Post – 2019-02-13

न विश्वसेत् अविश्वस्ते

पिछली शताब्दी के अंतिम चरण में एक विशेष सोच के इतिहासकार यह सिद्ध करने के लिए पूरी शक्ति लगा रहे थे ऋग्वेद में जिस सरस्वती का उल्लेख है वह ईरान में बहती थी। रामायण में जिस अयोध्या का वर्णन है ईरान में था। एक विद्वान ने सरस्वती की सहायक नदियों को भी ईरान में स्थापित कर दिया था। इन सभी के पीछे इस बात का प्रयत्न था कि पुरानी कहानी को फिर दोहराया जाए कि आर्य नामक जाति अथवा आर्य भाषा भाषी समुदाय का भारत पर आक्रमण हुआ था और भारतीय सवर्ण समाज उसी का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक पुरानी और निराधार मान्यता थी जिसका खंडन पुरातात्विक उत्खननों से हो रहा था और इसका उपयोग मैंने भी अपनी पुस्तक में किया था । आरंभ से ही इतिहास और पुराण निहित स्वार्थों के हथियार के रूप में काम में लाए जाते रहे हैं। इतिहास को आवश्यकता के अनुसार तोड़ मरोड़ कर पेश करके मिथक में बदलने की प्रवृत्ति रही है, और मिथकों को इतिहास का सत्य बना कर पेश किया जाता रहा है। परंतु इस इस इस चरण पर भारतीय राजनीति की विकृतियों के कारण इसने सांप्रदायिक खेमाबंदी का रूप ले लिया था। इसमें समकालीन से लेकर इतिहास तक का सच क्या है, यह महत्वपूर्ण नहीं रह गया था। अधिक महत्वपूर्ण यह हो गया कि कौन सा चित्रण किसके राजनीतिक हितों के अनुरूप है।

आक्रमण का खंडन हिंदुत्ववादी राजनीति को रास आता था, इसलिए मेरी वामपंथी रुझान के बावजूद, वामपंथी होने का दावा करने वाले इतिहासकार मेरी स्थापनाओं के विरुद्ध खड़े थे। उनकी इकहरी सोच में यदि हिंदुओं को आर्यों के जत्थे के रूप में आक्रमणकारी, हैवान और उतपीड़क सिद्ध किया जा सके तो इससे भारतीय सामाजिक समस्याओं से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है और मध्यकाल में मुस्लिम शासकों द्वारा किए गए अन्याय और उत्पीड़न को जैसी की तैसी सिद्ध करके सामाजिक विद्वेष को कम किया जा सकता है। यह समाधान नहीं था, क्योंकि जिन दिनों आर्यों के आक्रमण को लगभग सभी मान चुके थे, उन दिनों ही सांप्रदायिक विद्वेष को उग्र बनाकर देश का बंटवारा तक किया गया था। किसी अल्पकालीन उद्देश्य के लिए इतिहास को विकृत करना, विकृतिकरण के खतरनाक खेल को आरंभ करने जैसा है, जिसमें सत्ता में बैठे हुए लोग अपनी जरूरत के अनुसार इतिहास को बदलते समाज को इतना गुमराह कर सकते हैं कि वह अर्धविक्षिप्तता की स्थिति में पहुंच जाए। दक्षिणपंथी यदि समर्थन कर रहे थे इसका कारण यह नहीं था इतिहास के सत्य से उनको अधिक गहरा प्रेम था, बल्कि इसलिए कि मेरी स्थापना से उन्हें राजनीतिक लाभ दिखाई दे रहा था। मैंने वैदिक सभ्यता के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सभी पक्षों को, यहां तक की सभ्यता की निर्माण प्रक्रिया को समझने का प्रयत्न किया था, अतः कृषि के आरंभ से नगर सभ्यता के उत्थान तक की विकास यात्रा का चित्र तो प्रस्तुत किया ही था, हड़प्पा सभ्यता के ह्रास और पुनर्समायोजन के साथ ही भाषा और संस्कृति के भारोपीय क्षेत्र में प्रसार तंत्र को भी स्पष्ट किया था।

दक्षिणपंथी तथा वामपंथी दोनों राजनीतिक धड़ों की इतिहास में कोई रुचि नहीं थी। दोनों आक्रमण हुआ या आक्रमण नहीं हुआ के सवाल पर एक दूसरे पर क्षेप्यास्त्र फेंक रहे थे। मुझे दोनों की सीमाओं को उजागर करना था इसलिए इस बहस में मेरी भी लंबी साझेदारी रही। मेरा प्रयत्न मात्र इतिहास की सचाई को नष्ट होने से बचाने का था और इसमें कुछ दूर तक मुझे सफलता भी मिली। आक्रमण की बात करने वाले अंततः हथियार डालने को बाध्य हुए, पर फिर भी अपनी से बाज नहीं आए। यह उनकी नैतिक और बौद्धिक अधोगति की समस्या है। इस पर हम कुछ नहीं कहेंगे। उस प्राचीन इतिहास में किसी की रुचि आज तक नहीं जगी, इस बात का खेद अवश्य है।

परंतु जिस समय यह बहस चल रही थी उस समय तक बिसोतून (अं. बहिस्तून) में दारयावोहु (धृतयश? Dārayavauš ), composed of 𐎭𐎠𐎼𐎹 dāraya-‘to hold’ + 𐎺𐎢 va(h)u- ‘good’, meaning “he who holds firm the good”, विकीपीडिया ) के शत्रु-दमन के उपलक्ष्य में लिखवाए शिलालेख का निर्वचन हो चुका था। उनकी समस्या का समाधान इस शिलालेख में था। यूरोपीय विद्वानों ने इसका गहन विवेचन नहीं किया और जहां जरूरी हुआ सतही उपयोग किया। स्वतंत्र भारत के इतिहासकारों की जिम्मेदारी थी वे अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए औनिवेशिक इतिहास-लेखन की दबोच से बाहर निकलते और उपलब्ध स्रोतों का स्वतंत्र विश्लेषण करते। वर्तमान के युद्ध केवल वर्तमान में नहीं लड़े जाते, इतिहास की व्याख्या के द्वारा भी लड़े जाते हैं, और इतिहास की व्याख्या में हारने अर्थात् गलत सिद्ध होने वाला अपनी कब्र स्वयं खोदता है जिसके उहाहरण सामने हैं।

दारयावोहु, कुरु ( کوروش Kuruš; c. 600–530 BC) का अपना पुत्र न होने के बाद भी, उसके विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना था। अपने बाहुबल से अपनी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह करने वालों का दमन करने के उपलक्ष्य में यह शिलालेख अक्कदी, बेबीलोनी और पुरानी फारसी लिपियों में अंकित कराया था। क्या हमारे इतिहासकारों में किसी को इस शिलालेख के विषय में कुछ पता नहीं था जो हमारी आशंकाओं का निवारण करने में सहायक था।

हम इस शिलालेख के कुछ निर्णायक अंशों की ओर ध्यान दिलाना चाहेंगे।
क्या आपको पता है कि यज्ञ के आयोजन और विवाह आदि के अवसरों पर पिछले सात पीढ़ियों के पुरखों को आमंत्रित किया जाता रहा है और प्रतीक रूप में उनका गोत्रोच्चार होता रहा है। यह परंपरा ऋग्वेद से लेकर हमारे ग्रामीण परिवारों तक में जीवित है। शहरों में आकर बसे लोगों ने आधुनिक शिक्षा प्राप्त महिलाओं ने इसे भुला दिया है। दारियोश अपने शिलालेख में अपना परिचय देते हुए अपने से पीछे की पांच पीढ़ियों का हवाला देता है। वह अपने को आर्य घोषित करता है, और आर्यपुत्र होने का दावा करता है। अर्थ है, कुलीनता का दावा। मैं दारयावोहु (धृतयश?) मेरे पिता विश्तास्प थे, उनके पिता अर्शाम(अर्शसान?) थे, अर्शाम के पिता अरियारम्नेश (आर्यमनस्?), उनके पिता सिश्पिश (शीर्षविश?) और उनके पिता हखामनिश (सखामणि?)थे।

इसीलिए हमें हखामनिश (सखामणि? ध्यान रखें कि मीद जनों को मित्रोपासक बताया गया है । इस दृष्टि से इनका संबंध मितन्नियों से जुड़ता है। ) मुझसे पहले की आठ पीढ़ियां राजकुलीन हैं । मैं नवां हूं।

दारयावोहु कहता है कि असुर महान की अनुकंपा से मेरे आधीन ये देश हैं: Persia [Pârsa] पार्श, एलाम (ऊव्ज), बेबीलोनिया (बाबिरस), असीरिया (अथुरा), अरैबिया (अरबाय), ईजिप्ट (मुद्राय) और समुद्र तटीय देश , लीदिया (स्पर्द), यवन (आयोनिया), माद (मीदिया), अर्मिना (अर्मीनिया), कतपतुक (कप्पादोसिया), पार्थव (पार्थिया), ज़्राक (द्रांगिआन), हरैव (आरिया), ऊवारज़्मीय (चोरस्मिया), बाख्त्रिश (बैक्ट्रिया), सुगुद (सोग्दिया), गदार (गंधार), सक (सीथिया), थतगुस (सत्त्यग्यदिया), हरौवतिश (अर्कोशिया), मक (मक) कुल तेईस देश।

दारयावोहु के विशाल साम्राज्य में बार बार विद्रोह होते रहे। संभवतः है इसका आरंभ राज्य कुल के विद्रोह से ही आरंभ हुआ क्योंकि वह उस कुरु द्वितीय का पुत्र नहीं था, यद्यपि राज वंश का था। विद्रोहियों का दमन करने करने और उनको मौत के घाट उतारने पर वह गर्व प्रकट करता है। इनमें जिन व्यक्तियों नाम आया है उनको बदल कर जो नाम तैयार होते हैं आर्य भाषा के हैं। जिसका अर्थ है पूरे मध्य एशिया और पश्चिम एशिया आर्य जनों का प्रभाव विस्तार हो चुका था: ऊव्ज (एलाम) का मर्तिय नाम का एक पारसी, माद (मीदियाई) फ्रवर्तिश (प्रवर्ती) जो उवखस्त्र (उरुक्षत्र) का वंशधर होने का दावा करता था, सिश्ताक्ष्म, असगर्तिय , अपने को मरगियन (मार्गुस) का राजा बताने वाला,फ्राद (भ्रात); एक था अर्मीनाया का अर्ख (आर्क्ष),बेबीलोन में नबोनिदुस (नभोनिधि) का पुत्र नभोकुद्रासुर ; Nebuchadnezzar, [Nabu-kudra-asura]; एक था फारस का Bardiya जो कुरु का पुत्र होने का दावा करता था और जिसने फारसी लोगों को भड़काया।

प्रसंगवश यह याद दिला दें कि दारयावोहु ने अपने साम्राज्य का जो विस्तृत विवरण दिया है उसमें सिंधु से पश्चिम के भारतीय भूभाग का उल्लेख नहीं है। विद्रोह करने वालों में भी ईश्वर प्रदेश का कुल राजा नहीं है।यह संभव है की बाद की उसके दो उत्तराधिकारी को में से किसी ने क्षेत्र को भी अपने अधिकार में किया हो।रोचक बात यह है सिकंदर ने केवल दारयावोहु को पराजित किया था और उसी पर उसे पश्चिमी इतिहासकार विश्व विजेता भारत विजेता सिद्ध करते रहे।

हम इस शिलालेख के माध्यम से जिन तथ्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं वह यह कुरु, पांचाल आदि का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता। इनका उत्थान वैदिक सभ्यता के नागर चरण के ह्रास के बाद हुआ। हमारे साहित्य में उत्तर कुरु का जो वर्णन आता है वह उसी क्षेत्र का द्योतक है जिसे मीदिया के नाम से जाना जाता रहा है। मीदिया में मध्य एशिया के वे भाग भी आते हैं जहां हड़प्पा सभ्यता के उपकेन्द्र थे।