हम जिसको छुपाते हैं, क्या तुमने उसे देखा?
अर्थात्
चूक का मनोविज्ञान
कॉमेडी ऑफ एरर्स किसने लिखी थी आप जानते हैं। उसके आधार पर गुलजार ने एक बहुत सुंदर फिल्म ‘अंगूर’ बनाई थी। इससे भी आप परिचित होंगे। लेकिन आदमी गलतियां करते हुए अपनी असलियत को जाहिर कर देता है, इस सचाई पर जिस आदमी ने रोशनी डाली थी उसका नाम जानते हुए भी शायद याद न आए। उसका नाम फ्रायड था।
वह पहला आदमी था जिसने चेतना के तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल,महातल और पाताल की खोज की थी, परंतु सही नाम नहीं दे सका था। सही नाम मैं भी नहीं दे रहा हूं। परंतु उसने चेतना की उन तलहटियो की खोज की थी जो वाहियात प्रतीत होती हैं, मिथ्या लगती हैं, और इसलिए जिनकी हम उपेक्षा करते हैं। उन पर भरोसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
परंतु फ्रायड ने यह सिद्ध करके दुनिया को चौंका दिया कि इनके भीतर से उन सचाइयों को देखा जा सकता है, जिन्हें हम छिपाने का प्रयत्न करते हैं, या जो इतनी कड़वी होती हैं कि उन्हें हमारा चेतन मस्तिष्क सहन नहीं कर सकता इसलिए जिन को दबा हम अपनी ओर से अवचेतन के अंध लोक में पहुंचा देते हैं, परंतु वे वहां पहुंच कर भी हमारे व्यवहार, हमारी मानसिकता, हमारी शांति में हस्तक्षेप करते रहते हैं और अपनी अभिव्यक्ति का प्रयत्न करते हैं । ऐसा कभी चेतन के सहयोग से करते हैं, जिससे कलाकृतियां और जटिल समस्याओे के समाधान निकलते हैं, और कभी ऐसे पाशविक आचरण का रूप लेते हैं जिसकी हमसे अपेक्षा नहीं की जाती। परंतु हर दशा में इस बात का प्रमाण होते हैं कि सजग होने पर आप झूठ बोल सकते हैं, नाटक करते हुए आप जो हैं उससे अलग दीखने का प्रयत्न कर सकते हैं, परंतु अवचेतन की कूटभाषा को यदि समझा जा सके तो वह कभी झूठ नहीं बोलता। केवल परदा उठाता है।
बहुत पहले पढ़े हुए इस पाठ को भूल ही चुका था कि राहुल गांधी ने हाफिज
सईद के लिए सम्मान सूचक ‘जी’ प्रयोग करके इसकी याद ताजा करा दी। मैं इसके लिए उनका आभारी हूँ, भले वह अपने मनोविश्लेषण के लिए अपना आभार न प्रकट कर सकें।
पुलवामा कांड के बाद सूचना तंत्र में चूक हुई जिसके कारण यह दुर्घटना
घटी। उसकी पूरी व्याख्या करने की योग्यता मुझ में नहीं है। मैं आज तक यह न समझ पाया कि हमलावर को उस गाड़ी का पता कैसे था जो सुरक्षा कवच से वचित थी। इसका स्रोत बीएसएफ के भीतर तलाशा जाना चाहिए, जो तलाशा नहीं जा सका है। भारत के दुश्मनों को खोजकर मारना सही हो सकता है, पर सही निदान नहीं हो सकता।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की जो व्याख्याएं आई थीं उनके दो स्रोत थे। एक
पाकिस्तानी, जिसमें इसे अगले चुनाव के साथ जोड़कर, वर्तमान सरकार का अपराध सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया था। दूसरी ओर कांग्रेस के सुजान लोगों की सावधानी के बावजूद ठीक वही बात कुछ बदले हुए मुहावरों के साथ प्रकट की गई थी। कहा यह गया कि यह राजनीति का फिक्स्ड क्रिकेट मैच था। इमरान खान और नरेंद्र मोदी दोनों के बीच मिली भगत का परिणाम बताया गया था दुर्घटना को।
मिली भगत तो थी, परंतु किसके बीच? किनके द्वारा? किन माध्यमों से? मुझे जिस बात पर आश्चर्य हुआ वह यह कि इसके बाद बहुत सारे कोनों को खंगालने के बाद भी विवेचन में, यहां तक कि प्रवक्ताओं की दलीलों में भी यह बात उभरकर नहीं आ सकी कि चुनाव में मोदी को हत्यारा सिद्ध करने का भी कोई प्रयत्न िन्हीं के द्वारा किया जा सकता है। आसानी से लोग भूल गए कि कुछ दिन पहले तक कांग्रेस के प्रतिष्ठित नेता पाकिस्तान, हाफिज सईद, और तालिबानी गतिविधियों के साथ कितनी देर से खड़े थे, उन को बढ़ावा देने के लिए कितने प्रयत्नशील थे।
उनका यह प्रयत्न कि उनके दुर्भाग्य से देश के एक छोटे से हिस्से को भारत के रूप में बचे रहने के बाद भी उसके टुकड़े कर दिए जायँ। मैं इसके विस्तार में नहीं जाना चाहता। परंतु भारत के टुकड़े करने के आकांक्षी किस सीमा तक जा सकते हैं, अपनी बौखलाहट में किन का सहयोग ले सकते हैं, यह सारी कहानी जो आधी पर्दे के बाहर थी और आधी पर्दे के भीतर, उसे राहुल गांधी ने एक चूक से उजागर कर दिया।
हमारे सामने दो नारे हैं:
1. ‘सबका साथ सबका विकास’, जिसे पाखंड तो बताया जा सकता है पर यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि कि इसे लगाने वाले ने कोई ऐसा आचरण किया जिससे इसको पाखंड सिद्ध किया जा सके।
2. ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्ला,इंशा अल्ला’ और इसकी कमी को पूरा
करने वाले आतंकवादियों या भारत को तोड़ने वालों को महिमामंडित करने और उसी राह पर चलने की प्रतिज्ञा वाले नारे। यदि इसे तरुणों का भावावेश कह कर क्षमा किया जा सकता था तो भी सोच समझ कर उनके समर्थन में खड़े होने वाले अनुभवी राजनीतिज्ञों के वक्तव्य को किसी तर्क से क्षम्य नहीं माना जा सकता था। परंतु रियायतें देने के आदी हम यदि यह मान कर इसे भी क्षमा कर दें तो भी क्या आज तक का उनका प्रत्येक कार्य इसकी पुष्टि नहीं करता?
प्रश्न नारों पर दांव लगाने का नहीं है, उन इरादों को पहचानने का है जो
मोदी को विफल सिद्ध करने के लिए रेल दुर्घटनाएं करा सकते हैं,
देशद्रोहियों से सांठगांठ कर सकते हैं और पुलवामा की लड़ी लगाने की योजना पर अमल करने वाले को अपना आत्मीय और सहयोगी मानने के कारण उसके प्रति सम्मान प्रकट कर सकते हैं, उनके हाथों में क्या यह देश सुरक्षित रह सकता है?
चुनाव पोपतंत्र और लोकतंत्र के बीच है।
पुलवामा हो गया और उसकी क्षतिपूर्ति भी हो गई, पर सबसे बड़ी सफलता उस क्रम में घटित होने वाली दो त्रासदियों को घटित होने से बचा लेना है।
आगे क्या हो सकता है, सूचना तंत्र चुनाव तक कितने मोर्चों पर अचूक रह
पाता है, यह आगे के कुछ महीनों में ही पता चलेगा, परन्तु ऊपर के दोनों
नारों और इनसे खुलने वाले दोनों विकल्प तो हमारे सामने हैं। चेतना ही न
रही चढ़ि चित्त सो चाहत मूढ़ चिताहू चढ़्यो रे।