बातचीत का रास्ता
हिंसा और युद्ध, हिंसा और युद्ध का ही पर्यावरण तैयार करते हैं। जो बोया सो ऊपजा। कुछ समय के लिए शक्तिशाली व्यक्ति अमानवीय क्रूरता का सहारा लेते हुए दूसरों पर हावी हो जाए तो भी उस दौर में वह चैन से नहीं रह पाता। जिनको दबा कर में रखता है वे तो चैन से रह ही नहीं सकते।
क्रूर व्यक्ति कायर भी होता है। अपने आसपास के लोगों से अपने सगे संबंधियों से भी डरा रहता है। वह अपने से कमजोरों की हत्या करता है, बराबर के लोगों से धोखाधड़ी करता है । शौर्य की कसौटी पर तुच्छ सिद्ध होता है।
पराजित व्यक्ति या समाज अपनी लाचारी के होते हुए भी प्रति हिंसा के लिए छटपटाता रहता है, और कई बार यह छटपटाहट दबी हुई ऊर्जा का इतना बड़ा भंडार तैयार कर लेती है, कि उसका उन्मोचन भूगर्भीय लावा की तरह इतना विस्फोटक हो जाता है कि वह सत्ता की अभेद्य प्रतीत होने वाली चट्टानों को तोड़ देता है। औरंगजेब के सामने शिवाजी की हैसियत क्या थी। अरबों से धर्मयुद्धों में लगातार पराजित होने वाला यूरोप का ईसाई जगत क्या था। परंतु इस अपमान बोध ने ऐसी ऊर्जा पैदा की कि उसका छोटा से छोटा देश जीने मरने के संकल्प से भर गया। इसका सही गणित क्या है हमें पता नहीं, क्योंकि हर मामले में ऐसा नहीं होता है।
परंतु युद्ध और हिंसा से कभी किसी समस्या का समाधान नहीं हुआ। युद्ध और हिंसा के कारण मानव समाज को अकल्पनीय त्रासदियों से गुजरना पड़ता है, मनुष्यता के कल्याण के लिए बहुत परिश्रम और लंबी योजना के बाद तैयार की गई निर्मितियों का भी ध्वंस होता है। युद्ध की तैयारी, उसके साधनों की व्यवस्था आयुधों के उत्पादन, सेना पर व्यय किए जाने वाले मानव श्रम की सकल बर्बादी का यदि मानवता के हित में उपयोग किया जा सका होता तो मरने के बाद स्वर्ग के कल्पना लोक में सपने देखने की जगह विज्ञान से हुई प्रगति का के बल पर धरती पर स्वर्ग उतारा जा सकता थ। इस दृष्टि से युद्ध की तैयारी और युद्ध की पहल करने वाले या तो पागल हो सकते हैं, या जड़।
दूसरी ओर भाषा और विचार से बड़ा और क्रांतिकारी हथियार आज तक न तैयार हुआ है न ही आगे तैयार हो सकता है। मनुष्य सृष्टि के सबसे दुर्बल प्राणियों में से एक था। भाषा के आविष्कार के बाद अनुपस्थित लोगों के साथ भी संपर्क करने के साधन का आविष्कार करने के बाद वह इतना शक्तिशाली हो गया की खतरनाक से खतरनाक, शक्तिशाली से शक्तिशाली जानवर का शिकार कर सके। भाषा और विचार ने ही उसमें हथियारों के आविष्कार से नैसर्गिक दुर्बलता को पूरा करने की योग्यता भी पैदा की। हथियार से भाषा पैदा नहीं हुई,भाषा और विचार से हथियार और औजार पैदा हुए। औजार जो सृष्टि करता है; हथियार जो विनाश करता है, दोनों भाषा की संततियां हैं।
विनाशकारी हथियार अपने आप नहीं चलता, उसे मनुष्य चलाता है। भाषा और विचार के माध्यम से उसका दिमाग बदला जा सकता है। बदला जाता रहा है। उसी हथियार का उनके विरुद्ध प्रयोग किया जा सकता है जिन्होंने दूसरों पर प्रयोग करने के लिए हथियार का आविष्कार किया।
मुहावरे में शांति और अहिंसा इसलिए भी सम्मोहक लगते हैं कि मनुष्य के समस्त निर्माण कार्य और मनुष्यता की सारी प्रगति शांति के दौर में ही संभव हुई है यद्यपि पूर्ण शांति हमें अपने निजी जीवन में भी बहुत कम प्राप्त होता है सामाजिक जीवन में इसके दौर कम रहे हैं। हमने अधूरी प्रगति की है, क्योंकि हमने अधूरी शांति के दौर ही देखे हैं।
निष्कर्ष यह कि भाषा और विचार में सृजन और विनाश की, जोड़ने और तोड़ने की, सत्य को उद्घाटित करने और सत्य पर पर्दा डालने की परस्पर विरोधी क्षमताएं है। भाषा में सर्वनाश की ही नहीं आत्म हत्या की क्षमता भी है, जिसका दूसरा नाम झूठ है। भाषा की निर्माणकारी भूमिका और कार्य के बीच भेद न रहने से पैदा हो
ती है; विनाशकारी भूमिका असत्य का सहारा लेने से पैदा होती। सत्य और असत्य नैतिक श्रेणियां नहीं है, अपितु इनके अमल से होने वाले निर्माण और विनाश के कारण इनको नैतिक और अनैतिक कोटियों में रखने की बाध्यता उत्पन्न हुई। नैतिक वह है जो मनुष्य मात्र के लिए कल्याणकारी है, और परम नैतिक वह है जो समग्र सृष्टि के लिए कल्याणकारी है। अनैतिक को सत्य का विलोम समझ सकते हैं।
यदि भाषा में हथियारों से भी अधिक संहार शक्ति है तो झूठ के लिए भाषा का प्रयोग करते हुए से उससे बड़ी हिंसा की जा सकती है जो हथियारों से संभव है। यही कारण है कि परमाणु आयुधों आविष्कार करने के बाद भी प्रचारतंत्र को अधिक शक्तिशाली माना जाता है।
यहां हम एक भेद करते हुए आगे बढ़ें कि सही जानकारी का विस्तार , वह जिस भी माध्यम से क्यों न हो, शिक्षा है। और जानकारी को किसी स्वार्थ के कारण ऐंठ- मरोड़ कर अर्धसत्य मैं बदल कर जिस भी माध्यम से क्यों न हो, संचारित करना, प्रचार है।
इसलिए यह आत्मवंचना है कि बातचीत के रास्ते हथियारों के प्रयोग से अधिक अहिंसक होते हैं। हिंसा के एक लंबे दौर से गुजरने के बाद भारत इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अहिंसा परम धर्म या सर्वोपरि आचार है- अहिंसा परमो धर्मः । परंतु इसके बाद जो दूसरा विकल्प भाषा का बचता था उसमें भी हिंसा की संभावना देखते हुए इस नतीजे पर पहुंचा था कि सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है, इससे बडा कोई ज्ञान नहीे है और असत्य से बड़ा कोई पाप नहीं हो सकता ‘नहि सत्यात परो धर्मों नानृतात् पातकं परम। नहि सत्यात परं ज्ञानं तस्मात सत्यं विशिषते।’ असत्य का सामना होने के बाद अहिंसा का पालन संभव नहीं हो सकता, इसलिए अहिंसा परमो धर्मा के आगे हिंसा को भी धर्म मानने को बाध्य होना पड़ा। अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च l”
सनातन परंपरा और जैन तथा बौद्ध मत में प्रधान अंतर यह है सनातन एक लंबे ऐतिहासिक अनुभव की उपज है, जबकि जैन और बौद्ध धर्म युद्ध और अहिंसा के विरुद्ध विचार को हथियार बनाने की विश्वास से पैदा हुए मत हैं। सत्य और अहिंसा के प्रति सम्मान दोनों में देखने में आता है, परंतु जहां सत्य का निर्वाह न हो रहा हो वहां भी उसका निर्वाह करते हुए हिंसकों को अहिंसक बनाया जा सकता है, इस विश्वास का दूसरा नाम जैन और बौद्ध मत है। बौद्ध मत में दूसरे देशों में जरूरी सुधार कर लिए गए। जैन मत भारत तक सिमटा रह गया इसलिए इसने अपने एकांगी प्रयोगों से कुछ नहीं सीखा।
गांधी जैन परंपरा में पले बढ़े थे। अपने एकांगी प्रयोग लगातार विफलताओं के बाद भी इसआशा में करते रहे किअपने आचरण के माध्यम से दूसरों के व्यवहार को बदला जा सकता है। उनका महान प्रयोग विफल हुआ। न
केवल वह हिंसा को रोक नहीं पाए, अपने अतिवादी प्रयोगों के कारण हिंदू समाज का भी पूरा हृदय परिवर्तन नहीं कर सके और स्वयं भी हिंसा के शिकार हुए।
वैज्ञानिक सोच में पिछले प्रयोगों की विफलता से सीखा जाता है हम कितने आस्थावादी हैं कितने विचारशील इसका प्रमाण हमारे बुद्धिजीवी वर्ग को देना चाहिए था। गांधी जी के महान प्रयोग की विफलता से भी हमने कुछ सीखा नहीं । उस प्रयोग का निष्कर्ष यह है की सामरिक शक्ति अर्जित करने के बाद ही शांति की पहल की जा सकती है और भाषा के माध्यम से पैंतराबाजी करनेवालों को सही जबान का इस्तेमाल करने को बाध्य किया जा सकता है।