Post – 2019-02-14

#इतिहास_दुबारा_लिखो

इस बात को दुहराना जरूरी है कि जो महत्व चिकित्सा में रोग निदान और पुरावृत्त का है, वही समाज की व्याधियों के निराकरण में इतिहास का है।

जिस तरह राग या द्वेषवश रोगनिदान में कोई रियायत या घालमेल नहीं किया जाता, उसी तरह इतिहास की आधार सामग्री में किसी इरादे से अपनी ओर से घालमेल नहीं किया जाना चाहिए।

आधार सामग्री के संकलन, वर्गीकरण, विश्लेषण और निष्कर्ष ग्रहण में वैसी ही तटस्थता बरती जानी चाहिए जैसी रोग निदान में बरती जाती है।

इतिहासबोध आत्मबोध से भी जुड़ा हुआ है। समाज की शिथिल या निष्क्रिय पड़ी शक्तियों को जाग्रत, स्वस्थ और सक्रिय बनाने में इसकी भूमिका लगभग वही होती है जो व्यायाम, मनोरंजन और पोषण की होती है।

इतिहास की गलत व्याख्या से किसी समाज को रुग्ण बनाया जा सकता है, नष्ट किया जा सकता है, उसमें हीनताबोध और श्रेष्ठताग्रंथि पैदा करके उसे गलत रास्तों पर भटकाया जा सकता है।

किसी देश या समाज के शत्रुओं ने, या उसे अपने अधीन रखने वालों ने इसी कारण उसके इतिहास की व्याख्या का अधिकार अपने पास रखने का प्रयत्न किया है और अपने द्वारा गढ़े गए मिथक को प्रामाणिक इतिहास बनाने के सभी संभव तरीकों का प्रयोग किया है।

इनका देसी होना होना या परदेसी होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह तथ्य कि हम किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए इतिहास को गढ़ रहे हैं, या उसे वस्तुपरक रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।

इतिहास के विकृतिजन्य दुष्प्रभावों को दूर करने का एक ही उपाय है – इतिहास का वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण।

वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण का अर्थ है निराधार सामग्री को आधार बनाने से बचना; किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए, अपनी ओर से मिलावट करने से बचना और क्षीण आधार पर कोई निर्णायक निष्कर्ष निकालने से बचना। असामान्य प्रतीत होने वाले दावों को सभी दृष्टियों से परखने के बाद ही स्वीकार करना।

हम अपनी सभी विकृतियों के लिए अंग्रेजों को या यूरोपियों को दोष देकर छुट्टी नहीं पा सकते।

सच तो यह है कि उन्होंने भारत में, या कहें, अफ्रीका और एशिया मैं पहुंचकर वहां की विकृतियों को अधिक चतुराई से इस्तेमाल करते हुए उन्हें पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया, इसलिए उनके अपने देश में सामान्य व्यवहार और उन्हीं के औपनिवेशिक देशों में उनके आचरण में भारी अंतर रहा है।

वर्णवादी समाज-व्यवस्था और व्यवहार में सवर्णो द्वारा अवर्ण और हीनवर्ण जनों के प्रति जैसा व्यवहार किया जाता रहा है वैसा ही व्यवहार उन्होंने अपने अधीनस्थ लोगों के साथ करना आरंभ किया।

मुगल काल में जिस क्रूरता से भूराजस्व वसूल किया जाता रहा उससे कुछ अधिक वसूल करने का प्रयत्न उन्होंने किया।

उन पर दोषारोपण करके अपना बचाव करने से पहले हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और अब जब वे परिदृश्य से ओझल हो चुके हैं, अपनी विकृतियों के लिए हमें अपनी जिम्मेदारी को अधिक गंभीरता से समझना चाहिए। इसके बाद ही हमें यह अधिकार प्राप्त होता है कि हम उन्हें दोष दे सकें।

भारतीय समाज में हिन्दुओं और मुसलमानों को पश्चिम से या एक दूसरे से लड़ने से पहले अपने आप से लड़ना है। आत्म परिष्कार करने के बाद ही वे उस महिमा का दावा कर सकते हैं, जो न्यायसंगत समाज के निर्माण से उत्पन्न एकनिष्ठता में व्यक्त होती है।