हिंदी का मुसलमाँ होना
सुनते हैं पाकिस्तान में हमारे ‘कौमी’ तराने की एक लाइन बदल कर उसे ‘मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहां हमारा’ कर दिया गया। इस पर अल्लामा इकबाल को भी आपत्ति न होती। राष्ट्रीयता की उनकी समझ में भी यही बदलाव आया था । वह खुद भी हिंदी से मुसलमान हो गए थे। इस लाइन का बदला जाना,उन्हीं के प्रयत्न से पैदा हुई मानसिकता की अभिव्यक्ति थी।
उनकी सोच में आया यह बदलाव भारतीय राजनीति में भी एक निर्णायक मोड़ सिद्ध हुआ। इससे पहले आम मुसलमानों का मुस्लिम लीग के प्रति वैसा ही रुख था जैसा हिंदुओं का हिंदू महासभा के प्रति था। मोहम्मद इकबाल ब्राह्मण से मुसलमान बनने के कारण कुछ खास हैसियत तो रखते थे, परंतु रईस तबके से नहीं जुड़े थे। अतः आरंभ में इनका दृष्टिकोण राष्ट्रवादी था, बाद में इसमें इतना बदलाव आया कि संप्रदायवाद भी उनकी नजर में श्लाघ्य हो गया:
Yet I love the communal group which is the source of my life and behaviour, and which has formed me what I am by giving me its religion, its literature, its thought, its culture, and thereby recreating its whole past as a living operative factor, in my present consciousness. Even the authors of the Nehru Report recognise the value of this higher aspect of communalism. ( All-India Muslim League, Allahabad Session, 29th December 1930, Presidential Address, Lahore, oc, 10.) ।
इस बदलाव के बाद इनकी कविता के प्रभाव से सभी तबकाें के शिक्षित मुसलमानों के नजरिए में बदलाव आना स्वाभाविक था, क्योंकि कवि की पहुंच राजनीतिज्ञों से अधिक व्यापक, अधिक गहरी, अधिक टिकाऊ होती है और उसका प्रभाव हमारे अवचेतन पर भी पड़ता है। उसे उनका भी दाद मिलता है जिनकी वे आलोचना करते हैं। दुश्मनों के दिलों पर राज्य करने वाला कलाकार ही होता है, राजनीतिज्ञ नहीं। यह जानते हुए भी कि इकबाल का नजरिया संप्रदायवादी था, हम उनकी कविता पर दाद दिए बिना नहीं रह पाते।
इस बदलाव का संबंध उनके इंग्लैंड गमन से जुड़ा दिखाई देता है। इंग्लैंड आने वाले भारतीयों के लिए ब्रिटिश कूटनीति इतनी व्यापक और परिष्कृत सिद्ध होती रही है कि यह विरोधी के सर पर चढ़ कर बोलने लगती थी। कारण, भारत में भारतीयों के साथ अंग्रेज अधिकारी जितनी हेकड़ी से बर्ताव करते थे उसका वहां आभास तक न होता था। यह किसी एक व्यक्ति की चालाकी से जुड़ी योजना नहीं थी,अपितु उनकी राष्ट्रीय सोच, मिजाज और सरोकार से जुड़ी थी, जिसमें सभी स्तरों के लोगों का योगदान था। कहीं यह नहीं लगता कि आपको कुछ सिखाया-पढ़ाया जा रहा है, या तर्क से अपनी बात का कायल किया जा रहा है । यहां तक कि आपको यह भी नहीं लगता की आपके दृष्टिकोण का अनादर किया जा रहा है, आपके विचारों को नजरअंदाज किया जा रहा है। अपनी मान्यताओं में दृढ़ लोग भी इस हल्की आँच का मज़ा लेते हुए पत्थर से मोम बनते चले जाते थे और खुद ही उस सांचे के लिए अपने को तैयार कर देते थे जो उनकी कूटनीतिक जरूरत पूरी करता है।
इस प्रक्रिया को समझने में इकबाल हमारी जितनी मदद करते हैं उतनी कोई दूसरा नहीं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। इकबाल कहते हैं जब भी मैं कभी पूरब की किसी विशेषता की बात करता था तो वहां का हर खास व आम की एक ही प्रतिक्रिया होती थी, ‘कितनी अजीब बात है!’ यह शब्द मेरे हैं, इकबाल के शब्दों में कहें तो: Asabiyyat is patriotism for religion; Patriotism, Asabiyyat for country. Asabiyyat simply means a strong feeling for one’s own nationality and does not necessarily imply any feeling of hatred against other nationalities. During my stay in England I found that whenever I described any peculiarly Eastern custom or mode of thought to an English lady or gentlemen, I, almost invariably, invoked the remark—”how funny” as if any non-English mode of thought was absolutely inconceivable.
हम इसका शब्दशः अनुवाद इसलिए नहीं कर सकते कि पहले ही वाक्य में शब्दों का खेल तो है, परंतु असलियत का सही चित्र नहीं। असलियत यह है कि मजहब और देश दोनों अलग अवधारणाएं जिनमें केवल नाम का अंतर नहीं है। दोनों का मतलब एक है – अ=ब= स इसलिए अ=स जैसा सीधा मामला नहीं है। दोनों में अल्ला कहें या खुदा कहें, जैसा नाम-भेद नहीं अपितु वस्तु-भेद है। एक का गुण दोष दूसरे पर नहीं लादा जा सकता। यदि वह कहते असबिय्यत का अर्थ है गहन निष्ठा। वह एक साथ मजहब के प्रति भी हो सकती है और देश प्रति भी, तो यह हमें भी अजीब न लगता। यदि कहते एक के प्रति गहन निष्ठा दूसरे के प्रति गहन निष्ठा का निषेध नहीं करती, या कहते अपने देश के प्रति गहन निष्ठा, दूसरे देशों के प्रति नफरत नहीं पैदा करती, अतः हमारा राष्ट्र प्रेम पश्चिम की तरह संकीर्ण और अन्य राष्ट्रों से नफरत करना नहीं सिखाता, तो पश्चिम से पूर्व का अंतर भी स्पष्ट होता और असहमति के बावजूद उन्हें भी यह फनी न लगता। परंतु कवि विचारों से अधिक चमत्कारों की चिंता करता है, जिससे हमारे समझ में कोई बात वहां भी स्पष्ट नहीं होती जहां हम किसी रचना से चमत्कृत होते हैं।
पश्चिम और पूर्व के विचारों में एक अन्य भेद देखने में आता है विज्ञान और प्रौद्योगिकी में विकास के क्रम में विचारों के सूक्ष्म भेद, सटीक शब्दावली के प्रयोग की सावधानी भी उनकी भाषा में बढ़ती गई है। पूर्व में कुछ हमारी शिथिलता के कारण और कुछ उनके प्रयत्न से वैज्ञानिक सोच और तकनीकी प्रगति लंबे समय तक अवरुद्ध रही, इसके स्थान पर पौराणिकता हावी रही। इसलिए हम न तो विचारों की शुद्धता का निर्वाह करते हैं नाही वस्तुओं की। सटीक नहीं लगभग वाली भाषा में सोचते और व्यवहार करते हैं। इसलिए इकबाल कह सकते थे There are communalisms and communalisms.(पूर्व. 9) और यह किसी पाश्चात्य श्रोता को फनी लग सकता था, क्योंकि किसी संकल्पना की जमात नहीं होती, ला इलाह इल अल्लाह की तरह संकल्पनाएं भी एक और अनन्य होती हैं। व्यंग्य यह है की इकबाल सही होते हुए भी गलत सिद्ध हो रहे हैं उन्होंने विस्तार से यह समझाया है की कम्युनलिज्म से उनका क्या तात्पर्य है, The principle that each group is entitled to free development on its own lines is not inspired by any feeling of narrow communalism. बस चूक प्रस्तुति में है। उन्हें इस वाक्य में not inspired by any feeling of narrow का प्रयोग नहीं करना चाहिए था। और फिर बताना चाहिए था कि अंग्रेजों ने भारत में कम्युनल फसाद पैदा किया और उसको कम्युनलिज्म का नाम दे दिया, जिसे हम नहीं स्वीकार करते, परंतु यह बात वह नहीं कह सकते थे क्योंकि अब तक जिस राजनीति से जुड़ चुके थे, उसमें यह कहना आत्मघाती हो सकता था।
ब्रिटेन का बच्चा बच्चा यह चाहता था हिंदुस्तान में उसका राज्य बना रहे, बच्चा बच्चा यह जानता था कि इसमें कांग्रेस के कारण, राष्ट्रीय चेतना के कारण, समस्याएं पैदा हो रही हैं। अधिकांश को यह भी पता था कट्टर मुसलमान हमारे शासन को बनाए रखने में सहयोग कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में यदि कोई राष्ट्रीय भावना से बात करे, सामाजिक सौहार्द की बात करे और साथ ही मजहब से भी गहरे लगाव की बात करे, तो वह उनके निशाने पर भी आ जाता है, मजहब और देश में फर्क न करने के कारण हास्यास्पद भी लगता है। इसे इकबाल नहीं समझ पाए और उल्टी यूरोप की समझ को लताड़ने लगे, यह तो हमें भी फनी लगता हैः
it does not indicate any want of imagination; the country of Shakespeare, Shelley, Keats, Tennyson and Swinburne cannot be wholly unimaginative; on the other hand it indicates how deeply England’s mode of thought and life, her institutions, her manners and customs are rooted in the mind of her people.
और जब वह कहते हैं
The religious idea, then, without any theological centralisation which would unnecessarily limit the liberty of the individual, determines the ultimate structure of the Muslim Community
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उनके विचारों का कायल होने के स्थान पर हंसते हुए गोरे हो जाने की तलब होती है। इकबाल भावालोक में जिसमें जिसने जितने बड़े दिखाई देते हैं, विचार जगत में उतने ही कमजोर और कंफ्यूज्ड । ऐसे ही भावुक लोग मेधावी बनकर इंग्लैंड जाते थे और सरनामी औजार बनकर वापस आते थे। उनका प्रभाव विस्तार करने के लिए उन्हें अलंकृत भी किया जाता था। वे अपना कद गंवाकर पहले से बहुत ऊंचे हो जाया करते थे, पहले से अधिक चमकदार हो जाया करते थे, परंतु यह भी नहीं छिपा पाते थे कि चमक रंग की नहीं रोगन की है, और इसी अनुपात में बाद की पीढ़ियों के लिए बौने होते चले जाते थे। इकबाल जो कभी श्रद्धा के पात्र हुआ करते थे, आज सहानुभूति के पात्र बन चुके हैं।