पाँव तो हैं जमीन पर लेकिन
आसमां की तलाश करते हैं
आस्तिकता का मोटा अर्थ भौतिकवाद है। जो है (अस्ति) उसका सम्मान करते हुए, उसके अनुरूप आचार, विचार रखना। इसी से हमारे अस्तित्व की भी रक्षा हो सकती है। इसके विपरीत आचरण जगत और प्रकृति, अर्थात् जो है, उसके लिए भी अनिष्टकारी है, और आपके अपने अस्तित्व के लिए भी अनिष्टकारी है।
परंतु यह व्याख्या और समझ ऐसे समाज में सर्वमान्य हो सकती थी जिसमें सभी लोग ईमानदार हों।
ईमानदारी का पैमाना यह है कि वे अपने निर्वाह के लिए आवश्यक उत्पादन करते हो, जो नितांत आदिम समाजों में ही संभव था जिसमें मनुष्य की आवश्यकता पेट भरने और प्रजनन करने से आगे नहीं जा सकती थी। बाद में ईमानदारी उपाय यह था कि आप कुछ ऐसा पैदा करें जिसकी दूसरों को जरूरत हो और वे उसके बदले आपकी जरूरत पूरी करने वाली चीज देते रहें।
यह है आदर्श अवस्था जिसमें कोई किसी का शोषण नहीं करता, कोई किसी का दास नहीं होता। आपसी निर्भरता के बाद भी कोई परजीवी नहीं होता। इसी में लोग भाषा से लेकर आचरण तक ईमानदार रह सकते हैं।
सच कहे तो सत्य और झूठ का अंतर यह है कि पहली स्थिति में कथनी और करनी में अंतर नहीं होता, दूसरी में करनी कथनी के अनुरूप नहीं होती। या तो उससे उलट होती है या उससे दाएं बाएं होती है और इसे मान्य बनाने के लिए परिभाषाएं बदल दी जाती है। जो सच था उसे गलत, जो गलत है उसे सच सिद्ध करने के तरीके निकाले जाते हैं।
मनुष्य ने भाषा का आविष्कार दोनों प्रयोजनों से किया। सचाई को उजागर करने के लिए, और सचाई पर पर्दा डालने के लिए। सच्चाई को उजागर करने के लिए जो औजार तैयार किया गया, धूर्तों ने उसी का प्रयोग बिना कुछ किए करनी का फल पाने के लिए किया।
ईमानदारी शाकाहारी प्राणियों का गुण है। धूर्तता शिकारियों का लक्षण है। ईमानदार अपनी जीविका अपने श्रम के बल पर चलाते हैं। धूर्त उनको ही खाने की युक्ति करते हैं।
आप शक्तिशाली माने जाने वाले शिकारी पशुओं पर ध्यान दें, उनके व्यवहार पर ध्यान दें तो पाएंगे कि वे अधिक शक्तिशाली होने के बाद भी कितने दुबक कर, छिप कर आगे बढ़ते हैं और फिर अपने शिकार पर प्रहार करते हैं। यदि शिकार उनकी तुलना में अधिक शक्तिशाली हुआ तो सीधा सामना नहीं करते, आगे बढ़ते पीछे हटते, उसे थकाने, भ्रमित करने के बाद उसके सबसे कमजोर या थके हुए सदस्य पर आक्रमण करते हैं।
क्या आप मानेंगे हमारे मानवतावादी आदर्श शाकाहार प्रेमी समाज होने के कारण शाकाहारी जीवों से लिए गए हैं और जिसे हम मिलिट्री साइंस कहते हैं, सैन्य विज्ञान कहते हैं, शिकारी जानवरों के दांव पेच से आया हुआ है?
मैं कुछ आगे बढ़ गया।
हमने ऊपर आस्तिकता की जो परिभाषा की वह शाकाहारी परिभाषा है। मनुष्य अपनी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण न तो केवल शाकाहारी रह कर जीवित रह सकता था, न ही शिकार करना नख-दंत-विहीन प्राणी के अनुरूप था।
आदिम समाज में भी दोनों तरह के लोग थे – ।शाकाहारी भी और शिकार भी। भारतीय परिस्थितियों के कारण दोनों का मेल हो गया था। हमारे समाज में, हमारी मूल्य व्यवस्था में, हमारी विश्व दृष्टि में सत्यवादी, अहिंसावादी, शाकाहारी परंपरा के लिए स्थान था, परंतु अभाव के दिनों में शिकार के बिना काम चल नहीं सकता था। खेती का आरंभ होने के बाद तो खेती को नुकसान पहुंचाने वालों वाले जानवरों का शिकार किए बिना यूं भी काम नहीं चल सकता था।
मूल्य व्यवस्था के रूप में देखिए तो यह विचित्र स्थिति है कि भिन्न और परस्पर विरोधी विचार और आचार एक ही समाज में स्थान पाने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं।
हम जब हारे हैं, मारे गए हैं, तब भी दुनिया को बचाने का सूत्र बचाते हुए उपस्थित रहे हैं। जीतने वालों की हिंसा भी समाप्त तो नहीं हुई है, परंतु हिंसा के बल पर कुछ दिनों की चकाचौंध पैदा करने वाले इतिहास में अपनी करनी के अनुरूप छोटे या बड़े, हल्के या गहरे धब्बे बन कर ही दर्ज हैं।
आदत से बाज आता नहीं। भटक गया। कहना चाहता था कि जो कुछ दिखता है उसे स्वीकार करने वाले भौतिकवादी हैं, और उसे नकारते हुए अध्यात्म का आविष्कार करने वाले शिकारियों की परंपरा से जुड़े हुए है। विज्ञान शाकाहारी परंपरा की देन हे. पूँजीवाद जिसने उसको पाला पोसा शिकारियों की परंपरा से आता है। ज्ञान और विज्ञान पर आज भी धूर्तों का कब्जा है।
क्या मैं अपनी बात ठीक ठीक कह पाया? झिझकते हुए नहीं, अपना पक्ष पूरे विश्वास से रखते हुए हमें अपनी चूक समझने में मदद करें।