हिंदू था यह मुसलमां, क्यों भूलता नहीं है
इकबाल के व्यक्तित्व का निर्माण 19वीं शताब्दी में हुआ था। वंशागत संस्कार हिंदू थे, जिसके लिए ईश्वर सर्वत्र विद्यमान होता है। ईश्वर के बाद धर्म की सर्वव्यापकता आती थी। हिंदू समाज में धर्म विश्वास नहीं है, निसर्गजात गुण और नैतिक विधान है इसलिए कर्तव्य बोध से जुड़ता है। इस्लाम में मजहब की ठीक वही व्याख्या नहीं मिलती जो हमारे यहां धर्म की मिलती है। उसका खुदा भी सर्वव्याप्त नहीं है, अपनी सृष्टि से ऊपर, दूर कहीं किसी सातवें आसमान पर विराजमान है। अपने ही रचे संसार से उसका संबंध फरिश्तों के माध्यम से होता है और उसकी इच्छा का पालन इसी निमित्त पैदा हुए या पैदा किए गए इंसान के माध्यम से होता है जो अपनी अंतरानुभूति से और उन फरिश्तों के संदेश को सुन या देख पाता है।
यह पूरी रूपरेखा भावना और विश्वास पर टिकी है क्योंकि यह तर्क की आंच नहीं झेल सकती। उदाहरण के लिए यदि कोई पूछे यदि अल्लाह निराकार, निर्गुण और इसलिए अनिर्वाच्य है तो उसके लिए आसमान या जगह की जरूरत क्या है? किसी मुकाम की जरूरत साकार के लिए होती है। तो इसका उत्तर देना कठिन होगा।, पूछे कि जिसने कहा, ‘प्रकाश हो’ और प्रकाश हो गया, वह अपने संदेश अपने भेजे हुए प्रतिनिधि से सीधे संपर्क क्यों नहीं कर सकता? यदि उसने कहा प्रकाश हो, तो वाकतंत्र के बिना यह कहा कैसे? तो जवाब देने में परेशानी होगी। यह परेशानी अकेले इस्लाम के साथ नहीं है सभी सामी मजहबों के साथ है और किसी एक मामले में नहीं, हर निर्णायक कड़ी के साथ है, इसलिए उनमें तर्क के लिए, सोचने- विचारने के लिए अवकाश नहीं है। वे विचारधारा से नहीं विश्वासधारा से प्रचलित होते। स्वयं सोचने की जगह किताब का सहारा लेना पड़ता है। किताब से बाहर या अलग जाने की छूठ ही नहीं है। नैतिक और अनैतिक का विचार करने की गुंजाइश ही नहीं है। यदि किताब में वैसा लिखा है वह सही है, अन्यथा गलत। उचित और अनुचित, नैतिक या अनैतिक नहीं। सही या गलत, यथालिखित या उससे अलग। अलग है तो गर्हित है।
हम यह नहीं कहते कि भारतीय चिंता धारा में तर्कातीत के लिए जगह नहीं है। हमारी सीमा है कि इस समय हम इस्लाम पर बात कर रहे हैं और उसी के गुण दोष देख रहे हैं। यह याद दिला दें कि जब गार्गी याज्ञवल्क्य से ऐसा करती है जिसका उत्तर वह नहीं दे पाते हैं तो कहते हैं, अतिप्रश्न मत कर गार्गी, नहीं तो तेरा सिर फट जाएगा। विज्ञान भी, जो ईश्वर को न करता है, इस बात का जवाब नहीं दे सकता कि यदि ब्रह्मांड का विकास भूत से हुआ है तो वह भूत कहां से आया और उससे पहले क्या था। हम केवल यह कह सकते हैं कि सामी मजहबों में प्रश्न तक अतिप्रश्न बन जाता है और इसलिए मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग जो कुछ किताबों में लिखा है उसे सही सिद्ध करने में करता है।
हम इस चर्चा में इसलिए पड़ गए कि यह समझ सकें कि जिसे इकबाल का दार्शनिक योगदान माना जाता है वह हिंदुत्व के प्रभाव या सामंजस्य का परिणाम है, जिसे वह स्वयं नकारने की भी कोशिश करते हैं। इसलिए जब वह कहते हैं कि “राजनीति की जड़ें मनुष्य के आत्मिक जीवन में है और मजहब वह शक्ति है जो मनुष्य और राष्ट्र के जीवन में सर्वाधिक महत्त्व रखता है”, तो हमें वह गांधीजी के मुहावरे में बोलते प्रतीत होते हैं
“politics have their roots in the spiritual life of man,” and that “religion is a power of the utmost importance in the life of individuals as well as nations”.
परंतु वह इसका निर्वाह इसलिए नहीं कर सकते कि वह इसी से विरोध रखते हुए इस्लामी मान्यताओं को स्वीकार्य और एक ख्याल को हकीकत बनाना चाहते हैं, जिसके लिए इस्लाम में जगह ही नहीं है। नीचे लिखे वाक्यों में पर ध्यान दें। जहां किताब के सामने जिज्ञासा करने का भी अवकाश नहीं है, वहां इंडिविजुअलिटी या निजता का प्रश्न ही नहीं आता, परंतु इकबाल इसका आरोपण कर लेते हैं और निर्वाह नहीं कर पाते। नीचे के वाक्यों पर ध्यान देंः
The whole system of Islamic ethics is based on the ideal of individuality; anything which tends to repress the healthy development of individuality is quite inconsistent with the spirit of Islamic law and ethics. A Muslim is free to do anything he likes, provided he does not violate the law. The general principles of this law are believed to have been revealed; the details, in order to cover the relatively secular cases, are left to the interpretation of professional lawyers.
फिर स्वतंत्रता कहां है ? बात संस्कारों की है। जैसे हम अपने गुणसूत्रों को नहीं जानते हैं और जानें भी तो आसानी से यह नहीं समझ पाते कि हमारी आनुवंशिक व्याधियों और विशेषताओं के सूत्र पिछली पीढ़ियों में किस से जुड़े हुए हैं, उसी का तरह का रहस्य संस्कारों के साथ भी जुड़ा होता है। लिबास बदलने से आदमी नहीं मदल जाता, न ही मजहब बदलने से संस्कार बदल जाते हैं, अन्यथा हिंदुओं को धर्मांतरित मुसलमानों के इन दोषों के लिए न कोसा जाता जिन्हें हिंदुत्व की देन माना जाता है और जिसे इकबाल स्वयं भी कोसते हैंः
there are castes and sub-castes like the Hindus’. Surely we have out-Hindued the Hindu himself; we are suffering from a double caste system—the religious caste system, sectarianism, and the social caste system, which we have either learned or inherited from the Hindus.
बुराइयों की तरह ही अच्छाइयों और विचारों का भी प्रवेश हो सकता है और स्वयं इकबाल की दार्शनिकता का एक पहलू यह है। दूसरा इससे पलायन से जुड़ा है, जिसके प्रति भी वह सचेत नहीं हैं। इकबाल के सचेत होने से भी अधिक अंतर नहीं आता, क्योंकि धर्मान्तरित व्यक्ति को स्वयं उसकी मान्यताओं पर खरा उतरना होता है, वह उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। यह काम उन लोगों का था जिन्होंने इकबाल को दार्शनिक कवि माना और उनकी गहराइयों को समझने से चूक गए, अन्यथा इस समझ के माध्यम से ही भारतीय इस्लाम का एक नया चरित्र उभरता जो इस्लाम को भी नया रास्ता दिखाता और अपने ही घर में बेगाना होने से बच जाता। उसे अपने अस्तित्व के लिए किसी पराए का मुंह नहीं देखना पड़ता। पान इस्लामिज्म आत्मविश्वास की इसी कमी की क्षतिपूर्ति है।