार उत्तर की बजाय खामोशी. नारायण बाबू ने कहा कि हो सकता है आपका पत्र कहीं रास्ते में गुम हो गया हो. आपको मुद्दे पर सीधे लिखते हुए अगर संकोच होता हो तो दीपावली, नववर्ष पर शुभकामनाएँ भेजिए. ये शुभकामनाएँ भी उनको आप वाले काम का स्मरण कराती रहेंगी.
टि. यहां जिस को देखने के बाद लिखने का उनका प्रस्ताव था वह संग्रह भी किताबघर से नहीं नेशनल पब्लिशिंग से आने वाला था। वह काफी विलंब से आया था। इस बीच मैं किसी दूसरे काम पर लग गया था इसलिए ताप चुक जाने की बात सही है। इसका नतीजा यह हुआ कि एक बार जब नेशनल पब्लिंग हाउस ने कोई पुस्तक प्रकाशनार्थ देने को कहा तो मैंने हृदयेश जी के कहानीसंग्रह के प्रकाशन में हुए विलंब का हवाला देते हुए मना कर दिया था।

भेजी गयी शुभकामनाओं की एवज में कभी प्रतिशुभकामनाएँ आ जाती थीं, कभी वे भी नहीं.
चन्द्रमोहन दिनेश ने भगवान सिंह को फोन किया था. भगवान सिंह के शाहजहाँपुर प्रवास के दिनों में चन्द्रमोहन प्रायः उनके साथ भगवान सिंह से मिलने जाते थे और उनका बताया हुआ कोई काम भी सोत्साह कर देते थे. वह जिलाधीश के वैयक्तिक सचिव थे. उन्होंने यह फोन अपनी ओर से किया था, यो ही हालचाल लेने के लिए. उनको इस बात का इल्म भी नहीं था कि भगवान सिंह ने कोई लेख लिखने का वादा हृदयेश से कर रखा है. फोन पर हुई बातचीत में भगवान सिंह ने चन्द्रमोहन से कहा कि वह हृदयेश जी को बता दें कि उनपर उनको लेख लिखना है, पर वह लेख कब लिखा जाएगा इसे वह स्वयं भी नहीं जानते हैं.
संदेश पाने पर मन बसा रहे दूध से दही बन गया. भगवान सिंह ने फोन के चोंगे के पीछे उनकी उपस्थिति पायी थी.

नहीं, उन्होंने फिर पत्र लिखा ता, कई माह बाद और एक दूसरे संदर्भ में. रवीन्द्र वर्मा का उपन्यास ‘पत्थर ऊपर पानी’ पूरा का पूरा ‘कथादेश’ के एक अंक में प्रकाशित हुआ था. भगवान सिंह ने पत्रिका में पाठकीय प्रतिक्रिया स्वरूप उस उपन्यास की जमकर प्रशंसा की थी. उतनी प्रशंसा उनको सही नहीं लगी थी. उन्होंने पत्रिका को न लिखकर सीधे भगवान सिंह को लिखा था कि वह उनकी धारणा से असहमत हैं क्योंकि उपन्यास में दर्शन की बघार ज्यादा है. इसने उसे पाठकीय स्वाद की दृष्टि से कुछ बेस्वाद कर दिया है. भगवान सिंह ने उत्तर देते हुए लिखा था कि कृति में दर्शन का होना बुरा नहीं होता है. असल में जैसे हमारी रुचि, प्रकृति, अनुभव, की भिन्नता हमारी सर्जना को प्रमाणित करती है और हमें एक खास तरह का लेखक बनाती है, उसी तरह हमें एक खास तरह का पाठक भी बनाती है. फिर इसी पत्र में उन्होंने उनपर न लिख सकने का स्वतः स्पष्टीकरण दिया था कि वह अभी निष्क्रियता के दौर से गुजर रहे हैं. उनपर जो कुछ लिखना शुरू किया था वह अभी वहीं ठहरा हुआ है जहाँ व्यवधान आया था. लिखा हुआ अंश वह साथ में भेज रहे हैं. पर यह इस बात का संकेत नहीं कि इसकी यहीं इतिश्री है. संकेत यह कि इसे लिखने की भीतर से उठी उमंग अभी स्थगित है.

उनपर लिखा वह अंश पाँच-छह सौ शब्दों का था. शीर्षक दिया गया था ‘मिट्टी के भी होते हैं अलग-अलग रंग.’ भगवान सिंह ने लेख की शुरूआत यह बताते हुए की थी कि हृदयेश हिन्दी के उन रचनाकारों में हैं जिनका अपना रंग है और इसके बाद भी वह बहुतों के इतने करीब पड़ते हैं कि उनका अलग रंग पहचान में नहीं आता. इस प्रसंग में अन्य रचनाकारों के साथ प्रेमचंद का नाम भी लिया गया है. यदि हृदयेश किसी परम्परा में आने का प्रयत्न करते तो वह हृदयेश नहीं हो सकते थे. खुदा जैसा बनने का प्रयत्न करने पर खुदी को गंवाना पड़ता है.

फिर उन्होंने हृदयेश की ओर लोगों का उचित ध्यान न देने के लिए इसका एक कारण उनके शहर शाहजहाँपुर का बताया था जो भारत के मुख्य भू-भाग से अलग छिटके हुए एक द्वीप जैसा है. यह भी संभावना उनके नाम के आधार पर प्रकट की थी कि उन्होंने अपने लेखन का प्रारम्भ कविता से किया होगा.

टि. मैंने उन पर लिखना आरंभ किया था, इसकी सूचना मिलने पर उन्होने अपने नए संग्रह को भी देखने के बाद लिखने का उनका प्रस्ताव था वह संग्रह भी किताबघर से नहीं नेशनल पब्लिशिंग से आने वाला था। वह काफी विलंब से आया था। इस बीच मैं किसी दूसरे काम पर लग गया था इसलिए ताप चुक जाने की बात सही है। इसका नतीजा यह हुआ कि एक बार जब नेशनल पब्लिशिंग हाउस ने कोई पुस्तक प्रकाशनार्थ देने को कहा तो मैंने हृदयेश जी के कहानीसंग्रह के प्रकाशन में हुए विलंब का हवाला देते हुए मना कर दिया था।

फिर इसके आगे यह बताते हुए कि हृदयेश ने बीच-बीच में आने वाले तमाम आंदोलनों को गुजर जाने दिया बिना अपने लेखकीय तेवर या प्रकृति में बदलाव लाए हुए, कि वह चुनाव पूर्वक अपनी जमीन पर टिके रहे न दैन्यं न पलायनम्, कि हृदयेश एक साथ कई परम्पराओं से जुड़ते हैं क्योंकि प्रत्येक रचानाकार अपने वरिष्ठों, समवयस्कों, यहाँ तक कि अल्पवयस्कों की कृतियों के प्रभाव को अपनी अनवधानता में सोख लेता है जैसे पौधे की जड़ें खाद के रस को सोख लेती हैं, लेख को असमाप्त छोड़ दिया था, कोई व्यवधान आ जाने के कारण.