भारतवर्ष की सांस्कृतिक एकात्मता
हम भारत की जगह भारतवर्ष का प्रयोग इसलिए कर रहे हैं कि हमारा तात्पर्य केवल भारत से नहीं है, जिसके लिए हमारे संविधान में यह संज्ञा चुनी गई है, अपितु उस पूरे एक भाग के लिए है, जिसे आज साउथ एशिया, या भारतीय उपमहाद्वीप के नाम से अभिहित किया जाता है। इसकी कोई दूसरी संज्ञा जैसे इंडिया, हिंदुस्तान उस पूरे क्षेत्र के लिए प्रयोग में आता भी रहा हो तो भी उस गहनता और व्याप्ति को नहीं प्रकट कर पाता, जो भारतवर्ष से व्यक्त होता है।
अपने ही प्राचीन ग्रंथों में अंकित की गई संघर्ष कथाओं को पढ़ते हुए आश्चर्य इस बात पर होता है कि विरोध की इतनी संभावनाओं और इतने कड़वे अनुभवों के बाद भी भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक पारस्परिकता की भावना कैसे पैदा हुई और टकराव के बीच भी आठ दस हजार साल से बनी रही है। वर्ण व्यवस्था की सामाजिक भेद रेखाओं के बावजूद मूल्यव्यवस्था में इतनी समानता कैसे पैदा हुई? कैसे बहुतों का कुछ न कुछ सबमें इस तरह मिल गया कि निजता के बाद भी समग्र भारतीयता का प्रतिनिधित्व करता है कि भारतवर्ष एक विराट सांस्कृतिक भूभाग लगता है। वे ही मुहावरे भाषाओं की दूरियां पार करते हुए, इतिहास की लंबी यात्रा करते हुए एक सिरे से दूसरे स्थान तक प्रयोग में आते मिल जाएंगे। खानपान की विविधताओं के भीतर ऐसी समानताएं मिल जाएंगी, जिनकी ओर सामान्य का ध्यान नहीं जाता।
विविधता में एकता का मुहावरा इसका सतही आभास ही करा पाता है। यह मुहावरा अनेक देशों के संदर्भ में प्रयोग में आता है जिनमें एकाधिक भाषाओं और संस्कृतियों के लोग बसे हुए हैं, जिनके बीच भौगोलिक, प्रशासनिक, मजहबी, संपर्क भाषा की एकता के कारण राष्ट्रीयता की भावना पैदा हुई है, जिसे अनेकता में एकता की भावना कहते हैं। परंतु भारतवर्ष में यह एकात्मता इन सभी दृष्टियों से अलगाव और यदा कदा विरोध के बाद भी बनी रही है। इसके कारण हमारी विविधताएं, और उनके भीतर प्रवाहित एकप्राणता की प्रकृति दूसरों से भिन्न है और इसके निर्माण में 15,000-20,000 साल का समय लगा है।
इसको समझने में दूसरों को इतनी कठिनाई होती थी कि वे इसे विचित्र मानते रहे और इसकी प्रकृति, समृद्धि और समाज के बारे में ऐसी विचित्र कहानियां गढ़ कर प्रचारित भी करते रहे कि उन्हें पढ़ने पर हम न उन पर विश्वास कर पाते हैं न इस बात पर कि हमारी समृद्धि कभी ऐसी थी कि इसे ले कर दुनिया के लोग अपनी परीकथाएं रचते थे। यहां इसकी मात्र एक झलक हम पारसी दरबार में यूनानी दूत के भारत विषयक विवरणों में से कुछ के माध्यम से समझ सकते हैं।
He reports of the river Indus that, where narrowest, it has a breadth of forty stadia, and where widest of two hundred; and of them Indians themselves that they almost outnumber all other men taken together. …
He notices the fountain which is tilled every year with liquid gold, out of which are annually drawn a hundred earthen pitchers filled with the metal. The pitchers must be earthen since the gold when drawn becomes solid, and to get it out the containing vessel must needs be broken in pieces. The fountain is. of a square shape, eleven cubits in circumference, and a fathom in depth. Each pitcherful of gold weighs a talent. Ho notices also the iron found at the bottom of this fountain, adding that he had in his own possession two swords made from this iron, one given to him by the king of Persia…
He states that the cheese and the wines of the Indians are the sweetest in the world, adding that he knew this from his own experience, since he had tasted both. …
Ktesias says that in India is found a tree called the parybon. This draws to itself every- thing that comes near, as gold, silver, tin, copper and all other metals. Nay, it even attracts sparrows when they alight in its neighbourhood. Should it be of large size, it would attract even goats and sheep and similar animals. (Indica (Indika), India as described By Ktesias by J. W. McKrindle)0
सिकंदर के आक्रमण के समय तक यूनानियों को भारत के विषय में जो भी जानकारी थी वह इस पुस्तक के माध्यम से ही थी।
[मेरे साथ एक विवशता है, जिसके साथ महिमा भी जुड़ी हुई है, इसलिए उस विवशता को भी खुले मन से प्रकट करने में संकोच होता है। मुझे किताबों पर भरोसा न रहा। ऐसा किताबों के प्रति उपेक्षा के कारण नहीं, इस कारण हुआ कि किताबों में मुझे अपनी शंकाओं का उत्तर नहीं मिला और उत्तर पाने के लिए मुझे तरीके खोजने पड़े जिसके बाद नया वस्तु साक्षात्कार भी हुआ। जानता नहीं देखता हूं। देखे हुए को कितनी भी सावधानी से हम दूसरों को बताना चाहें उन्हें समझा नहीं कर सकते। दृश्य के सभी पहलुओं को एक क्रम में पिरो भी नहीं सकते, इसलिए सत्यकथन अधूरा और असंतोषजनक होता है। जो कहा नहीं जा सका, छूट गया, उसे बयान करने के बाद भी, बहुत कुछ ऐसा बचता है जो बताने से रह जाता है। और यदि हम उसे पूरी तरह कहना चाहें, तो यथार्थ के छोटे छोटे टुकड़ों को बयान करने के लिए एक उम्र काफी न होगी, पर जैसे कणों से ब्रह्मांड बनता है उसी तरह क्षुद्रतम के संयोजन से हमारा वस्तुगत यथार्थ बनता है। वस्तु-साक्षात्कार इस कारण भी अनिर्वचनीय होता है क्योंकि उसके सभी पहलू हमारी पकड़ में नहीं आते। यहां तक कि एक शब्द के सभी आशय, सभी प्रयोग, किसी व्यक्ति द्वारा ग्रहण किए जा सकें, तो यह भी परम उपलब्धि होगी। इसका बोध बहुत पुराना है।
जिनकी समस्याओं का समाधान पुस्तकों की इबारतें रटने से हो जाता है उनके मन में कोई दुविधा या द्वंद्व नहीं होता। आत्मविश्वास का स्तर बहुत ऊंचा होता है। मुझे वह कभी नसीब न हुआ। मैं इसे अपना दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य मानता हूं, पर दुर्भाग्य और सौभाग्य में दूरी इतनी कम है कि हम एक को दूसरे पर्याय मान सकते हैं। मेरे विषयांतर होने का भी यही कारण है।
बात विषय पर करनी चाहिए, मुझे लगता है विषय की जो समझ है यदि वही गलत है तो विषय पर चर्चा का कोई अर्थ तभी हो सकता है, जब हम उसकी बुनियाद को सही करें। मैं उन पक्षों को समझा नहीं पाता जिन को समझे बिना आप उस विषय को भी नहीं समझ सकते जिस पर जोश और जुनून से चर्चा कर रहे हैं। बात मुझे भारतीय एकात्मता पर करनी थी और विषय पर आने के लिए इतने लंबे पैंतरे की आवश्यकता हुई।}
हमें भारत को ही नहीं, विश्व सभ्यता को भी समझने के लिए उन सूचनाओं का सही उपयोग और विश्लेषण करना चाहिए जो केवल भारत में ही उपलब्ध हैं, या जिस तरह सुरक्षित हैं उस तरह दुनिया के किसी दूसरे देश में नहीं, लेकिन जिसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता और यदि इसे लिख भी दिया जाए तो लंबे अरसे से भारत विमुखता का ऐसा पर्यावरण तैयार किया गया है कि उसकी सार्थकता तक नहीं समझी जाती। राष्ट्रीय हताशा का इससे दुखद प्रमाण नहीं हो सकता कि पहले आपके विचारों को उन देशों के लोग समझें जो ज्ञान को हथियार बनाकर आप पर नियंत्रण करना चाहते हैं और इसलिए लंबे अरसे तक नकारते जाने के बाद निरुत्तर हो जाने की स्थिति में ही किसी बात के कायल होते हैं।
इसके बाद भी इसे भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग के मानस में उतारने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। मुझे यही करना पड़ा।