Post – 2019-01-21

कल्पना और यथार्थ

स्वप्न और दिवास्वप्न के पीछे भी यथार्थ होता है, कल्पना का तो अर्थ ही है गढ़ना। उसके लिए ईंट, पत्थर और गारा तो जरूरी है ही। परंतु कल्पना में जो नहीं है उसे, जो है, उसके नकार से भी गढ़ सकते हैं। भारत को समझने का प्रयत्न करने वालों ने इसकी महिमा से अभिभूत हो कर, यदि अज्ञान वश इसके आकार को शेष एशिया जितना मान लिया तो यह समझा जा सकता है “According to Ktesias, India was not smaller than all the rest of Asia —which is a palpable Exaggeration.” न तो उनमें से किसी ने पूरा एशिया देखा था, न ही उनको भारत के आकार का पता था। समझ में न आने वाली बात तो यह है, कि आज भी भारत को उपमहाद्वीप कहने वालों की कमी नहीं है। अज्ञान और कूटनीतिक धूर्तता में पर्याप्त निकटता है।

पर मैकक्रिडिल का यह कथन सही नहीं है कि तेसियस अतिरंजना कर रहा था, सही यह है कि वह भारत की विशालता को दूसरों के लिए विश्वसनीय बनाने के लिए दो सुनी सुनाई बातों को एक साथ रखते हुए अपने पाठकों को अपने विवरण का कायल बना रहा था। इनमें एक यह थी कि एशिया बहुत बड़ा महाद्वीप है, और फारस में उसे जो सूचनाएं मिली उससे पता चला कि भारत बहुत बड़ा देश है।

मैं उन ज्ञानी जनों को जो मानते हैं कि भारत को पहली बार अंग्रेजों ने एक किया, याद दिलाना चाहता हूं कि आठवीं नवीं शताब्दी के विष्णु पुराण के लेखक को ही नहीं, उनसे बहुत पहले भी दूसरे देशों को भारत की विशालता का पता था। वह देश और राज्य में फर्क करना जानते थे। यह मामूली ज्ञान आपने ज्ञानाधिक्य के चलते खो दिया है।

मैकक्रिडिल का तेसियस के विषय में अगला वाक्य है, Like Herodotus he considered the Indians to be the greatest of nations and the outermost, beyond whom there lived no other. (यूनानी हरिदत्त, हेरोडोटस, की तरह वह भी मानता है कि भारत महानतम राष्ट्र है और उससे आगे कोई इंसान नहीं रहता।)

आप चाहें तो मुझे राष्ट्रवादी करार देकर खारिज कर सकते हैं क्योंकि इसका जो अर्थ मैं ले रहा हूं वह यह है कि पूर्व की तरफ बढ़ते जाओ सभ्यता का महत्तर रूप मिलता जाता है और भारत महानतम देश है, इसलिए इससे आगे न कोई देश हो सकता है, न इंसान। आपने सत्ता के बल पर जबरदस्त के ठेंगेे की तरह, स्टुअर्ट मिल के मूर्खतापूर्ण दावे को मान लिया कि सभी विचारों और सिद्धांतों का जन्म यूरोप में हुआ है और वहीं से यह पूरब की तरफ फैला है – जितना ही पूरब बढ़ते जाओ, सभ्यता का स्तर गिरता जाता है। परंतु तेसियस का विचार सत्ता के बल पर लादा हुआ विचार नहीं है, स्वयं पश्चिम के सबसे प्रबुद्ध देश के दो प्रबुद्ध व्यक्तियों का विचार है कि पूरब की तरफ जितना ही बढ़ते जाते हैं सभ्यता का स्तर उतना ही ऊंचा होता जाता है और भारत इसकी पराकाष्ठा है। इसलिए उससे आगे न कोई देश हो सकता हैस न इंसान होंगे। मैं इसे सच नहीं मानता, पर जानना चाहता हूं कि आप इसे कितना गलत मानते हैं?

मैकक्रिडिल तेसिअस के एक अन्य कथन को कि भारतीय लोगों के वस्त्र पेड़ों द्वारा पैदा किए जाते हैं, निम्न रूप में प्रस्तुत करते हैं, The expression, garments produced by trees, can only mean cotton garments. मैं इसके पीछे सुनी सुनाई बातों के आधार पर भारत के प्राचीन इतिहास में वल्कल के प्रयोग की झांकी देखता हूं। कपास के विषय में उपलब्ध जानकारी का इसमें कुछ घालमेल हुआ हो सकता है परंतु ईरान में भारत को आधा वर्तमान और आधा पुरानी कहानियों के आधार पर जाना जाता था। यही कारण है इतिहास की जानकारियां वर्तमान सूचना में घुल मिल जाती हैं।

कपास की जानकारी दूसरे यूनानियों पर उजागर हुई थी जो मानते थे, भारत में ऊन पेड़ों पर उगता है। उन्हें पता चला यहां शहद वनस्पतियों से निकलता है, परंतु इसकी विचित्रताएं और पश्चिमी जगत को और भी पहले से ज्ञात थी जिनके हवाले देने चलें तो विषयांतर हो जाएगा।

यहां हम मैकक्रिडिल के माध्यम से यूनान के मन में 2500 साल पहले बनी हुई छवि को प्रस्तुत कर रहे हैं। यूरोप को यह पता नहीं था कि अनाज से भी तेल निकल सकता है। उन्हें इसका पता पिगमी जनों के माध्यम से मिला, परंतु भारत में यह कारोबार बहुत पुराना है। मैकक्रिडिल कहते हैं, Ktesias has without doubt stated that the Indians from preference use oil of sesame, and it can only be the fault of the author of the extract if the use of this oil, together with that of the oil expressed from nuts, is ascribed to the pygmies.आज तो पश्चिमी जगत पत्थर से भी तेल निकालना सीख चुका है, इसलिए इसे केवल दर्ज किया जा सकता है, आज के दिन इस पर गर्व नहीं किया जा सकता।

हम यहां होमर के उस कथन को लें जिसे यूरोप में इतिहास के जनक माने जाने वाले हेरोडोटस (हरिदत्त ) ने दोहराया है, और जिसकी व्याख्या मैकक्रिडिल ने विस्तार से करते हुए, विचित्र कल्पनाएं करते हुए, इसे काले रंग से जोड़ने का प्रयत्न किया है। 1200 ईसा पूर्व में होमर का यह कथन भारत कि पूर्व का इथोपिया है, रंग पर आधारित नहीं है, एक गहन ऐतिहासिक सत्य पर आधारित है। इथोपिया मिश्र के बाद अफ्रीका का सबसे सभ्य देश था और था भी इसलिए कि सुमेरिया से व्यापार करने के लिए जिस तरह भारतीय व्यापारियों ने दिलमुन (बहरीन) को अपना अड्डा बनाया था, उसी तरह मिस्र से व्यापार करने के लिए उन्होंने इथोपिया में पुंट (पुंड्र) अपना अड्डा बनाया था। कई बार वे इस अड्डे से सुमेर को भी अपना माल भेजते थे इसलिए वहां के अभिलेखों में जिन देशों से आए हुए जहाजों का उल्लेख मिलता है उनमें दिलमुन और पुंत का नाम विशेष रूप से आता है। मिस्र की एक रानी ने पुंत को अपने जहाज भेज कर वहां से जो माल मंगवाया था वह शुद्ध भारतीय था, साथ ही उसने कारीगर भी मगवाए थे। इन दोनों सभ्य देशों से कुछ अलग हटकर अपने व्यापारिक अड्डे बनाने के कारणों का विवरण देने के लिए यहां अवकाश नहीं है। परंतु यह सूचना देना जरूरी है की इथोपिया के पास किसी छोटे द्वीप पर आज भी गुजराती से मिलने वाले शब्द मिलते हैं। भारत में बाजरा, टांगुन और मडुआ अफ्रीका के साथ इसी संपर्क से पहुंचे थे। यह ईसा ढाई हजार साल पहले के कुछ स्थलों से मिलने लगते हैं। एक दूसरी बात यह कि पुंत के समुद्री क्षेत्र में शंख बहुत बड़े आकार का मिलता था जिस को काटकर पात्र के रूप में भी प्रयोग में लाया जाता था। गीता में जिस असाधारण शंख का उल्लेख “पौंड्रं दध्मौ प्रतापवान्” मैं आया है, वह इसकी याद ताजा कराता है।

अतः होमर जब भारत को पूरब का इथोपिया कहते हैं, तो उसका अर्थ यह है कि इथिओपिया से भारतीय दुर्लभ वस्तुएं प्राप्त की जाती थीं, अर्थात् पूरब में भी कहीं इथिओपिया है न कि इसके निवासियों का रंग काला है और भारत के दक्षिणी भाग के लोग काले रंग के हैं। हेरोडोटस ने क्या सोचकर उस कथन को दोहराया था, यह हमें भी पता नहीं।

अतीत को याद करते हुए अपना महिमा-गान करने से अधिक ग्लानि का कोई विषय नहीं हो सकता, परंतु जब ऐसे व्याख्याएं की जाएं जो यह बताएं कि तुम सदा से यही निखट्टे रहे हो और इससे अधिक का जीवट तुम्हारे भीतर नहीं है तो अपने ऐसे उपेक्षित पक्षों की याद दिलाना प्रतिरोध और आत्मसम्मान की मांग बन जाता है। अतः याद दिला दें कि पश्चिम ने विस्मय के साथ देखा था कि भारतीय द्रव्यों के धुएं से भी सुगंध निकलती है और अगुरु की मांग भी हुई थी। उन्हें पता चला था यहां लकड़ी से भी सुगंध निकलती है। यह उनके लिए आश्चर्य की बात थी जिनके फूलों से भी सुगंध नहीं निकलती। और यदि भारत को लेकर आपके मन में हीन भावना पाश्चात्य शिक्षा के कारण घर कर गई हो तो विदेशों में जाकर उनके फूलों को सूंघे और फिर लौट कर भारत की मिट्टी को सूंघें तब पता चलेगा यहां मिट्टी का तिलक क्यों लगाया जाता है। यहां के रज में भी राम बसे हैं – रामरज ‍ ।