Post – 2019-01-22

उत्कर्ष का निष्कर्ष

गालिब के मन में छोटी उम्र में यह सनक सवार हो गई थी कि अमीरों की भाषा वही हो सकती है जो अाम लोगों की हैसियत से परे हो। पर उनकी उपेक्षा जितनी फारसी बोझिल भाषा के कारण हुई, उससे अधिक इस कारण कि दूसरे सभी शायर प्रतिभा में गालिब के सामने बौने सिद्ध होते थे। ग़ालिब की उपस्थिति ने उनकी हैसियत को कम कर दिया था और इस कारण वे सभी उनसे जलते थे। उनकी ताकत अपनी शायरी से अधिक गालिब के महत्व को कम करने पर खर्च होती थी। इस पीड़ा को जितने मार्मिक ढंग से गालिब ने व्यक्त किया है उस पीड़ा को अकेले उन्होंने नहीं सहा, दूसरों की अपेक्षा बहुत आगे बड़ी हुई सभी प्रतिभाओं, अग्रणी देशों और सभ्यताओं को एक नियम की तरह अनिवार्य रूप से सहना पड़ा है।
हसद, सजाए-कमाल-ए-सुखन है क्या कीजे
सितम बहा-ए-मता-ए-हुनर है क्या कहिए।
‘काव्यात्मक उत्कृष्टता का दंड है ईर्ष्या और असाधारण कलात्मक सिद्धि का इनाम है अत्याचार।’ यही है उत्कर्ष का निष्कर्ष। भारत को अपने पूरे इतिहास में इसी का दंड भोगना पड़ा है।

अपने उत्कर्ष के दिनों में भी, पराभव, उत्पीड़न और दमन के दौर में भी, जब उसे परास्त करने वाले अपने अहंकार और दुर्दांतता के बाद भी उसके सामने इसलिए अपने को तुच्छ समझते थे कि इतनी दुर्गति के बाद भी उसने उस मूल्य परंपरा की रक्षा की, या करने का यथासंभव प्रयास किया था जिसके सामने उनके समस्त धर्मोपदेश और सभ्यता के दावे वहशीपन के हाशिए पर दिखाई देते हैं। उसके इतिहास की उपलब्धियों के शिखरों को नष्ट करके बराबरी पर आने की कोशिश के बाद भी उन विकलित उपलब्धियों की ओर और उसके सांस्कृतिक मानकों की ओर नजर उठाने पर गर्दन इतने पीछे मोड़नी पड़ती कि सिर के ताज जमीन पर आ जाएं। इसका प्रमाण तो हम कल देंगे, परन्तु आज दो बातों की ओर ध्यान दिलाते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहेंगे।

पहला उत्कर्ष के साथ दूसरे समुदायों की श्रद्धा और ईर्ष्या का एक साथ शिकार होना। आज पश्चिम के उत्कर्ष के कारण शेष दुनिया में उसकी नकल करने की, उसके समकक्ष आने की कोशिश और इसके बावजूद उससे घृणा, वैसा बनने से बचने की लगातार कोशिश, समानांतर चल रही है। ऐसा ही पहले भारत के साथ हुआ था।

दूसरे यदि ऐसा लग रहा हो कि मैं अतीत की स्मृतियों से आत्मश्लाघा पैदा करने का प्रयत्न कर रहा हूं, तो यह सही नहीं है। भारत के संपर्क में आने के बाद से पश्चिम ने लगातार उन मूल्यों को आत्मसात करने का प्रयत्न किया है जिनके लिए हमारे मन में सम्मान तो है परंतु भौतिक कारणों से, और सामंती मूल्यों के बने रह जाने के कारण अधिकांश लोग उसका निर्वाह नहीं कर पाते और इसलिए उन्हें अपने को दोबारा अपने को खोजने की और पाने की कोशिश करनी होगी जिसमें पश्चिम भी हमारी सहायता कर सकता है। कारण जिन मूल्यों कर हमें गर्व है उनको उन्होंने चुपचाप, यथासंभव शिष्यवत आत्मसात किया है और पालन कर रहे हैं जब कि उनके सामने अपने को उनका उत्तराधिकारी होने का दावा करते हुए हम हास्यास्पद सिद्ध होते हैं।

आश्चर्य यह है जो शिक्षा पाश्चात्य जगत ने इतनी अल्प अवधि में ग्रहण की उसे लगभग 900 साल के पड़ोस के बाद भी मुस्लिम समाज क्यों नहीं अपना सका? कारण बहुत स्पष्ट है। पश्चिम वैज्ञानिक सोच से भावुकता पर नियंत्रण करते हुए, धर्म की जकड़ और अतीत की ग्रंथियों से मुक्त होकर, आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा था और मुस्लिम समुदाय वैज्ञानिकता को, विवेकशीलता को, ठुकराते हुए अपने अतीत में धंसने के लिए लगातार प्रयत्न करता रहा।