न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्ताँ वालों
इकबाल की दार्शनिकता का प्रेरक वह उपहास था, जिसे अपनी ओर से भारतीय धर्म संस्कृति और समाज की बात करते हुए उन्हें अंग्रेजों से झेलना पड़ा था। हम इसके ब्यौरे में न जाकर केवल इतना ही कहना चाहेंगे उन्हें जिन प्रश्नों का जवाब देते न बनता था,या जो जवाब देते थे उसे भी वे हंसकर उड़ा देते थे, वे भारतीयता राष्ट्रीयता और धर्म को लेकर थे। इसका उन्होंने अलग से उल्लेख नहीं किया है, परंतु यह उनके लेखन से ही स्पष्ट।
उनकी पहली आपत्ति भारतीय राष्ट्रीयता को लेकर थी। वे राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयभावना के बीच में फर्क नहीं करते थे, क्योंकि दोनों ही रूपों में भारतीय राष्ट्रीयता उनके शासन के लिए खतरे की घंटी थी। राष्ट्रीय भावना का स्रोत था विविधता में एकता। अंग्रेजी कूटनीति का प्रयत्न था, विविधता को विघटनकारी बनाना। अपने उदाहरणों से यह दिखाना कि राष्ट्रवाद तो, जाति भाषा क्षेत्र और धर्म के एक हुए बिना संभव ही नहीं है। भारत में हिंदू समाज में जहां वर्ण व्यवस्था है, ऊंच-नीच का भेद है, जहां हिंदू और मुसलमान दो कौमें बसती हैं, इनमें भाई चारा नहीं है, राष्ट्र की बात करना हास्यास्पद तो है ही।
कांग्रेस, जिस की स्थापना और नामकरण एक अंग्रेज ने किया था, अब अपने नाम को बदल नहीं सकती थी, सहयोग के बिना स्वतंत्रता आंदोलन अपनी प्राण शक्ति खो देती थी। इसी में विविधता में एकता की चेतना, जो धर्म, भाषा जाति और क्षेत्र की भिन्नताओं के बावजूद हजारों वर्षों से बनी चली आ रही थी, उसका उपयोग करते हुए कांग्रेस सब को एक सूत्र में बांधना चाहती थी। और उसी भावना का आदर करते हुए इकबाल ने वह तराना लिखा था जिसमें भारत विविध रंगो के फूलों वाला गुलिस्तान, और भारतीय उसमें अपने-अपने गीत गाने वाले पक्षियों जैसे दिखाए गए। अंग्रेजों से बहस करते हुए, उपहास सहते हुए, इकबाल का विश्वास डगमगा गया था। इस दौर में कौमी जुनून जिस तरह उभारा गया था, उसका बी परिणाम था लौटने के साथ ही उसे डिसओन करते हुए उसी तर्ज पर मिल्ली तराना लिखना। इसके बाद किसी को इसे जबान पर लाना ही नहीं चापिए था, परन्तु मेलमिलाप के फरेब रचे जाते रहे उसमें किसी को यह समझाना तक संभव नहीं कि इस गीत को कवि द्वारा ही वापस ले लिया गया था। राष्ट्रगान के साथ यदि उपराष्ट्रगान की जरूरत है ही तो वंदे मातरम गाओ, भारति जय विजय करे गाओ पर उस बेचारे को तो माफ करो, तो किसी की समझ में नहीं आएगा।
उनके साथ अब समस्या अपनी अस्मिता की खोज की थी , यह कि यदि हिंदुस्तान राष्ट्र नहीं तो उनका अपना राष्ट्र क्या है? यह उनकी निजी खोज हो, या बहस में सुझाया गया विचार हो, या उनकी उस मुकाम पर वापसी हो, जहां सर सैयद अहमद खान दो कौमों की बात करते हुए हिंदुओं से अलग मुसलमानों की कौमी एकता की बात करते थे।
हमें ऐसा लगता है कि सर सैयद अहमद खान और इकबाल दोनों के मन में यह बात अंग्रेजों ने भरी थी, क्योंकि सर सैयद ने हिंदुओं की राष्ट्रीय एकता पर जो सवाल खड़े किए वे सवाल इकबाल के दिमाग में भी उतारे गए थे। अंतर केवल एक था, सर सैयद ने इसे समग्र भारत की भौगोलिक एकता को नकारते हुए बंगाल महाराष्ट्र और मद्रास के ब्राह्मणों को अलग अलग राष्ट्र माना था, जबकि इकबाल इसके पीछे वर्ण व्यवस्था की भेद रेखाओं को मुख्य कारण मानते थे।
हिंदुओं के पास देश था, धर्म और पौराणिक विरासत की संस्कृत भाषा में सब की निष्ठा थी, अतः इनकी राष्ट्रीयता को खंडित करने वाली एक ही मजबूत विभाजन रेखा वर्णों के आधार पर थी जिस में खानपान विवाह का निषेध था। इसे इकबाल पूरी तल्खी से महसूम करते थे, इसलिए इसका कायल करने के लिए एक संकेत ही पर्याप्त था।
इसका परिणाम था उस देश से ही उनका मोहभंग जिसमें एक मनुष्य दूसरे का स्पर्श करने से भी इंकार करता है। ऐसे अपमान के शिकार केवल हिंदू समाज के अस्पृश्य ही नहीं थे, शासक होते हुए भी स्वयं अंग्रेज थे। शासन कर चुके, ऊंची जातियों में रह चुके, मुसलमानों को भी इस अपमान को सहना पड़ता था, इसलिए वे इसे जिस तल्खी से महसूस करते इससे कितनी घृणा करते थे यह समझ पाना सवर्ण हिंदुओं के लिए संभव ही नहीं।
इकबाल को हमने मनोभग्नता का शिकार अपने मन को कड़ा करके ही लिखा था। उनकी आंतरिक व्यग्रता का अनुमान करते हुए। वह मानवीय थे, ईमानदार थे, साहसी थे। जो सही लगा उसे कहने के खतरे उठाने को तैयार। पर खतरे आकर ही हम जैसों को यह समझा पाते हैं कि किसी व्यक्ति ने खतरा उठाया था।
वह हिंदुओं को काफिर नहीं मानते थे, और इस कारण कट्टर मुसलमान उनको काफिरों के नजदीक मानते थे और उनका मजाक उड़ाया करते थे । इसी मजाक में किसी ने तंज कसा थाः
सुनता हूं कि काफिर नहीं हिन्दू को समझता
है ऐसा अकीदा असर-ए-फलसफा दानी।
जब गौतम बुद्ध, कृष्ण, राम पर लिखा था और राम को एक मुसलमान की पूरी जिम्मेदारी निभाते हुए ईश्वर का अवतार नहीं, पैगंबर भी नहीं, मात्र इमाम कहा थाः
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज
अहले नजर समझते हैं उसको इमाम-ए-हिन्द
तो कट्टरपंथियों ने उन्हें काफिर कहना शुरू कर दिया जिसका जवाब उन्होंने उसी दृढ़ता से दिया थाः
जाहिद-ए-तंग नजर ने मुझे काफिर जाना
और काफिर ये समझता है मुसलमान हूं मैं।
इसलिए जब इंग्लैंड प्रवास के दौरान उन्हें जाति व्यवस्था की क्रूरता का तीव्रता से बोध हुआ तो उन्होंने अपनी स्वाभाविक तड़प के साथ की वेदना को व्यक्त करते हुए लिखा
आह! शूद्र के लिए हिन्दोस्तां गम-खाना है
दर्द-ए-इंसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है।
और संभवतः इसी प्रसंग में अपनी व्यथा को उससे भी प्रखर रूप में व्यक्त करते हुए लिखा
करदे फकत इशारा अगर शाहे खुरासान
सजदा न करूं हिंद की नापाक जमीन पर।
हिंदुओं में भी अपनी कठोर आलोचना झेलने की ताकत होनी चाहिए अन्यथा मुसलमानों को बंद दिमाग का बंदा कहने का उनका कोई अधिकार नहीं है।
हम विषय से भटक गए। बात मुसलमानों के लिए अस्मिता की खोज और इस्लाम को लेकर पश्चिमी जगत में जो धारणाएं, प्रचलित हैं, जैसे कि यह हिंसा पर पलने वाला मजहब है, इसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए जगह नहीं है, इसमें गुलामी मानसिकता भरी हुई है, यह हिंदुओं से अलग एक कौम तो है, पर राष्ट्र नहीं है। इस्लाम सबसे ज्यादा पिछड़ा मजहब है जिसम जिसमें ज्ञान, विज्ञान, कला, सौंदर्यबोध और मानवीयता के लिए जगह नहीं है। ऐसे अनेक सवाल थे जिनका जख्म लेकर वह इंग्लैंड से लौटे थे और जिनका जवाब तलाशने में लंबा समय लगाया था। इसी के कारण वह कहते हैं कि उन्होंने अपने जीवन का सबसे कीमती समय इस्लाम के अध्ययन में लगाया है, परंतु यह अपनी मान्यताओं को सही ठहराने की कोशिश से आगे नहीं बढ़ पाता।