न विश्वसेत अविश्वस्ते
(अधूरा)
पश्चिमी जगत जिस क्रूरता, कुटिलता और अमानवीयता के लिए हूणों की भर्त्सना करते हुए उन्हें असभ्य या बर्बर सिद्ध करता है वैसी ही क्रूरता, कुटिलता और अमानवीयता, पश्चिम का चारित्रिक गुण रहा है। वह उसी अनुपात में और उन्हीं कोनों में सभ्य हो पाया, जिस अनुपात में वह पूरब के संपर्क में आया और उसकी विशेषताओं को आत्मसात करने का प्रयास किया। चाहे यह संपर्क हड़प्पा के व्यापार-तंत्र के माध्यम से संभव हुआ हो, या लघु एशिया, सिंतास्ता और मीदिया में बसे भारतीयों के कारण रहा हो।
क्षेपक
[ मीदिया ( an area known as Media between western and northern Iran) के निवासियों को दूसरे फारसी लोगों से अलग एक
भिन्न भाषा बोलने वाला समुदाय माना गया है (an ancient Iranian people who spoke the Median language) जिनके लिए पुरानी फारसी भाषा में ‘माद’ का (The Medes (/miːdz/, Old Persian Māda-, Ancient Greek: Μῆδοι, Hebrew: מָדַי Madai) प्रयोग हुआ है। कहा जाता है कि इन्हीं के माध्यम से ईरान में अहुरमज्दा के उपासकों का ईरान में प्रवेश हुआथा। इनके विषय में जो जानकारी हमें पश्चिमी सूत्रों से मिलती है वह 585 BC की है। ये मित्र के उपासक थे (Religion: related to Mithra । हमारी यह सूचना विकिपीडिया पर उपलब्ध सामग्री पर आधारित है)। इनकी राजधानी एकबतना (Ecbatana) थी, जिसका शाब्दिक अर्थ है वह स्थान जहां लोग आकर जुटें (“the place of gathering”)। आप इसे महानगर का पुराना रूप कह सकते हैं। चाहे तो ‘एकवतन’ के रूप में भी पढ़ सकते हैं ; आप चाहें तो प्राचीनता पर गौर करते हुए इनको मितन्नियों से भी जोड़कर समझ सकते हैं और इसका मूल नाम ‘एकवर्तन’ कल्पित कर सकते हैं। ऋग्वेद में संभवतः इन्हीं के लिए मांदार्य का प्रयोग हुआ है। मैं अपनी बात स्थापना के रूप में नहीं रखना चाहता केवल प्रस्तावना के रूप में रखना चाहता हूं। इस पर विचार किया जाना चाहिए। साथ ही यह बताना चाहता हूं कि इन पर इसलिए विचार नहीं किया गया कि जिस फरेब को इतिहास बनाया जा रहा था वह इनकी जांच के बाद खंडित हो जाता। जिस विषय पर हम चर्चा कर रहे हैं, उसके हित में है कि हम इसके विस्तार में अभी न जाएं।]
अंग्रेजों ने कदम कदम पर जिस धूर्तता से अपना साम्राज्य स्थापित किया था, सत्ता में बने रहने के लिए उसी धूर्तता का प्रयोग विचार क्षेत्र में भी करते रहे। पश्चिम की श्रेष्ठता के मामले में यूरोप के दूसरे विचारक और लेखक भी उनसे सहयोग करते रहे। इसलिए उसे समझ लेने के बाद हमें मानविकी से जुड़े हुए प्रश्नों पर उनके निष्कर्षों से सहमत नहीं होना चाहिए था। उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए तथ्यों और प्रमाणों का अपने ढंग से प्रयोग करते हुए हमें उसी तरह अपने निष्कर्ष निकालने चाहिए थे जैसे वे और आप स्वयं भी अपने प्राचीन साहित्य और परंपरा में उपलब्ध सूचनाओं का एक स्रोत के रूप में उपयोग करते रहे और करना चाहते हैं।
यह चेतावनी कई बहानों से हम इसलिए दुहराते रहते हैं कि आज भी हमारे अधिकारी माने जाने वाले विद्वान पश्चिमी लेखकों पर अधिक भरोसा करते हैं और यह भरोसा तर्क-वितर्क किए बिना करते हैं।
हमारे पाठकों में अधिकांश लोग उन्हीं को पढ़ने और उनके माध्यम से ही इतिहास को समझने को बाध्य होने के कारण उनके द्वारा मान्य और बल-पूर्वक, बार-बार, दुहराई जाने वाली कहानियों को सत्य मान बैठते हैं। उनका खंडन होने पर दुविधा में पड़ जाते हैं, कि इस आदमी की बात को सही मानें जिसके आगे पीछे कोई नहीं है, पर बात पते की कर रहा है, या इतने बड़े पदों पर बैठे, देश-देशांतर में नाम कमाने वाले इतिहासकारों के मत को जो लगभग अंतर्राष्ट्रीय मान्यता का रूप ले चुका है।
देखना आपको यह चाहिए कि पुरानी मान्यताओं का किस आधार पर खंडन किया जा रहा है, उन मान्यताओं का कोई ठोस आधार है या नहीं, और उनसे भी पीछे लौटने पर कहीं भी कोई ऐसा ठोस आधार मिलता है या कि नहीं जिसका सम्मान करते हुए, मान्यताओं की इस पूरी श्रृंखला को विचारणीय तक माना जा सके। यदि ऐसा आधार नहीं मिलता तो समझना होगा कि चुनाव करते हुए कुछ को प्रस्तुत करने और कुछ को विचार परंपरा से अलग रखने या छिपाने और अपनी बात को मनवाने के लिए घालमेल करने की बाध्यता क्या थी। वैज्ञानिक सत्य के संदर्भ में मुख्यधारा और गौण धारा का तर्क नहीं चलता, क्योंकि विज्ञान की प्रत्येक नई स्थापना अपने समय तक की सर्वमान्य स्थापनाओं के विरुद्ध ही हुआ करती है, और प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति अकेला हुआ करता है।
वे अपनी राजनीतिक शक्ति और एकेडमिक धाक का किस सीमा तक दुरुपयोग कर सकते थे और करते रहे, इसका एक उदाहरण बोगाजकोइ के अभिलेख हैं.
Trade between the Indus valley and the Euphrates is, no doubt, very ancient. The earliest trace of this intercourse is probably to be found in the cuneiform inscriptions of the Hittite kings of Mitanni in Kappadokia, belonging to the fourteenth or fifteenth century B.C. These kings bore Aryan names, and worshipped the Vedic gods, Indra, Mitra, Varuna, and the Asvins, whom they call by their Vedic title Nasatya.
[These names were discovered by Prof. Hugo Winckler on a cuneiform tablet at the Hittite capital of Boghazkoi, in 1907. See Ed. Meyer in vol. 42 of Kuhn’s Zeitschrift,
and the discussions by Oldenburg, Keith, Sayce, and Kennedy in F.R.A.S. 1909, pp. 1094-1119.vide Rawlinson, Op.cit.3]
प्रमाण इतने अकाट्क्य थे कि इससे अलग, न कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता था, न ही निकाला गया। परंतु यह तो पश्चिम की बौद्धिक दबंगई को सहन हो ही नहीं सकता था। इससे तो इतने परिश्रम से तैयार किया गया तिलिस्म ही बिखर जा रहा था। अतः कुछ समय तक भूमिगत रूप में काम करने के बाद यह तर्क दिया किया जाने लगा कि हित्ती अभिलेखों की भाषा वैदिक से अधिक पुरानी है।
बात इससे भी न बन रही थी, क्योंकि देवता वैदिक थे, इसलिए यह सुझाया जाने लगा कि ऋग्वेद का एक भाग लघुएशिया में रचा गया था। पर सवाल फिर भी बने रह जाते हैं कि वेद की रचना करने वाले सारे के सारे भारत पहुंच गए, वेद जहां रचा जाना आरंभ हुआ वहीं न बचा रहा, न उसकी परंपरा रही। मार्क्सवादी विद्वानों कोइस तरह के प्रस्ताव कुछ अधिक रास आते हैे, इसलिए कोसंबी ने ऋग्वेद से इसका प्रमाण भी पेश कर दिया। ऋग्वेद में इष्टरश्मि प्रयोग देख कर यह कयास भिड़ाया कि आर्य तो चरवाहे थे। उनको ईंट से क्या लेना देना। निश्चय ही यह ऋचा लघुएशिया में रची गई होगी। सवाल यह कि यह ऋचा तो ऋग्वेद की सबसे बाद में रचे गए सूक्त में आई है। पर गुलाम अधिक बहस नहीं करते। जरूरत पड़ने पर वे यह भी सिद्ध कर सकते थे कि भारत पश्चिम से खोद कर लाया गया है। पहले यहां समुद्र था। इस खुदाई के कारण भूमध्य सागर बन गया और इधर गोंडवाना हिमालय से जुड़ गया। मुझे विश्वास है यूरोप के इतर अनुशासनों के विद्वान यूरोप की लाज बचाने के लिए अपने अपने विषयों की जानकारी को इसके अनुरूप ढाल लेते और भारतीय विद्वान इसे अच्छे गुलामों की तरह मान भी लेते।