Post – 2019-01-19

सांस्कृतिक प्रज्ञाचक्षुता

क्या आपने कभी प्रज्ञा चक्षु शब्द पर ध्यान दिया है। इसका प्रयोग दृष्टि बाधित व्यक्तियों के लिए किया जाता है। उन्हें सुनकर हमारे जगत के विषय में जो जानकारी मिलती है वही उनकी दृष्टि बन जाती है, उसी से दुनिया को समझते हैं। कभी कभी चर्मचक्षु से देखने वालों की तुलना में उनकी समझ अधिक गहरी और निष्पक्ष होती है । ज्ञान भी आंख बन सकता है, आंख होते हुए ज्ञान का विरोध अंधापन पैदा कर सकता है, इसको समझने के लिए इस शब्द से अच्छा कोई माध्यम नहीं है।

हम केवल अपनी आंख से नहीं देखते, अपने ज्ञान से भी देखते हैं और वह ज्ञान, भ्रामक (प्रतीति) भी हो सकता है। यह ज्ञान या प्रतीति हमारी आंखों पर रंगीन चश्मे की तरह चढ़ कर दृश्य को दृश्यांतर कर कर देता है।

हमें किसी देश, समाज या संस्कृति के विषय में अपनी परंपरा से जो सूचनाएं उपलब्ध होती हैं वे, सही-गलत जो भी क्यों न हों, हमारे वर्तमान ज्ञान को भी प्रभावित करती हैं और तथ्य दर्शन को भी। हमारा भय, हमारी लालसा, हमारा स्वार्थ सभी अलग-अलग तरह के चश्मे हैं जो कभी कभी एक के ऊपर एक चढ़े हुए होते हैं और उसी से हम वस्तु-साक्षात्कार करते हैं । यदि ऐसा न होता तो बहुत सारे रंगीन, चमकीले, फूलों जैसे सुंदर और साफ-सुथरे कीड़े- मकोड़े हमें गंदे और घिनौने दिखाई न देते। जिसने हमें प्यार किया हो, हमारी सेवा की हो, हमारे दुख के दिनों में काम आया हो, उसके सामान्य परिभाषा में असुंदर लक्षण सुंदर न दिखाई देते।

भारत को विदेशियों ने इसी तरह के कई चश्मों के भीतर से देखा और अपने अनुसार गढ़ा। चश्मों की कमी या अधिकता के कारण कई रूपों में गढ़ा। अस्तित्व का तकाजा है कि जो कुछ भी हम हैं उस पर विश्वास करें, उस पर गर्व करें। ऐसी दशा में अपने को भारत की तुलना में पिछड़ा पाकर एक और तो आश्चर्य करते रहे, कुछ चीजों को देखने से इनकार करते रहे, और अपने आत्मरक्षा तंत्र के कारण, इससे घृणा भी करते रहे।

यह कुछ उसी तरह था जैसे अपनी टीम पर गर्व करने वाले, उसे हराने वालों से घृणा करने लगते हैं, उन पर पत्थर फेंकना शुरू कर देते हैं।

भारत को विदेशियों ने इसी तरह देखा। उनकी नजर में उनकी हीनभावना भी शामिल थी, जिसमें भारत एक ओर तो आश्चर्यों का देश प्रतीत होता था, और दूसरी ओर श्रद्धा मिश्रित घृणा का पात्र।

यदि ऐसा न होता तो यूनानी एक ओर भारतीय उपलब्धियों पर आश्चर्य न करते, उन उपलब्धियों में, जो सचमुच मानव अर्जित उपलब्धियां थी, उनकी ओर से नजर न फेर लेते, और उससे घृणा करने का कोई दूसरा तरीका न ढूंढ लेते।

भारत का यूरोप से संपर्क सीधा नहीं था, परंतु उसके सीमावर्ती एशियाई क्षेत्र में हड़प्पा के व्यापार तंत्र के कारण उसका प्रसार था जिसने उनकी भाषा, संस्कृति, पुराकथाओं और चिंतन धारा को प्रभावित किया था। परंतु साथ ही ‘हम भी कुछ हैं, हम झुकने वाले नहीं’, यह अहम् भाव भी पैदा किया था, जिसके चलते यूनानी हरिदत्त अर्थात् हेरोडोटस को भारत के विषय में केवल एक ही सूचना काम की लगी कि भारत पूर्व का इथिओपिया है।

यह सूचना उसने होमर से ली थी और रालिंसन ने इसकी जो विद्वत्पूर्ण व्याख्या की उसमें अफ्रीका के इथिओपिया की एकमात्र विशेषता वहां के लोगों का काला रंग दिखाई दिया और भारत के लिए इसका प्रयोग दक्षिण भारतीयों के रंग के कारण लगा।

हम यहां यह याद दिला दें कि यह वह विडंबना है जिसमें मूल भी गलत मिलता है और उसकी व्याख्या भी, पर निराधार कोई नहीं होता। चर्म चक्षु का अपना अंधापन है, प्रज्ञाचक्षु का अपना। सचाई तक पहुंचने के लिए दोनों का पाठशोध जरूरी होता है। इसे हम कल स्पष्ट करेंगे।