मुस्लिम राष्ट्र
इकबाल की आलोचना करते हुए हम उन्हें अच्छा या बुरा सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। यही बात दूसरे नेताओं के साथ भी है। हमारे लिए उनका केवल वह पक्ष महत्वपूर्ण है जिससे इतिहास बनता है। व्यक्ति वही है, उसमें जिन परिस्थितियों में जो परिवर्तन होता है वह हमें किस रूप में प्रभावित करता है हमारे समाज को उससे क्या सही या गलत दिशा मिलती है, यही हमारे उपयोग का है। जिस समय अंग्रेजों के प्रयत्न से बंगाल में समाज को बांटने की कोशिश की जा रही थी और मुस्लिम लीग की स्थापना कराई जा रही थी, उस समय देश के लिए इसे खतरा मानते हुए वतन की फिक्र करने की अपील करने वाले सबसे मुखर कवि इकबाल ही प्रतीत होते हैं-
वतन की फिक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है
तेरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में,
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तां वालो
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में।
इतिहास की यह कैसी विडंबना है कि वही कवि जिस सुदूर खतरे को भांप कर उससे बचने की चेतावनी दे रहा था, वही उसका समर्थक बना। जिस इंग्लैंड के कड़वे अनुभवों के साथ, पश्चिमी सभ्यता के प्रति मन में नफरत पाल कर, वह लौटा था, उसी की योजनाओं के अनुसार आगे काम भी करता रहा और अंत में तो उससे मदद की उम्मीद भी लगाए रहा। वह क़यामत जिससे बचने के लिए वह अपने समाज को आगाह करता रहा, वह सचमुच क़यामत बन कर ही आई। इसलिए हमें व्यक्तियों और समुदायों के चरित्र में आए बदलाव पर ध्यान देना चाहिए, न कि उनको अच्छा या बुरा सिद्ध करने पर।
इकबाल से पहले सर सैयद दो कौमों की बात करते थे, जिसको अंग्रेजी अनुवाद करने वालों ने नेशन बना दिया। इसकी बात पहली बार इकबाल ने इंग्लैंड से लौटने के बाद की ।
अंग्रेज मुस्लिम नेताओं के साथ पेश आते हुए एक ओर तो उनको बहुत आत्मीयता से जलील करते हुए समझाते कि तुम कुछ नहीं हो (देखें हंटर). अपही पिछली करतूतों के कारण, लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसका फल तुम्हे भुगतला पड़ेगा. लोकतंत्र में राज उनका होगा। इनकी प्रतिहिंसा से हम तुम्हें बचा सकते हैं और तुम्हारी मदद कर सकते हैं । हमारे अलावा तुम्हारा कोई रखवाला नहीं है।
इकबाल के मन में भी वही भाव पैदा करते हुए राष्ट्र के मामले में यह समझाया था कि भारत में न तो हिंदू मुस्लिम मिलकर एक राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं क्योंकि जातीयता का एक होना धर्म का एक होना राष्ट्रीयता की मांग है, न ही मुसलमान अपने तईं राष्ट्र हो सकते हैं क्योंकि उनका अपना कोई अलग देश नहीं है, पूरे भारत में हुए हैं, बिखरे हुए हैं, जहां हिंदू बहुमत में हैं । इसलिए मुसलमानों को एक ऐसी कौम मानते हुए जिसका हिंदुओं से भाईचारा निभ ही नहीं सकता, हिंदुओं के प्रति उनके मन में नफरत भरी थी और अलग रास्ता अपनाने के लिए उकसाया था। इसे मानते हुए ही इकबाल ने मिल्लत का तराना लिखा था, मुस्लिम राष्ट्र का नहीं।
अंग्रेजों का का यह अहंकार कि राष्ट्र यूरोप में ही हो सकते हैं उनके मन में कचोट पैदा करता रहा और वह इस प्रयत्न में लगे रहे किसी न किसी तरह यह साबित कर सकें कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र हैं। इस ऊहापोह में उन्होंने जो अध्ययन किया उसमें रेनन नाम के एक दार्शनिक से एक नई दृष्टि मिल गई। रेनन का मानना था कि राष्ट्रीयता के लिए भौगोलिक इकाई की जरूरत नहीं है जातीय एकता इसके लिए पर्याप्त है। उनके मंतव्य को इकबाल ने जिस रूप में प्रस्तुत किया, वह इस तरह हैः
“Man,” says Renan, “is enslaved neither by his race, nor by his religion, nor by the course of rivers, nor by the direction of mountain ranges. A great aggregation of men, sane of mind and warm of heart, creates a moral consciousness which is called a nation.”
मुसलमानों के मामले में “इस तरह की संरचना बिल्कुल संभव है परंतु यह एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है जिसमें लोगों को नए जज्बे से लैस करके उन्हें एक नए इंसान के रूप में ढालना होगा। ”
Such a formation is quite possible, though it involves the long and arduous process of practically re-making men and furnishing them with a fresh emotional equipment.
उन्हें इस रूप में ढालने का काम उन्हें ही करना था। काम आदत बदलने का था, मौज-मस्ती (मुसलमानों की फिक्र करने वालों को अमीरों की जबान, मिजाज की ही याद इसलिए आती है कि आम आदमी के स्तर पर हिंदू मुसलमान में कोई खास भेद नहीं रह जाता) के अनुपात गिरावट की ओर बढ़ते समाज को उठाने की जिम्मेदारी सभी नहीं संभाल सकतेः
नशा पिला के गिराना ता सबको आता है
मजा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी।
यह साकी इकबाल खुद बनना चाहते थे और चाहते थे कि उनका अय्याशी में डूबा हुआ समाज अध्यवसाय और नई ऊर्जा से लबरेज हो, नई ऊंचाइयों को छूने के लिए मुश्किलों से रूबरू होना सीखे और जैसे पश्चिमी लोगों ने खतरे मोल लेते हुए हर एक क्षेत्र में नए कीर्तिमान रखे हैं, वैसा ही करें।
नहीं तेरा बसेरा क़स्रे सुल्तानी के गुंबद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में।
इसी मनो भूमि पर उनके कई और शेर हैंः
तू बाजी है परवाज है काम तेरा
तेरे सामने आसमा और भी हैं।
ऐसी पंक्तियों को यदि उनके समग्र चिंता जगत को दरकिनार करके पढ़ें, केवल भारतीय संदर्भ में रख कर पढ़ें तो इनके दूसरे अर्थ लिए जा सकते हैं, और पश्चिमी जगत के उत्थान में अरबों की भूमिका को याद करते हुए आज की तोहीन को महसूस करने वाले कवि के रूप में देखें और उनसे भी आगे बढ़ने की चुनौती को सामने रखें तो इसका अर्थ उससे हट कर एक व्यापक चुनौती का रूप ले लेता है। जो भी हो उस दौर में मुस्लिम समाज को देखते हुए परिणाम निराशा जनक ही थे परंतु इकबाल अपना प्रयत्न छोड़ने वाले नहीं थेः
नहीं है नाउमीद इक़बाल अपनी किश्ते वीरां से
ज़रा नम हो तो यह मिट्टी बहुत ज़रखेज़ है साक़ी।
उनकी ऐसी पंक्तियां जिनमें वह मुसलमानों में नया जोश पैदा करने की कोशिश करते दिखाई देते हैं, उन्हें हिंसा के लिए उकसाने वाला समझा जा सकता है। मैं उनको कुछ अधिक जानने से पहले ऐसी पंक्तियों का यही अर्थ लगाया करता थाः
मोहब्बत का जुनूँ बाकी नहीं है
मुसलमानों में खूँ कि नहीं।
अभी बाकी हैं मिस्रो रोमो चीना
सभी बाकी हैं तू बाकी नहीं है
इस उद्धरण में तीसरी पंक्ति में कुछ गलती हो सकती है परंतु तात्पर्य स्पष्ट है, आज कोई अरब संस्कृति का नाम लेने वाला भी नहीं रह गया। मुसलमान ऐयाशी में डूबे हुए हैं।
Does the Indian Muslim possess a strong will in a strong body? Has he got the will to live? Has he got sufficient strength of character to oppose those forces which tend to disintegrate the social organism to which he belongs? I regret to answer my questions in the negative. The reader will understand that in the great struggle for existence it is not principally number which makes a social organism survive. Character is the ultimate equipment of man, not only in his efforts against a hostile natural environment but also in his contest with kindred competitors after a fuller, richer, ampler life. The life-force of the Indian Muhammadan, however, has become woefully enfeebled. The decay of the religious spirit, combined with other causes of a political nature over which he had no control, has developed in him a habit of self-dwarfing, a sense of dependence and, above all, that laziness of spirit which an enervated people call by the dignified name of ‘contentment’ in order to conceal their own enfeeblement. 107
या
The Indian Muslim has long ceased to explore the depths of his own inner life. The result is that he has ceased to live in the full glow and colour of life, and is consequently in danger of an unmanly compromise with forces which, he is made to think, he cannot vanquish in open conflict. He who desires to change an unfavourable environment must undergo a complete transformation of his inner being. 45
परंतु व्यंग्य देखिए, जो कभी भारतीय राष्ट्रीयता के साथ जुड़कर जिन संस्कृतियों को समाप्त मानता था, कहता था दूसरे सभी मिट गए सिर्फ हमारा नाम-ओ-निशां बचा हुआ है अपनी अलग राष्ट्रीयता की तलाश में उसने पाया की सभी बचे हुए हैं खुद वह कहीं नहीं है। जो भी हो, राष्ट्रीयता की इसी तलब में इकबाल ने हिंदुस्तान के मुसलमानों को अपनी अलग राष्ट्रीयता का दावा करने का समर्थन कियाः
Sir Fazl-i-Husain’s advice to Indian Muslims to stand on their own legs as an Indian nation is perfectly sound and I have no doubt that Muslims fully understand and appreciate it. Indian Muslims, who happen to be a more numerous people than the Muslims of all other Asiatic countries put together, ought to consider themselves the greatest asset of Islam and should sink in their own deeper self like other Muslim nations of Asia in order to gather up their scattered sources of life and, according to Sir Fazli’s advice, “stand on their own legs.”
और यहीं से आरंभ होता है मुसलमान का अपने घर से बेघर होते हुए भी सारी दुनिया का बनने का सपना जिसे पैन इस्लामियत कहा गया।
इस बेतुके प्रस्ताव का एक ही जवाब है अगर सारा जहां तुम्हारा है तो फिर हिंदुस्तान में मुसलमानों के एक अलग देश की जरूरत क्यों ?
हम यह नहीं कहते कि जिस तरह की दहशत ब्रिटिश कूटनीति ने मुसलमानों के मन में भर दी थी और जिस तरह मुसलमानों के सेंटीमेंट का इस्तेमाल करते रहे उसमें एक अलग देश की मांग गलत थी। दिमाग की उस बदहवासी में कुछ भी जायज था। माइनॉरिटी सिंड्रोम के कारण सहवासी की जगह सहद्वेषी की जो भावना भरी गई थी उसमें अलग क्षेत्र की मांग भी तर्क के लिए मानी जा सकती है, परंतु यह नहीं माना जा सकता कि तुम्हारी राष्ट्रीयता देश और भूमि से ऊपर है और फिर भी तुमको एक अलग देश और भूमि चाहिए। मुसलमानों में दबाए जाने का भय उनके मन में पलने वाली हिंदुओं को दबाकर रखने की लालसा का दूसरा नाम था। भय उस लालसा के पूरा न हो पाने से पैदा होता था जो आज भी बना हुआ है न कि इस कारण कि हिंदू अपने प्रति अपकार का बदला लेंगे।