Post – 2019-02-15

मुस्लिम समाज और नेतृत्व का संकट

यह बात शायद कुछ लोगों को ठीक न लगे कि एकेश्वरवादी मजहबों में असहमति की छूट नहीं रही है। फिर भी सही नेतृत्व के लिए स्वतंत्र चिंतन और असहमति का अधिकार आधारभूत शर्तें हैं। असहमति के अधिकार के अभाव के कारण उनमें बौद्धिक वर्ग उत्थान ही न हो सका।

वे अपनी असहमति के लिए जिन तर्कों का सहारा लेंगे उनका क्षीण आभास मुझे है। जिस छोटे से दौर में यह छूट मिली थी, उसकी संक्षिप्त चर्चा हम पहले कर आए हैं। उसमें भारतीय, यूनानी और ईरानी चिंतन को मान्यता देने के कारण वह ऊर्जा पैदा हुई थी जिसने, कुछ समय के लिए, अरब को शिखर बिंदु पर पहुंचा दिया था। परंतु उसमें भी विश्वास केंद्रित प्रश्नों पर असहमति का अधिकार का नहीं।

विश्वास की सीमा में बंद हो कर बौद्धिक करतब दिखाए जा सकते हैं परंतु समाज को आगे ले जाने वाला नेतृत्व पैदा नहीं किया जा सकता। शंकराचार्य पैदा किए जा सकते हैं, अलगजाली (अबू हामिद मुहम्मद इब्न मुहम्मद अल-गज़ाली) पैदा किए जा सकते हैं, तुलसीदास पैदा किए जा सकते हैं, रामानंद और कबीर नहीं पैदा किए जा सकते।

यहां मैं एक छोटा सा अंतर करना चाहूँगा। नेता का काम आगे ले जाना होता है। उसकी तुलना चालक (मोटर) से की जा सकती है और चालक की शक्ति की तुलना गति प्रवर्धक (एक्सीलरेटर) से की जा सकती है।

ऐसे अवसर भी आते हैं, जब आगे बढ़ना खतरनाक हो जाता है, जरूरत ब्रेक की पड़ती है। ऐसे मौकों पर ही हम जानते हैं कि चालक और गति प्रवर्धक जरूरी तो हैं, परंतु उससे भी जरूरी है आगे बढ़ने के लिए अपने को जिंदा रखना, भले वह पीछे लौट कर ही संभव हो पाए। कुछ स्थितियों में रुकना और आत्म रक्षा के लिए पीछे लौटना आँख मूंद कर आगे बढ़ने से भी अधिक जरूरी है। तुलसीदास ऐसे ही व्यक्ति हैं जिनके लिए मेरे मन में बहुत गहन आदर है पर मैं उनको नेता नहीं मान सकता, न ही जान बचाने के बाद उसी स्थिति में पड़े रहने को हितकर। ब्रेक को एक्सीलरेटर तो नहीं कहा जा सकता। यथास्थितिवादी को उद्धारक तो कहा जा सकता है, नेता नहीं कहा जा सकता।

तुलसीदास हमें आगे नहीं ले जाते, एक संकटकालीन स्थिति में हमें उबारते हैं। इसे हम समाज का नियंत्रण तो कह सकते हैं, नेतृत्व नहीं कह सकते। परंतु यह याद रखना होगा कि आगे बढ़ने वाला गलत रास्ता भी अपना सकता है। निर्णायक स्थितियों में कौन सा निर्णय अधिक तर्कसंगत है, यही एकमात्र कसौटी है। इसमें ही हम प्रगति की आकांक्षा और प्रगति के खतरों को समझ सकते हैं, और कुछ समय के लिए यथास्थितिवाद और पश्चवाद की उपयोगी भूमिका को भी स्वीकार कर सकते हैं। हमारी विवशता है कि हम उपयोगिता के आधार पर अग्रगति या नेतृत्व का निर्णय नहीं कर सकते। गलत नतीजों की ओर बढ़ने के बावजूद, प्रगति अगति नहीं हो सकती, प्रतिगमन भी नहीं हो सकती, परंतु सभी स्थितियों में वांछनीय नहीं हो सकती ।

नेता के रूप में मेरे सामने गोरखनाथ, कबीर और भ्रमित नेतृत्व जनित भटकाव से उत्पन्न संकट से उद्धारक के रूप में मेरे सामने तुलसीदास आते हैं। समन्वयकारी के रूप में नानक देव आते हैं। यह बात रोचक है तुलसी कबीर की निंदा करते हैं, गोरखपंथियों की भर्त्सना करते हैं, परंतु नानकपंथ की आलोचना नहीं करते।

जो भी हो मैंने यह स्पष्टीकरण इसलिए दिया यह समझा जा सके कि चिंतक, स्वतंत्र विचारक, उद्धारक और नेता और नेतृत्व से मेरा आशय क्या है।

अरबों में चिंतक हुए, विद्वान हुए, परंतु नेता नहीं हो पाए, क्योंकि वहां मानना जानने से अधिक जरूरी था। जाना हुआ गलत हो सकता था माना हुआ गलत नहीं हो सकता था। इससे जड़ता पैदा होती है, बुद्धि का यांत्रिक करतब सामने आता है, परंतु बुद्धि की भूमिका सामने नहीं आती, जिसका दूसरा नाम नेतृत्व है।