कौन लिखता है इबारत किसकी
प्रमोद जोशी ने मेरी एक भूल को दुरुस्त करते हुए बताया है कि कौमी तराने में परिवर्तन किसी अन्य ने नहीं इकबाल ने स्वयं किया था। इंग्लैंड जाने से पहले 1904 में उन्होंने वह गाना लिखा था जिसे हम कौमी तराना मानते आए हैं, लौटने के बाद 1910 में उन्होंने उसी तर्ज पर मिल्ली तराना लिखा था, जो पहले लिखे तराने की पैरोडी तो था ही, उसे भूल मानते हुए उसे वापस लेने जैसा निर्णय भी था । यह तराना विकीपीडिया पर उपलब्ध है फिर भी इसे देना जरूरी है, क्योंकि यह उनके नजरिए में बदलाव को समझने में एक कुंजी का काम करता है। उनकी बौद्धिक अपरिपक्वता को भी समझने में सहायक होता है। सबसे अधिक आम मुसलमानों के नजरिए को बदलने में इकबाल की भूमिका को भी स्पष्ट करता है। यह मात्र एक तराना नहीं था, एक राजनीतिक अभियान का हिस्सा था। इकबाल कहते जरूर हैं कि उनका राजनीति से कोई सरोकार नहीं, परंतु यह इस सीमा तक ही सही है क्वि वह किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े थे, अन्यथा वह सबसे अधिक राजनीतिक कवि हैं और इसे हटा दिया जाए तो उनकी कविता में और कुछ बचेगा ही नहीं । राजनीतिक अभियान से जुड़े होने के कारण उनमें गर्मजोशी अधिक है, वह बारूदखाने से अपनी भाषा निकालते हैं और हम जानते हैं बारूद का प्रयोग करने वालों के पास मारक क्षमता तो होती है, विवेक का अभाव होता है। जिस तराने की बात हम कर रहे हैं वह निम्न प्रकार हैः
चीनो अरब हमारा, हिंदोस्ताँ हमारा
मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहाँ हमारा।
तौहीद की अमानत सीनों में है हमारे
आसां नहीं मिटाना नोमो-निशां हमारा।
दुनिया के बुतकदों में पहला वो घर खुदा का
हम उसके पासबां हैं, वह पासबां हमारा।
तेगों के साये में हम पलकर जवां हुए हैं
खंजर हिलाल का है कौमी निशां हमारा।।
मगरिब की वादियों में गूंजी अजां हमारी
थमता न था किसी से सायल रवां हमारा ।।
बातिल से दबने वाले ऐ आसमां नहीं हम
सौ बार कर चुका है तू इम्तहां हमारा।।
ऐ गुलसिताने अंदलुस वह दिन है याद तुझको
था तेरी डालियों पर जब आशियां हमारा।।
ऐ मावजेय दजला तू पहचानती है हम को
अब तक है तेरा दरया अफसाना ख्वां हमारा।।
ऐ अर्जे पाक तेरी हुरमत पर मर मिटेंगे
है खून तेरी रग में अब तक रवां हमारा ।।
सालारे कारवां है मीरे हिजाज अपना
इस नाम से है बाकी आरामे जां हमारा।।
इकबाल का तराना बांगे दरा है गोया
होती है जादा पयमा फिर कारवां हमारा।।
इसे हम इकबाल की कविता मानें या उनकी जिन्होंने कौम की चिंता करने वाले कवि को, अपने माध्यम के रूप में इस्तेमाल करते हुए, उसकी क्षमताओं का इस्तेमाल करते हुए, स्वयं यह कविता लिखी। आखिर कौम की बात करने वाले, अर्थात् राष्ट्रीय मनोभूमि वाले कवि के साथ ऐसा क्या हुआ, क्यों हुआ कि उसके पांव के नीचे से जमीन खिसक गई। यह उसका चुनाव तो नहीं था, परंतु यह इंग्लैंड जाने का प्रभाव अवश्य था। पहला तराना इकबाल ने लिखा था, दूसरा तराना ब्रिटिश कूटनीति ने इकबाल का इस्तेमाल करते हुए लिखा था। दिमाग वह काम कर रहा था, जिसे उन्होंने बनाया था। इबारत वह लिखी जा रही थी जो वे लिखाना चाहते थे। जुमलों में खूंरेजी उनके द्वारा भरी जा रही थी।
मैं जानता हूं, आपको मेरा यह कथन कुछ अटपटा लग रहा होगा, परंतु यदि आपने किसी प्रेतवाधित व्यक्ति के आचरण को देखा होगा, तो, प्रेत में विश्वास करते हों या नहीं, आविष्ट व्यक्ति के आचरण को समझ सकते हैं। आवेश किसने भरा था इसे मानने में आपको कठिनाई नहीं होगी। परंतु यदि आवेश बोल रहा है तो दिमाग काम नहीं कर रहा है, यह भी मानेंगे ।
इंग्लैंड से लौटने के बाद इकबाल का सारा लेखन, कविता और चिंतन आविष्ट व्यक्ति का लेखन, कविता और चिंतन है जो उनके व्यक्तिगत जीवन से मेल नहीं खाते। वह शीजोफ्रेनिक हैं, जो अपने रीयल सेल्फ और फाल्ससेल्फ में फर्क न कर पाने के कारण दोनों से टकराता हुआ लहूलुहान होता रहता है पर अपनी अस्मिता को पहचान नहीं पाता। स्वयं से सवाल करता है, मेरा वजूद मेरे दिल में या दिमाग में है, और इसका उत्तर पाए बिना मर जाता है।