नजर अपनी अपनी खयाल अपना अपना
जो मैं सोचता या कहता हूं उससे जब तक आप असहमत रहते हैं, तभी तक आप सुरक्षित हैं। असहमत होने का प्रयत्न करते हुए भी तार्किक आधार पर अन्य कोई सही कारण न पाने के बाद यदि आप मुझसे सहमत होने से कतराते हैं तो यह आपका सर्वनाश है। दोनों से बचते हुए मुझे पढ़ें।
मेरी सलाह है कि हाल की घटनाओं पर भावाकुल उद्गारों का दौर समाप्त होना चाहिए – चाहे वह छाती फुलाते हुए अपनी उपलब्धियों या अपने कारनामों का बखान हो, या छाती पीटते हुए चीत्कार हो कि हाय देश 50 साल पीछे चला गया, और यदि मोदी दुबारा आ गया और 50 साल पीछे चला जाएगा। इसलिए नहीं कि इनमें से कौन सा उद्गगार गलत या सही है।
इसलिए भी नहीं कि ऐसा सुनना मुझे बुरा लगता है। ईश्वर की कृपा से मैं इतना साधारण व्यक्ति हूं कि मुझे क्या अच्छा या बुरा लगता है इसके अनुसार किसी को अपनी सोच या समझ बदलने की जरूरत नहीं है।
ऐसा उन्हें इसलिए करना चाहिए कि भावावेश में दिमाग काम नहीं करता और बददिमागी में किए गए कामों का परिणाम कर्ता और भोक्ता दोनों के लिए अहितकर होता है। मेरी समझ से वे अपना नुकसान कर रहे हैं, और नुकसान हमें भी भोगना पड़ रहा है।
चुनाव के नजदीक पहुंचने पर लोगों को इस बात का ध्यान तो रखना ही चाहिए कि उनके कहे गए किस वाक्य का अधिकांश लोग क्या अर्थ लेते हैं और उनकी किस भंगिमा से अधिकांश लोगों के मन में कितना लगाव या विलगाव पैदा होता है। मेरी चिंता सत्ता किसके हाथ में आएगी या कौन उससे वंचित हो जाएगा, इसे लेकर नहीं है । मेरी चिंता मेरे अपने क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं। वह है बौद्धिक और सांस्कृतिक क्षेत्र। मैं इस बात से व्यथित अनुभव करता हूं कि पिछले पचास साल से दो अपवादों को छोड़कर प्रत्येक चुनाव के साथ भाषा का स्तर, संवेदना का स्तर, विचार का स्तर राजनीतिज्ञों के उत्साह के कारण निरंतर गिरता आया है। (ये दो अवसर अटट वाजपेयी की जीत और हार के आगे-पीछे उनके और उनके दल की मर्यादा से संबंध रखते हैं जिसे आप भगवा संस्कार कह सकते हैं।)
यदि यह ह्रास सत्ता तक सीमित रह जाता तो मैं खिन्न नहीं अनुभव करता, कारण पूरे इतिहास में सत्ता प्राप्ति के लिए जघन्यतम कृत्य किए गए हैं और सफल होने वालों को सम्मान दिया गया है।
मुझे कष्ट इस बात का है कि लोकतंत्र की महिमा के कारण, हथियारों का स्थान भाषा और प्रस्तुति की कला ने ले लिया है, और इसलिए सत्ता तक सीमित रहने वाले जघन्य का प्रवेश साहित्य, संस्कृति और मूल्य व्यवस्था में भी हो जाता है।
इस विनाशकारी भूमिका के बाद भी मैं सत्ता के लिए संघर्ष करने वालों को नसीहत देने की स्थिति में नहीं आ सकता था। समाज, संस्कृति, सभ्यता, आचार-व्यवहार, मूल्यप्रणाली पर उनके कृत्यों का क्या प्रभाव पड़ता है इसकी उन्होंने कभी चिंता नहीं की।
मैं उनके लिए चिंतित होने के कारण उनको केवल याद दिलाना चाहता हूं कि क्या तुम सही हथियारों का सही औजारों का , सही समय पर, सही ढंग से, और जितने समय के भीतर वे प्रभावशाली है उस सीमा को ध्यान में रखते हुए उनका प्रयोग कर रहे हो।
हमारी चिंता तो यह है कि अराजकता बुरे राजा के शासन से भी बुरी स्थिति होती है।
तानाशाही का डर दिखाने वालों को मैं यह याद दिलाना चाहता हूं कि तानाशाही के कई रूपों की हम उपासना करते हैं और यह भी कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में और उसके बाद भी गांधी और नेहरू सबसे बड़े तानाशाह थे। इंदिरा गांधी उनके सामने ठहरतीं ही नहीं। वे अपनी करने पर आ जाते थे तो किसी की नहीं सुनते थे और विरल अपवादों को छोड़ कर गांधी कभी गलत सिद्ध नहीं हुए, नेहरू कभी सही सिद्ध नहीं हुए, परंतु भारतीय समाज ने इन दोनों को जो सम्मान दिया है वह किसी अन्य को प्राप्त नहीं हुआ और संभव है कोई प्राप्त न कर सके।
मैं यहां यह याद दिलाना चाहता हूं तानाशाही की प्रवृत्ति मोदी में है। “मोदी है तो मुमकिन है” से बड़ा प्रमाण इसका क्या हो सकता है? परंतु क्या पिछले 5 सालों में जो कुछ मुमकिन हुआ है वह मोदी की इस जिद के कारण नहीं हुआ है कि हमें कुछ करके दिखाना है, हमें इस देश को कुछ बनाना है, हमें इसे आगे ले जाना है। हम रुके रह गए, पीछे चले गए, दूसरे देश आगे बढ़ गए, जबकि हमारे भीतर उनसे अधिक बौद्धिक आर्थिक और पारंपरिक संभावनाएं थीं। सड़ते, टूटते, बिखरते समाजों को लोकतंत्र की नहीं, तानाशाहों की जरूरत होती है। 2014 मे देश ने तानाशाह चुना था, आज इतर कारणों से वे ही परिस्थितियां पैदा हो गई हैं और इन्हें अपनी भूमिका का सही निर्वाह न करने वाले विपक्ष ने पैदा किया है।
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यह सच है कि जिस गति से जितने काम, जितनी कल्पनाशीलता से हुआ है वह मोदी के कारण ही संभव हुआ है, परंतु यह अशोभन है कि मोदी की उपस्थिति में ही यह कहा जाए और मोदी इसका बुरा न माने।
मैं उनसे यह नहीं कह रहा हूं कि ‘आप का व्यवहार आदर्श आचार के अनुकूल नहीं है’, मैं यह याद दिला रहा हूं, कि ‘इससे आपका नुकसान होता है।’यदि आप कहं कि मुझसे गलतियां हुई होंगी, मैंने अपनी क्षमता के अनुसार आप की सेवा की है, यदि आप मुझको इस योग्य समझते हैं कि मैं आपकी सेवा आगे भी कर सकूं तो आप मुझे चुन सकते हैं’ तो मोदी के पक्ष में इससे ऊंजी डंके की कोई चाट नहीं हो सकती थी। कारण उसने काम किया है और लोग इसे जानते हैं।
जब अपना कोई मुद्दा न होने के कारण राहुल गांधी चौकीदार चोर है कहते हैं तो उनको यह याद रखना चाहिए सुनने वाले कहीं यह तो नहीं सुन रहे हैं कि चोर चौकीदार को अपनी बिरादरी में शामिल करना चाहता है। प्रचार के सभी सुलभ साधनों का प्रयोग करते हुए यदि यही दोहराया जाए तो भी बोलने वाले जो भी बोले, सुनने वाले क्या सुनेंगे?
जिस मोर्चे पर हथियार काम आते हैं उनमें गलत हथियारों का चुनाव आत्मघाती हो सकता है, जिस मोर्चे पर जबान हथियार का काम करती है, उस पर सही अवसर पर सही शब्दों का चुनाव जो नहीं कर सकते वे विश्व पटल पर देश का सही प्रतिनिधित्व कैसे कर सकते हैं?
यह सिद्ध करने के लिए, जनता में यह विश्वास पैदा करने के लिए कि मैं अपने पद का दायित्व सही ढंग से निभा सकता हूं, सभी को अपने लाभ के लिए ही सही अपनी आचार संहिता स्वयं निर्धारित करनी चाहिए। लोकतंत्र में शासक का हित जनहित से अलग नहीं हो सकता।