Post – 2018-12-11

सर सैयद अहमद खान और अल्लामा इकबाल

यदि हम एक वाक्य में मुस्लिम समाज को प्रभावित करने वाली तीन विभूतियों का मूल्यांकन करना चाहें तो कहना होगा, सर सैयद मुस्लिम समाज को मध्यकालीन मानसिकता से बाहर लाकर आधुनिक चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम बनाना चाहते थे, जिन्ना उनसे भी आगे जाकर, मजहब को केवल सामुदायिक पहचान के रूप में स्वीकार करते हुए सांप्रदायिक संकीर्णता और मजहबी बंदिशों से मुक्त आधुनिक मुस्लिम समाज निर्माण करना चाहते थे, जबकि मुहम्मद इकबाल समाज को मध्यकाल से भी पीछे, इस्लाम के आरंभिक चरण में पहुंचा कर, दरबाबंद मानसिकता में ले जाना चाहते थे।

सर सैयद और जिन्ना की सोच में मुल्लों और मकतबों के लिए जगह नहीं है, दोनों की दीठि यूरोप की ओर है, अकबर इलाहाबादी और इकबाल की सोच में मुल्लों और मदरसों के लिए जगह है, इनकी पीठ यूरोप की ओर है। इसमें उनकी असाधारण काव्य प्रतिभा ने चुंबकीय आकर्षण पैदा कर दिया था।

यह हैरानी की बात है इन तीनों मुस्लिम नेताओं में बौद्धिक रूप में सबसे कमजोर, सबसे जथातथवादी, व्यक्ति को दार्शनिक मान लिया गया, और जिनमें सचमुच बौद्धिक खुलापन था, उनका मुस्लिम समाज ने उपयोग करके कूड़ेदान में डाल दिया। यहां हम केवल यह दिखाना चाहते हैं कि अपने से आधी शताब्दी पहले पैदा हुए सर सैयद अहमद खान से वह कितने पीछे थे।

सर सैयद अहमद का दृष्टिकोण आधुनिक इस मानी में है, कि उनकी चिंता भले अपने वर्ग तक सीमित रही हो परंतु उसके केन्द्र में सामाजिक अवरुद्धता, आर्थिक दुर्गति, शैक्षिक पिछड़ापन, अवैज्ञानिक दृष्टिकोण, औद्योगिक और व्यापारिक उदासीनता, आदि थे। मजहब उनकी चिंता के केंद्र में नहीं आता था, या यदि आता था तो केवल हासिये की समस्या बन कर, जिसको बचाना जितना जरूरी था, उतनी ही जरूरी उसकी ऐसी व्याख्या थी जो समाज को मध्यकालीन भेंड़चाल से बाहर ला सके और आधुनिक चुनौतियों का सामना करने में बाधक न बनने दे। यह देख कर हैरानी होती है कि अल्लामा इकबाल आधुनिकता को भी मजहबी दीवारों में घेर कर रखना चाहते हैं।

यहां याद दिला दें कि 19वीं शताब्दी में हिंदुस्तान में सैयद अहमद खान नाम के दो व्यक्ति हुए थे। पहले सैयद अहमद खान के विषय में उनके विचार इतने भ्रामक हैं कि इन्हें पढ़ने के बाद मुझे लगा कि वह सर सैयद अहमद को ही वहाबी आंदोलन का भारतीय प्रतिनिधि मान बैठे हैं।उनके विचार निम्न प्रकार हैं:
“19वीं शताब्दी में हिंदुस्तान में सैयद अहमद खान, अफगानिस्तान में सैयद जमालुद्दीन अफगानी और रूस में मुफ्ती पैदा हुए। ये लोग शायद सन 1700 नज्द मी पैदा हुए मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब से प्रेरित थे जिन्होंने तथाकथित वहाबी आंदोलन आरंभ कर किया था जिसे आधुनिक इस्लाम की पहली धड़कन कहा जा सकता है। सैयद अहमद का प्रभाव केवल हिंदुस्तान तक सीमित रहा। फिर भी संभवत है वह पहले आधुनिक मुसलमान हैं जिन्होंने आने वाले युग की झांकी का अनुभव किया। जैसे रूस में मुफ्ती ने सुझाया था उन्होंने भी प्रस्ताव रखा इस्लाम की कमियों का इलाज आधुनिक शिक्षा है। परंतु ऐसे व्यक्ति किसी व्यक्ति की असली महानता इस इस बात में है कि वह पहले हिंदुस्तानी मुसलमान हैं जिसने यह अनुभव किया इस्लाम का रुझान बदला जाना चाहिए, इसके लिए आजीवन काम करते रहे।”
During the nineteenth century were born Syed Ahmad Khan in India, Syed Jamal-ud-Din Afghani in Afghanistan and Mufti Alam Jan in Russia. These men were probably inspired by Muhammad ibn Abdul Wahab who was born in Nejd in 1700, the founder of the so-called Wahabi movement which may fitly be described as the first throb of life in modern Islam. The influence of Syed Ahmad Khan remained on the whole confined to India. It is probable, however, that he was the first modern Muslim to catch a glimpse of the positive character of the age which was coming. The remedy for the ills of Islam proposed by him, as by Mufti Alam Jan in Russia, was modern education. But the real greatness of the man consists in the fact that he was the first Indian Muslim who felt the need of a fresh orientation of Islam and worked for it. We may differ from his religious views, but there can be no denying the fact that his sensitive soul was the first to react to the modern age.
The extreme conservatism of Indian Muslims which had lost its hold on the realities of life failed to see the real meaning of the religious attitude of Syed Ahmad Khan. (Religion and Philosophy, Speeches, writings and Statements of Iqbal, Compiled and Edited by LATIF AH MAD S H E RWAN I, Iqbal Academy Pakistan Govt. of Pakistan, 229-30)
मेरे भ्रम का कारण यह था, और वह भ्रम अभी तक बना हुआ है, कि जिस सैयद अहमद खान की बात अल्लामा इकबाल ने की है उनके बारे में यह कहा है कि वह आधुनिक शिक्षा के समर्थक थे, जबकि उनका अहमदियों का इस्लाम की मान्यताओं से संबंध है, जिहाद से संबंध है, कुरीतियों को दूर करने से संबंध है, और उनके इबादत के तरीके में कुछ नयापन है, परंतु शिक्षा के मामले में इनका कोई योगदान, कोई नया प्रयोग देखने में नहीं आता, आधुनिक शिक्षा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यह काम सर सैयद अहमद ने किया था।

दूसरे, वह सैयद अहमद खान को 19वीं शताब्दी में पैदा हुआ दिखाते हैं । यह सर सैयद के विषय में तो सही है, सैयद अहमद खान के विषय में नहीं। उनका जन्म 1786 में हुआ था, अर्थात वह अठारहवीं शताब्दी में पैदा हुए, यद्यपि उनका आंदोलन 19वीं शताब्दी में चला। इसमें उन्होंने वहाबी परंपरा का निर्वाह करते हुए विधर्मियों के विरुद्ध धर्मयुद्ध छेड़ा और जवानी में मौत को भी प्राप्त हुए हुए।

जहां तक हमारी जानकारी है वही भारतीय अहमदी संप्रदाय के संस्थापक भी थे। अहमदी समुदाय पर लिखते हुए इकबाल ने उनकी कड़ी आलोचना की है और यहां विचारधारा से असहमति के बावजूद उनका रुख प्रशंसात्मक दिखाई देता है। भ्रम को बनाए रखने में यह भी सहायक होता है।

जो भी हो, सैयद अहमद के वहाबी विचारों से भी उनकी असहमति थी और सर सैयद की आधुनिक शिक्षा से भी उनका विरोध था। इकबाल को इस मामले में अकबर (इलाहाबादी) के विचार सर सैयद से अधिक सही लगते थे और अकबर को देवबंद के मदरसों की संस्कृति और शिक्षा पद्धति पश्चिमी सभ्यता और शिक्षापद्धति की तुलना में अधिक अनुकूल लगती थी।

परंतु देवबंदियों को अंग्रेजों से वही शत्रुभाव था जो वहाबी आंदोलन के भारतीय जनक सैयद अहमद खान शाहिद को था। वे अंग्रेजी भाषा, सभ्यता के ही विरोधी नहीं थे, अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए प्रयत्नशील, उनसे सहयोग करने वालों के भी विरोधी और इसलिए मुस्लिम लीग के भी विरेधी थे, जब कि इकबाल लीग के साथ थे और आधुनिक पाश्चात्य ज्ञान के कायल थे, यह जानते हुए कि अंग्रेज अपनी सत्ता बचाने के लिए सांप्रदायिक तनाव पैदा करके स्वतंत्रता को टालते जा रहे हैं उनका अपने हित में उपयोग करने के लिए उनके साथ साथ सहयोग कर रहे थे। ऐसी स्थिति में उनकी इस टिप्पणी को (जिसका अनुवाद हम स्थान की सीमा के कारण नहीं दे रहे हे) ध्यान से पढ़ी जानी चाहिएः
In our educational enterprise we have hardly realised the truth, which experience is now forcing upon us, that an undivided devotion to an alien culture is a kind of imperceptible conversion to that culture, a conversion which may involve much more serious consequences than conversion to a new religion. No Muslim writer has expressed this truth more pointedly than the poet Akhar who, after surveying the present intellectual life of the Muslim Youngman, cries out in despair:
शेख मरहूम का मुझे यह कौल याद आता है
दिल बदल जाएंगे तालीम बदल जाने से।
We now see that the fears of the (शेख) the representative of the essentially Muslim culture, who waged a bitter bitter controversy with the late Sir Sayyed Ahmad Khan on the question of Western Education—were not quite groundless. Need I say that our educational product is a standing testimony to the grain of truth contained in the Sheikh Marhum’s contention. Gentlemen, I hope you will excuse me for these straightforward remarks. Having been in close touch with the student-life of to-day for the last ten or twelve years, and teaching a subject closely related to religion, I think I have got some claim to be heard on this point. It has been my painful experience that the Muslim Student, ignorant of the social, ethical and political ideals that have dominated the mind of his community, is spiritually y dead; and that if the present state of affairs is permitted to continue for another twenty years the Muslim spirit which is now kept alive by a few representatives of the old Muslim culture, will entirely disappear from the life of our community.
(वही, 131-132)
इस कथन के पीछे छिपी चिंता को हंस कर नहीं उड़ाया जा सकता। उनका जोर इस बात पर है कि हमें पाश्चात्य शिक्षा पर इतना इकहरा जोर नहीं देना चाहिए कि हम अपनी जड़ों को, अपने इतिहास को ही भूल जाएं। अपना आत्मविश्वास ही खो दें। यहां तक उनकी आशंका सही थी, परन्तु सर सैयद अहमद ने तो विश्वविद्यालय के खाके में भी इस बात का इतना ध्यान रखा था कि विज्ञान पढ़ते हुए अगली पीढ़ियों को खुदा ही न भूल जाए, इसलिए उन्होंने उसमें मस्जिद और नमाज का भी प्रबंध किया था। उनके प्रसंग में यह बात क्यों याद आई?

एक ही कारण हो सकता है। सर सैयद अपने समाज को आगे ले जाना चाहते थे, इकबाल उसे पीछे ले जाना चाहते थे। सर सैयद और इस मामले में जिन्ना भी, अपने समाज को मुक्त करना चाहते थे और कविता में जोश भरने के लिए ‘तू बाजी है, परबाज है काम तेरा/ तेरे सामने आसमां और भी हैं’ की ललकार लगाने वाला कवि यथार्थ जीवन में उसके पर कतर कर रखना चाहता था। खुले आसमान से, ऐसी तालीम से, बचा कर रखना चाहता था, जो सोचने समझने का तरीका बदल सकती हो। वह उसे कठमुल्ला बना कर रखना चाहता था. मरहूम शेख साहब उनके मार्गदर्शक थे और जिंदा विचारों से उसे घबराहट होती थी।