राष्ट्रीयता और मजहबपरस्ती
बिना पर्याप्त जानकारी और अधिकार के मुझे इस चक्करदार समस्या से उलझना नहीं चाहिए। परंतु, मुझे या भ्रम है कि मेरे पास कुछ ऐसी जानकारियां हैं, जिनका इन विषयों पर चर्चा करते हुए कभी उपयोग नहीं किया गया है, इसलिए एक ऐसे समय में जब देश, राष्ट्र, और राष्ट्रवाद पर नितांत बचकानी बातें की जा रही हों, और लोगों को यह भी पता न हो कि इस बचकानेपन का स्रोत क्या है, और इसके बावजूद उनको सुपठित और बुद्धिमान मानकर लोग उनके प्रभाव में आ जाते हो, चुप रहना भी उनके अपराध में सहयोग करना है। केवल और केवल इस नाते मुझे इसमें हस्तक्षेप करने की आवश्यकता अनुभव हुई। इसका आरंभ अल्लामा इकबाल ने किया था, इसलिए उन पर चर्चा करते हुए, अपनी असहमति प्रकट करना जरूरी लगा।
रघुवीर सहाय ने जो भी सोच कर कहा हो, सुकवि की मुश्किल को कौन समझे, सुकवि की मुश्किल, सुकवि की मुश्किल। मेरी समझ से सुकवि की मुश्किल यह है कि वह अपनी कविता पर, प्रभावशाली उदगार पर, इतना भरोसा करता है कि उसे लगता है कि वह यथार्थ को समझे बिना भी उसे अपने शब्दों की ताकत से बदल सकता है।
विश्वास नया नहीं है। हमारे यहां तो प्रभावोत्पादक छंदबद्ध और मनोयोग पूर्वक पढ़ी गई रचना को युगांतर कारी प्रभाव से युक्त माना जाता रहा है, जो निष्फल जा ही नहीं सकती। आधुनिक युग में यह जितने सटीक रूप में अल्लामा इकबाल पर घटित होता है किसी अन्य पर नहीं।
सुकवि की मुश्किल का कारण यह है कि वह वस्तु को भाव में बदल देता है, फिर भावगत परिवर्तन करके उसको दुबारा वस्तुजगत पर घटित मान लेता है। मनचाहा प्रभाव पैदा करने के लिए थोड़ी घालमेल भी कर लेता है, भावना के स्तर पर इसे हेराफेरी तक नहीं माना जाता, फिर भी इसका परिणाम तो भुगतना ही पड़ता है।
मुसलमानों को एक अलग राष्ट्र सिद्ध करने के लिए इकबाल ने जो तर्क दिया था उसमें इससे काम लिया गया था । इससे भी पहले जब सर सैयद ने दो कौमों की बात की थी उसमें भी घालमेल था। मजहब नश्ल नहीं हो सकता, रेस की धारणा मजहब से अलग है। दोनों में कोई मेल नहीं। परंतु राजनीतिक परिभाषाओं में बुद्धि काम नहीं करती, लाठी काम करती है, जिसकी लाठी उसकी भैंस। और लाठी का मतलब होता है, जिसको राज्य या सत्ता का समर्थन प्राप्त है, उसके हाथ का तिनका भी लाठी की ताकत रखता है और मान्य हो जाता है। जो लाभ सर सैयद को मिला था वही लाभ अल्लामा इकबाल को भी मिलना ही था, क्योंकि किसी भी बहाने से सामुदायिक भेद और विद्वेष तिनके को लाठी बनाने वाले की जरूरत थी।
हमारी शिकायत यह है कि जिस फ्रेंच दार्शनिक रैनाँ के बहुचर्चित व्याख्यान के एक अंश को उन्होंने मुस्लिम राष्ट्रवाद का आधार बनाया था, उन्होंने उसमें व्यक्त भावना का भी उल्लंघन किया था।
राष्ट्र और राष्ट्रीयता पश्चिम के लिए नई संकल्पनाएं हैं जो 19वीं शताब्दी में पैदा हुई और पैदा भी इतनी ऊर्जा लेकर हुई कि उसे संभालने की शक्ति उनके पास नहीं थी, इसलिए जितने काम की सिद्ध हुई उससे अधिक बदनाम हुई। नई उद्भावना होने के कारण इनकी व्याख्या अपनी सुविधा के अनुसार किया जाता रहा, और इसलिए जहां कुछ लोगों ने इसे बिल्कुल नई अवधारणा माना वहीं ऐसे भी लोग थे जिन्होंने इसे मानवीय इतिहास के आदिम चरण से विविध रूप लेते हुए आज तक विद्यमान सिद्ध किया।
गुरुत्वाकर्षण की ओर जिस दिन हमारा ध्यान गया उसी दिन वह पैदा नहीं हुआ। वह था, उसके परिणाम से हम प्रभावित थे, उसका उपयोग करते थे, परंतु इस नाम से न पहचानते थे, न पुकारते थे।
भारत के लिए यह शब्द भी बहुत पुराना है और इसकी भावना भी उतनी पुरानी है। भावना है समग्र की शक्ति का एक दिशा में उपयोग। प्राचीनतम रूप है, एक दल के रूप में विचारने वाले समूह। और इनको जोड़ने वाली ताकत है एक भाषा। ऋग्वेद मैं एक साथ चलने वालों को जोड़कर रखने वाली जमीन नहीं थी, उनका धर्म भी नहीं था, थी एक भाषा – अहं राष्ट्री संगगनी वसूनां मैं संदर्भ कुछ आगे का है, परंतु है भाषा के महत्व पर।
वृत्र से सुरक्षा प्रदान करने के लिए इंद्र को विश के द्वारा अधिपति चुनने का उल्लेख बाद का है। समय-समय पर कुछ बदलते हुए इसने अनेक प्रादेशिक और आंचलिक देशों को जोड़ने वाली संकल्पना के रूप में स्थान पाया और फिर यह छोटी इकाइयों वाले देशों के ऊपर एक विराट देश की कल्पना को जन्म देकर उसका पर्याय बन कर प्रयोग में आता रहा। इसमें जोड़ने का भाव था, किसी से शत्रुभाव न था।
हमारे लिए यह संतोष की बात यह है कि यूरोप की राष्ट्र की परिभाषा भी जोड़ने वाली ताकत के रूप में अलग अलग रूपों में परिभाषित होती रही। इन्हीं में से एक का उपयोग करते हुए इकबाल ने मुस्लिम राष्ट्रवाद की संभावना को प्रकट किया, परंतु यह भी स्वीकार किया यह एक चुनौती भरा काम है। इसके लिए असाधारण प्रयत्न की आवश्यकता है। अर्थात उसे पैदा करना है। और इसे पैदा करने के लिए वह भावना की जमीन पर किसानी करते रहे।
मोटे तौर पर हम राष्ट्रीयता की जिस परिभाषा से परिचित हैं उसमें इस भावना को पैदा करने के लिए मजहब, सजातीयता, भाषा और भौगोलिक क्षेत्र या देश का एक होना जरूरी था। अपनी सुविधा के अनुसार इनमें से कुछ को छोड़ दिया जाता था और नया तत्व जोड़ लिया जाता था। छोड़ने का परिचय रेनां की परिभाषा में मिलता है, जिसमें देश ही गायब कर दिया जाता है और जोड़ने वाले समान दुश्मन को भी जोड़ लेते हैं।
यह बात ध्यान देने की है कि राष्ट्र और राष्ट्रीयता की परिभाषा बदलने में पत्रकारों और आंदोलनकारियों की भूमिका अधिक प्रधान रही है और इसलिए उन्होंने अपनी क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुसार परिभाषा को बदला है।
फ्रेंच दार्शनिक अर्न्स्ट रेनां ने 1882 में अपने एक भाषण में (‘What is a Nation? delivered at the University of Sorbonne) राष्ट्रीयता की अर्थात् बहुत बड़े समुदाय की समग्र भावनाओं को एकदिश करने में देश या अंचल की भूमिका को अनिवार्य न मानते हुए यह भी संकेत किया था की राष्ट्रवाद एक तरह की गुलामी है जिसके लिए दूसरे तरीके अपनाए जा सकते हैं। परंतु इसके उदात्त पक्ष को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा थाः
A nation is the culmination of a long past of endeavours, sacrifice and devotion. A heroic past, great men, glory, that is the social capital upon which one bases a national idea. To have common glories in the past, to have a common will in the present, to have performed great deeds together, to wish to perform still more, these are the essential conditions of being a people. A nation is therefore a large-scale solidarity.
अल्लामा इकबाल इसे ही गोल कर गए थे। इसकी पूर्ति उस राष्ट्रीयता से ही होती थी या हो सकती थी जिसे कांग्रेस ने अपनाया था और जिससे अल्लामा इकबाल मुसलमानों को दूर ले जाना चाहते थे। मुसलमानों को ऐसा ही फिलॉस्फर मिलना था। भावना भड़काने की क्षमता वहां वैचारिक उत्कर्ष कैसे बन जाती है इसे न मुस्लिम समाज को समझाया जा सकता है न वे इसे समझने की जरूरत समझते हैं। यह हमारी जरूरत है कि हम किसी को दबाव से मुक्त हो कर पढ़ें और यह तय करना है कि इन गलतियों का इलाज तलाश करें।