Post – 2018-12-09

इकबाल और जिन्ना

व्यक्ति या धर्माधिकार से वंचित व्यक्ति के लिए धर्म निजी मामला नहीं होता। उसकी अस्मिता से जुड़ा प्रश्न होता है। उसकी धार्मिक चेतना दूसरों की अपेक्षा अधिक प्रबल होती है। यह एक असामान्य स्थिति है और इसलिए चेतना का यह रूप भी किंचित् असामान्य होता है। इस तथ्य पर ध्यान न देने पर, अध्ययन, अनुभव और चिंतन में बहुत आगे बढ़े व्यक्तियों को इतना अधिक धर्म-केंद्रित पाकर हमें विस्मय होता है ।

इक़बाल बहुत बड़े कवि थे। कवि अपने मिजाज से ही मानव द्रोही नहीं हो सकता। अपने अस्तित्व की चिंता उसे हो सकती है परंतु दूसरों का अहित करते हुए स्वयं कोई लाभ उठाना उसके लिए कल्पनातीत है, जबकि राजनीतिज्ञों के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सत्ता सदा अनैतिक और हिंसक तरीकों से ही हासिल की जाती रही है। इस अंतर के कारण ही वह अपने को राजनीतिज्ञ नहीं मानते। उनके व्याख्यानों और लेखों आदि का संकलन और संगा0ल करने वाले अहमद लतीफ शेरवानी के शब्दों में, His mind was incapable of the intrigues, trickeries and machinations, which constitute the mental and moral equipment of the common run of politicians। जहां तक राजनीतिक गतिविधियों का प्रश्न है वह बजट से लेकर दूसरे सभी प्रश्नों पर निजी राय रखते रहे और इसे उपयुक्त माध्यमों और मंचों से प्रकट भी करते रहे हैं।

मोहम्मद अली जिन्ना से उनका इसी मामले में अंतर है। जिन्ना राजनीतिक व्यक्ति थे। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं। उन्हें पूरा करने के लिए वह कुछ भी कर सकते थे और उसमें बाधक बनने वाले को कभी क्षमा नहीं कर सकते थे। इकबाल कला जगत के सम्राट थे और विचार या कार्य की दृष्टि से ऐसा कुछ नहीं कर सकते थे, यहां तक कि सोच भी नहीं सकते थे, जो उन्हें मानव द्रोही या संकीर्ण सिद्ध करता हो।

दोनों में समानता यह थी कि दोनों के पितामह ब्राह्मण थे जिन्होंने किन्हीं असामान्य परिस्थितियों में धर्मपरिवर्तन किया था । हिंदू समाज में निकास का रास्ता है परंतु प्रवेश का रास्ता लगभग बंद सा है । इस विवशता के कारण दूसरी मूल्य व्यवस्था से असंतुष्ट होने के बाद भी, जगह उसी में बनानी पड़ती है। जो भी हो इनकी स्थिति दूसरे धर्मांतरित हिंदुओं से ही अलग नहीं थी, एक दूसरे से भी अलग थी।
जिन्ना का मुसलमान होना उनकी विवशता थी, परंतु वह न तो उस धर्म को पसंद करते थे,न इसकी पाबंदियों के कायल थे। वह तिलक के सचिव थे। उनकी उस समय की महत्वाकांक्षाएं नहीं जानी जा सकती थीं, जैसे उनके अंतिम दिनों में किसी को यह तक पता न चला कि वह किस रोग से पीड़ित थे। इकबाल इस तरह का दुराव नहीं पाल सकते थे। उनके व्यक्तित्व में आए बदलाव का उनके लेखन के माध्मय से आरेख बनाया जा सकता है।
प्रकृति के अंतर के कारण ही, इकबाल आरंभ से ही जहां गलत हैं वहां भी बहुत विश्वशनीय और ईमानदार दिखाई देते हैं। मोहम्मद अली जिन्ना नास्तिक थे,जब कि मोहम्मद इकबाल आस्थावादी और निष्ठावान व्यक्ति थे। इसलिए केवल इस बात से कि इकबाल ने ही जिन्ना को मुस्लिम लीग का नेतृत्व संभालने के लिए राजी किया था और उनका समर्थन करते रहे, दोनों के बीच समानता तलाशना गलत होगा।

सच तो यह है कि आरंभ में मुहम्मद इकबाल का भी मुस्लिम लीग की पृथकतावादी दृष्टिकोण से सहमति नहीं थी। और इस मामले में दोनों में, अलग अलग कारणों से पुनः समानता मिलती है कि दोनों अपने को राष्ट्रवादी सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं, पर अधूरे मन से। दोनों के प्रयत्न दिखाई देते हैं, आवेग नहीं दिखाई देता। इकबाल की राष्ट्रवादी कविताओं को उनकी सबसे कमजोर रचना मानना होगा। ऊपरी मन से या सोच समझ कर जोड़ी गई रचनाएं, जिनमे लफ्फाजी है, आवेग नहीं। यह ईमानदारी की कमी के कारण नहीं है, विश्वास की कमी के कारण है। विश्वास की यह कमी, विश्वास किए जाने पर संदेह के कारण है। यह एक ऐसी सामाजिक त्रासदी है जिसे अपनी नीयत के प्रति हिंदुओं के मन में संदेह की संभावना से और अपने को सेक्युलर या मुसलमानों के प्रति संवेदनशील सिद्ध होने के लिए प्रयत्नशील हिंदुओं को झेलना पड़ता है। परंतु इस त्रासदी के पीछे व्यक्तियों या समुदायों से अधिक इतिहास की भूमिका है जिसे भुलाने की कोशिश की जाती है, फिर भी यह विश्वास नहीं पैदा हो पाता कि इसे मन से निकाला जा चुका है।

जब तक इकबाल सामाजिक सद्भाव कायम करने के लिए प्रयत्न कर रहे थे तब तक उनके मन में देश भक्ति के लिए स्थान था और यह विश्वास भी था कि हिंदुस्तान विविधताओं से भरा एक राष्ट्र है – हिंदी हैं हम वतन है हिंदुस्तान हमारा। हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलशितां हमारा। इसके बाद एक मोड़ आता है जिसके बाद राष्ट्र की परिभाषा बदल जाती है देश से लगाव जरूरी नहीं रह जाता। मोड़ को समझे बिना हम इकबाल के व्यक्तित्व, साहित्य और सरोकार में आए बदलाव को नहीं समझ सकते। उसी बदलाव का परिणाम था उनके प्रयत्न से जिन्ना की सोच में बदलाव आना।

परन्तु जिन्ना अपने दृष्टिकोण में आधुनिक हैं, इकबाल में इतना पिछड़ापन है कि वह कई बातों में सर सैयद से भी पिछड़े सिद्ध होते हैं।