Post – 2018-12-08

अल्लामा इकबाल -2

जब हम कहते हैं कि कवियों के विवेक पर भरोसा नहीं किया जा सकता तो इसलिए कि वे अपने ज्ञान का भीअपनी भावना के लिए उपयोग करते हैं और उसके साथ छेड़छाड़ करते हैं। उदाहरण के लिए इकबाल की उस रचना का दृष्टांत दे सकते हैं जिसे भारत में राष्ट्रगान के बाद कौमी सदभाव के लिए सबसे प्रमुखता से गाया जाता है। इसमें वह कहते हैं मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, परंतु वह जानते हैं कि सामी मजहबों में दीगर मजहबों के लिए घृणा और बैर का भाव दूसरे मजहबों से अधिक प्रधान है।

धर्म के दो पक्ष हैं। एक का संबंध संगठन से है और दूसरे का धर्मदृष्टि से । पहला सत्ता का हिस्सा है इसलिए इसमें राजनीति प्रधान होती है।दूसरे का संबंध विश्वास से ज्ञान से है। जिसमें बैर भाव की जरूरत नहीं होती फिर भी पहले के प्रभाव से इसे भी कलह का क्षेत्र बना लिया जाता है। सामी मजहबों की बात अलग रखें। उनमें व्याप्त घृणा और धर्मयुद्धों का इतिहास सर्वविदित है। अपने देश में ही आस्था और विश्वास के इतिहास को देखें तो यहां भी वह वैर भाव अ्सहिष्णु रूप में मिल जाएगा।

इसका एक तर्क है। पहले के धर्मो और विश्वासों के रहते हुए या तो नए धर्म की आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए, या यदि है तो इसलिए कि पहले कि धर्म और विश्वास अपर्याप्त है, इसलिए उनका सैद्धांतिक विरोध और यदि संभव तो बल प्रयोग से उनका दमन जरूरी हो जाता है।

असुर और देव, देवयाजी और अदेवयााजी, इंद्र में विश्वास करने वाले और अनींद्र के द्वंद्व से इसे समझा जा सकता है। भगवत गीता में श्री कृष्ण भी कहते हैं कि दूसरे सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ और मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिलाऊंगा – ‘सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुच।’ इसलिए यह कहना कि मजहब बैर रखना नहीं सिखाता है, सदाशयता का प्रकाशन तो हो सकता है परंतु सत्य नहीं।

इसीलिए, यूं तो सभी मजहब मानवतावाद की दुहाई देते हैं, परंतु मानवतावाद के लिए सबसे बड़ा संकट धर्मों के कारण ही पैदा होता है। धर्म इसके साथ ही सचाई पर पर्दा डालने का काम भी करता है और अत्याचार का कारण भी बनता है, फिर भी हम इसके भुलावे में आ जाया करते हैं, और अपने ही असली दुश्मन के औजार बनकर अपने ही मित्रों या सुख दुख के साथियों का अहित करते हैं, क्योंकि वे दूसरे धर्म से जुड़े होते हैं।

इकबाल इस बात का प्रभाव तो पैदा करते हैं कि उन्होंने धर्म का बहुत गहराई से अध्ययन किया है ( I lead no party; I follow no leader. I have given the best part of my life to a careful study of Islam, its law and polity, its culture, its history and its literature. ) परंतु हमारा विश्वास है कि यह अध्ययन धर्म विशेष की खूबियों को तलाशने और उसको उचित सिद्ध करने के लिए था, न कि धर्म की प्रकृति उसकी भूमिका, उसकी सामाजिक अतिजीविता की समस्याओं को समझने के लिए।
उनके अनुसार Every word of the Quran is brimful of light and joy of existence. इसे यदि धर्मांधता न कहें तो और क्या कह सकते हैं।

अंधापन जिस भी कारण से आए परिणाम एक ही होता है। हम यथार्थ को कम देख पाते हैं, कम समझ पाते हैं और इसकी क्षतिपूर्ति करते हुए अपने मनोगत को यथार्थ पर आरोपित कर देते हैं। कवि के साथ हम भाव मग्न हो सकते हैं, डूब सकते हैं, परंतु दुनिया को समझ नहीं सकते। संभव है मैं कवियों के साथ अन्याय कर रहा हूं, कुछ वैसा ही जैसा अफलातून ने किया था और कहा था कि कवियों को नगर राज्य से बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए ।

काव्य का सत्य हमारे दृष्टिगत यथार्थ से अधिक गहन होता है। हम सबको अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए कवियों के उद्गारों की सहायता लेनी पड़ती है, इसलिए उनके साथ कुछ रियायत तो करनी होती है परंतु अपनी बात को कहने के लिए वे जिन युक्तियों का सहारा लेते हैं वे इतने अतिरंजित, अन्योक्ति परक , या विचित्रतापरक होते हैं, कि एक ही कथन का अलग अलग व्यक्तियों और एक ही व्यक्ति के जीवन में अलग अलग संदर्भों में अलग अलग अर्थ हो जाया करते हैं। कवियों के कथन को अक्षरशः मानकर हम अनर्थ कर सकते हैं।

हमें उनका इरादा देखना होता है, उनसे संदेश ग्रहण करना होता है, परंतु उनके माध्यम से सत्य को देखना और समझना नहीं होता। वे स्वयं निःसंकोच सच्चाई को छिपाते भी हैं, बदलते भी हैं. और इसकी उपेक्षा भी करते हैं। इसलिए इकबाल की उसी कविता की एक दूसरी पंक्ति को याद करना उपयोगी होगा। ऐ आबरूदे गंगा वह दिन है याद तुझको, उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा। इसमें दो तरह से सचाई से अलग बात की गई है। हम जानते हैं कि भारत में आने वाले मुसलमान लुटेरों और हमलावरों के रूप में आते रहे थे, न कि व्यापारियों के रूप में। क्रूर यथार्थ पर पर्दा डाल कर बच्चों को बहलाया जा सकता है, परंतु यथार्थ से परिचित लोगों के बीच सद्भावना नहीं पैदा की जा सकती। आक्रमणकारी जिस नदी के पास सबसे पहले पहुंचते थे,वह गंगा नहीं, सिंध नद हुआ करता था। ऐसा नहीं है कि इकबाल इससे परिचित न हों। यह कवि की जरूरत है, पर हमारी जरूरत नहीं।

सचाई पर पर्दा डालने के कारण उनके सद्भावना पूर्ण लेखन में भी आडंबर दिखाई देता है, कवि की सच्ची भावना नहीं। राम, कृष्ण, बुद्ध आदि पर भी लिखी गई उनकी कविताओं में वह सिंसियरिटी नहीं है, वह प्रवाह और आवेग भी नहीं है, जिसके कारण उनका महत्त्व है। हमारा तात्पर्य यह है कि इकबाल को कवि के रूप में ही पढ़ा जाए विचारक या राजनीतिक आंदोलनकारी के रूप में नहीं।