Post – 2019-01-13

फिक्सेशन बनाम दूरदृष्टि

हम यहां फिक्सेशन का प्रयोग मनोरोग विज्ञानी के रूप में नहीं अपितु समाज विज्ञानी के रूप में कर रहे हैं । पिछड़ा हुआ समाज भीतर से उपेक्षित और बाहर से कुसमायोजित अनुभव करता है। इससे उसमें जो बेचैनी पैदा होती है उससे मुक्ति पाने के लिए वह अपने अतीत के किसी ऐसे चरण या चरणों की तलाश करता है जिसमें वह दूसरों से आगे था, या जब उसने कुछ ऐसे कारनामे किए थे जिनके कारण दूसरे उसका सम्मान करते या उससे डरते थे। सम्मान और डर में वह अंतर नहीं कर पाता। मानो दोनों का अर्थ एक ही होता हो। यदि उसका वर्तमान एक घाव है तो अतीत के ये चरण मरहम। वर्तमान के घाव में बदल जाने के कारण, हल्का से हल्का स्पर्श, वह एक बाल का ही क्यों न हो, उसमें तिलमिलाहट पैदा करता है। अतीत के उन चरणों में वापसी, वह काल्पनिक ही क्यों न हो, यदि सुकून देती है तो वापस लौटना उसे अपनी समस्त समस्याओं का समाधान प्रतीत होता है और वह आगे बढ़ने की जगह उन बिंदुओं से चिपका रहना चाहता है, वहीं पहुंचने का प्रयत्न करता है, उन्हीं कारनामों को दोहराते हुए उसी युग में पहुंचना चाहता है और जहां है वहां से आगे बढ़ने की जगह और भी पीछे लौटना चाहता है। हमने फिक्सेशन का जिस आशय में प्रयोग किया है वह यही है। मुस्लिम समाज को मैं इसी फिक्सेशन का शिकार मानता हूं।

आगे पढ़ता हुआ समाज पीछे मुड़कर देखना नहीं चाहता, क्योंकि उसके वर्तमान में, अतीत का निचोड़ घुला होता है। वह जहां पहुंच चुका है उसके सामने उसका अतीत तुच्छ लगता है। वह अपने पूर्वजों को नकारता नहीं, उनके युग में रखकर देखता और उसी के अनुरूप उनका सम्मान करता है और अपने युग को देखते हुए उन्होंने जो उपलब्धियां हासिल कीं उनके अनुरूप उनके सम्मुख नतशिर भी होता है, परंतु उस काल में लौटने की न तो सोचता है, न उसके प्रति आसक्ति पालता है। अतीत के प्रति आसक्ति फिक्सेशन है, जिसे हम इतिहासबद्धता कह सकते हैं और इससे मुक्ति की चिंता और भविष्य की दृष्टि का दूसरा नाम विजन है, जिसे दूरदृष्टि या क्रांतदर्शिता कह सकते हैं। मुस्लिम समाज ने दूरदृष्टि खो दी है। अतीत से आसक्त है, पिछड़ते जाने को गौरव की बात मानता है और आगे बढ़ने की जगह बिछड़ते रहने के लिए तैयार है, तो हम चाह कर भी, उसे, उसके इरादों से विमुख नहीं कर सकते। परंतु उसको अपना बनाने के प्रयास में उसके मनोबंधों का शिकार होने से अपने को बचा भी नहीं सकते। मंदिरवाद, तीर्थाटनवाद, दूर दृष्टि को नहीं दर्शाते, दूरदृष्टि की कमी को प्रमाणित करते हैं। क्या प्रतिस्पर्धा इसकी होनी है कि कौन किससे अधिक पिछड़ा है या कौन किससे आगे बढ़ा हुआ है। पहली प्रतिस्पर्धा में दोनों को अधोगति का सामना करना होगा दूसरा दोनों की मुक्ति का उपाय है।