अल्लामा इकबाल और इस्लाम (1)
‘तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन’ (इकबाल)
इकबाल कवि थे। उनका अध्ययन विशद था। कवि जब गद्य लिखता है तो वह गद्य नहीं होता, वह कवि का गद्य होता है। उसमें सौष्ठव होता है, संवेद्यता होती है, आवेग होता है। गद्य का खुरदरापन और विचार की आप्तता नहीं होती। गद्य की किसी विधा में लिखता है तो उस विधा में लिखने वालों की तरह नहीं लिखता। वह उसकी उस विधा में कविरचित रचना होती है। इसकी ओर पहली बार मेरा ध्यान सर्वेश्वर और मुक्तिबोध की कहानियां पढ़ते हुए गया था और उसके बाद दूसरे कवियों के गद्यलेखन और वक्तव्यों की ओर गया। व्याख्यान, संवाद, यहां तक कि दैनंदिन का उसका व्यवहार, सब में कवित्व होता है, भले हम इस विषय में सचेत हों या नहीं। यह उनका चुनाव नहीं होता। अपनी ओर से वह दूसरों जैसा ही रहना चाहता है। प्रायः वह सचेत भी नहीं होता कि वह दूसरों जैसा करना चाहते हुए भी वैसा कर नहीं पा रहा है।
कवि होना प्रयास से जुड़ा मामला नहीं है मिजाज से जुड़ा सवाल है, जिसे हम प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा कहा करते हैं। हम अपनी चमड़ी को जरूरत के अनुसार पोशाक की तरह नहीं बदल सकते।
कवि भावुक होता है। उसके पास आग होती है जो पिघल कर बह सकती है पर रोशनी नहीं दे सकती। कवियों को पढ़ते या सुनते हुए हम उनकी मनो भूमि में पहुंच सकते हैं परंतु उन क्षणों में, न वह अपने दिमाग से काम लेता है न हम अपने दिमाग से काम लेते हैं। भाव जगत का एकात्म्य हमें तन्मय कर देता है, हम खो जाते हैं। एक ऐसे आनंद लोक में पहुंच जाते हैं जिसकी तुलना उस आनंद से की गई है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि वह विचारातीत होता है। परंतु इसी सीमा के कारण हम विचार के मामले में उस पर भरोसा नहीं कर सकते। वह लक्ष्य हीन बहा तो सकता हो सकता है, परंतु किसी सुरक्षित गंतव्य तक पहुंचा नहीं सकता।
उदय प्रकाश मेरे कवियों में प्रिय लोगों की तालिका में आते हैं उनकी कहानियां कविता हैं और पाठक को अभिभूत कर देती हैं। वह मानते हैं उनकी मूल प्रकृति कवि की है। आज से लगभग15 वर्ष पहले एक आत्मीय बातचीत में मैंने विचार के मामले में कवियों की अविश्वसनीयता का जिक्र करते हुए, संयोगवश अल्लामा इकबाल का नाम लिया था। आज उसे दोहराना पड़ रहा है।
इकबाल के साथ एक और सीमा थी। उसके विषय में भी मैं फेसबुक पर यह लिख चुका हूं कि धर्मांतरित हिंदुओं को अपने को हर कदम पर सच्चा मुसलमान साबित करना होता है जिसकी जरूरत विदेशी मूल के मुसलमानों को नहीं पड़ती, या कम पड़ती है।
संजय ने अपने पिता से एक संवाद में कहा था कि पापा मेरी रगों मे मुसलमान का खून भी है और तमाम मुसलमानों के होते हुए अपने को किसी से कम मुसलमान न सिद्ध करने की ललक में ऐसे हथियार उसी को रखने पड़े जिनके लिए उसे दंड भी भोगना पड़ा और पैसे के प्रवाह से रियायतें भी मिली।
इस दूसरे कारण से भी न तो मैं सही विचारदृष्टि के मामले में मोहम्मद अली जिन्ना पर विश्वास करता हूं न ही अल्लामा इकबाल पर। परंतु इनकी ऐतिहासिक भूमिका की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
यह एक सच्चाई है कि मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस से निराश होने के बाद राजनीति से विमुख होकर इंग्लैंड में जा बसे थे। उन्हें मना कर मुस्लिम लीग का नेतृत्व संभालने के लिए जिस व्यक्ति ने राजी किया था उसका नाम अल्लामा इकबाल है और इस बात को जिन्ना आभार पूर्वक स्वीकार करते थे।
अपने 1938 के एक व्याख्यान में अल्लामा इकबाल ने उनके बारे में जो कुछ कहा था वह निम्न प्रकार हैः
“केवल एक ही रास्ता है। मुसलमानों को जिन्ना के हाथों को मजबूत करना चाहिए। उन्हें मुस्लिम लीग में शामिल होना चाहिए। भारत की आज़ादी का प्रश्न, जैसा कि अब हल किया जा रहा है, हिंदुओं और अंग्रेजी दोनों के खिलाफ हमारे संयुक्त मोर्चे द्वारा काउंटर किया जा सकता है। इसके बिना, हमारी मांगों को स्वीकार नहीं किया जाएगा । लोग कहते हैं कि हमारी मांग सांप्रदायिक है। यह मिथ्या प्रचार है। ये मांगें हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व की रक्षा से संबंधित हैं …. संयुक्त मोर्चा मुस्लिम लीग के नेतृत्व में गठित किया जा सकता है। और मुस्लिम लीग केवल जिन्ना के कारण सफल हो सकता है। अब जिन्ना ही मुसलमानों की अगुआई करने में सक्षम है।- मुहम्मद इकबाल, १९३८