Post – 2019-01-15

लायबिलिटी बनता समुदाय

मुस्लिम अतीतबद्धता के चार चरण प्रतीत होते हैं। पहला इस्लाम का जन्म काल जिसमें कुरान की इबारतें और मोहम्मद साहब का अपना आचरण नजीर बनता है; दूसरा खिलाफत का दौर; तीसरा मुस्लिम आक्रमणकारियों के दुर्दांत कारनामों का दौर और चौथा मुगलकालीन वैभव और जीवन शैली।

शिया मुसलमानों के लिए फिक्सेशन का एक बिंदु कर्बला भी है, परंतु उसे एक विषादपर्व के रूप में मनाया जाता, जिसके कारण सुन्नी शिया मुसलमानों को और शिया सुन्नी मुसलमानों को इस हद तक नफरत करते हैं कि दूसरे को, कादियानियों और अहमदियों की तरह मुसलमान मानने तक से इनकार कर दें, परंतु वर्तमान जीवन में प्रेरक बिंदु के रूप में इसका कोई महत्व नहीं है इसलिए हमने इसका अलग से उल्लेख नहीं किया।

अल्लामा इकबाल ने कहा था इस्लाम लोकातीत और कालातीत है, जिसका अर्थ है, न वह किसी स्थान से बंध कर रह सकता है, न समय के साथ बंध कर रह सकता है। देश काल निरपेक्ष व्यक्ति या समुदाय जहां भी रहे दूसरों के लिए समस्या बना रहता है। वह अपने भौतिक परिवेश से कटा और खयालों की दुनिया में बंद रहता है ( The idea of Islam is, so to speak, our eternal home or country wherein we live, move and have our being. इकबाल,124) उसके लिए कुछ भी प्राचीन नहीं है। आधुनिकता उसकी परिभाषा में एक भ्रम है।

इस तरह के व्यक्तियों के लिए लैंग ने जन्नत के परिंदे (बर्ड्स आफ पैराडाइज) का प्रयोग किया है। इनमें असाधारण कलात्मक प्रतिभा के लोग भी हो सकते हैं जिनकी मनोव्याधि को कई बार कलाकार की झक मान कर उनका आदर भी किया जाता है और कई बार प्रतिभाशाली युवक उसे कलाकार बनने की जरूरी शर्त मान कर सचेत रूप में अपनी आदत बना लेते है जब कि दूसरे मामलों में वे खासे दुनियादार होते हैं।

लैंग ने इनकी जिस विशेषता को रेखांकित किया है वह यह यह कि इनको समझाया नहीं जा सकता। दुनिया की नजर में जिसे लाभ-हानि समझा जाता है वह उनके लिए माने नहीं रखता। वह उनके रीयल सरोकारों में नहीं आता (To Islam matter is spirit realising itself in space and time. 9)। तर्क ही, नहीं जिंदगी की ठोकरों से भी ये न सीख पाते हैं, न सीख सकते हैं। इसलिए तर्कों और प्रमाणों से इन्हें किसी बात का कायल नहीं बनाया जा सकता। जैसा हमने व्यक्तियों के मामले में देखा, किन्हीं विशेषताओं ( क्योंकि वे इसे दोष मानते ही नहीं) का सामाजीकरण या समुदायीकरण हो सकता है और उस समाज या समुदाय का विचार और आचार अन्य मामलों में दूसरों जैसा होते हुए भी कुछ खास मामलों में ऐसा अभेद्य (इंपर्वियस) हो सकता है कि उस पर किसी तर्क, प्रमाण का कोई असर न हो। ऐसा उस दशा में अवश्य होगा जब उसके फिक्सेशन के साथ अपराध बोध जुड़ा हो, या वह उसके बचाव में कोई ऐसा तर्क न दे सके जो दूसरों के गले उतर सके । पहली स्थिति में वह किसी तरह की जिज्ञासा तक को हस्तक्षेप मान सकता और उग्र प्रतिक्रिया कर सकता है।

हमने मुस्लिम समुदाय के फिक्सेशन के जिन चार जिन चार चरणों का उल्लेख किया है उनमें पहला आस्था, विश्वास, सादगी और संयम से जुड़ा है। इस दृढ़ता पर उसे गर्व होता है और इस गर्व के अनुरूप ही वह ऐसे समस्त ज्ञान, विज्ञान और प्रमाण का निषेध करता या उल्टी व्याख्या करता है जो एक और अनन्य अल्लाह, फरिश्तों, इल्हाम, दोजख और जन्नत के अस्तित्व में या मुहम्मद साहब के चरित्र पर संदेह करता या तर्क-वितर्क करता है। ज्ञान विज्ञान से उसका विरोध इसी दायरे में है। इससे बाहर इनसे उसका कोई टकराव नहीं और सच कहें तो इस तरह की आस्था और विश्वास के शिकार महानतम वैज्ञानिक भी रहे हैं, जिनमें न्यूटन जैसी प्रतिभाएं भी आती हैं। भौतिकवादी विज्ञान से टकराने के बाद भी इस्लामी जगत ने कुछ प्रतिभाशाली वैज्ञानिक पैदा किए हैं, यद्यपि अनुपाततः कम, अतः इसे न ग्लानि का विषय बनाया जा सकता है न गर्व का, फिर भी फिक्सेशन किसी प्रकार का हो वह बौद्धिक विकलांगता पैदा करता है; सोचने का रास्ता ही रोक देता है, यह तो मानना ही होगा।

अब्बासी खलीफाओं के युग का दूसरा फिक्सेशन आधुनिक शिक्षा प्राप्त और आधुनिक सोच रखने वाले मुसलमानों के लिए ही है और इस दर्प से जुड़ा है कि हम से ही ज्ञान संपदा लेकर, यूरोप में नवजागरण पैदा हुआ और पश्चिमी सभ्यता के जनक हम हैं। जनक होने के धर्म के कारण हम उन्हें सिखा सकते हैं परंतु उनसे सीख नहीं सकते। सीखेंगे केवल इतना कि हम पिछड़कर भी तुम से आगे और तुमसे श्रेष्ठ है। पश्चिम ने अरबों की ज्ञान संपदा को उसी तरह अपना बना लिया जिस तरह अरबों ने यूनान, रोम, हिंदुस्तान की ज्ञान संपदा को अपना कर अपनी ऊंचाई हासिल की थी। यहां महत्व दाता का नहीं है, संग्रह करने वाले का है। धर्म युद्धों के आघात ने यूरोप में जिस तरह की खलबली पैदा की वही उसके नवजागरण का कारण बनी। ऐसा ही बोध एशिया में उत्पन्न होना चाहिए न कि अपने शून्य काल में लौटकर तस्कीन अनुभव करना और निरंतर दूसरों के जाल फंसकर आत्मविनाश करना।

इसलिए सबसे महत्वपूर्ण प्रेरक चरण यदा कदा शान बघारने के काम तो आता है परंतु आगे बढ़ने की ललक पैदा नहीं करता। इस पस्तहिम्मती के कारण कि हम पश्चिम का सामना नहीं कर सकते, क्षतिपूर्ति के रूप मे हमारे पास जो कुछ है उसी के साथ हम पश्चिम के समक्ष उपस्थित होकर उसकी बराबरी का दर्जा हासिल करना चाहते हैं या अतीत में लौट कर अपने को उससे अधिक महान मान लेते है । हिंदू अध्यात्मवादियों के पास भी ऐसा ही एक सांत्वना का बिंदु है कि हमारे पास अध्यात्म है और इसके बल पर गिरावट की ओर बढ़ रहे पश्चिम को हम ही संभाल सकते हैं। अतः नाम को भले हो, खिलाफत का चरण प्रेरणा का स्रोत नहीं है।

इसके ठीक विपरीत शौर्य के नाम पर बर्बरता को पालने और दिखाने की एक आंतरिक लालसा मुस्लिम समाज में दबे और खुले रूप में विस्तार पाती गई है। इसी के कारण मुस्लिम समुदाय जहां भी है अपने उपद्रवकारी
कारनामों के लिए जाना जाता है न कि किसी बौद्धिक या कलात्मक उत्कर्ष के लिए। उसको बर्बरता वाला पक्ष आच्छादित कर लेता है। इसी के कारण जिन भी देशों में मुस्लिम समुदाय है उनके शासकों की एक गंभीर चिंता मुस्लिम समुदाय को नियंत्रित करने की बनती जा रही है।

मुगलकालीन विरासत के रूप में सल्तनत तो हासिल नहीं की जा सकती, परंतु अपनी आर्थिक हैसियत के भीतर ऐयाशी और झूठी शान की प्रवृत्ति अवश्य बनी रही है। इन विविध कारणों से मुस्लिम समुदाय किसी भी देश में ऐसी कोई भूमिका नहीं निभा पा रहा है जिससे उसका छवि सुधर सके .या मानवता का कोई लाभ हो सके। इस बात को समझा जा सकता है, मुसलमानों को समझाया नहीं जा सकता।