और आगे अंधेरा है
चिंतक के पास वर्तमान होता है और वह भविष्य का निर्माण करता है। भविष्य एक व्यक्ति की इच्छा या उद्योग से संभव होता तो वह अपनी कामना का भविष्य बना लेता। भौतिक परिस्थितियों को विचारों से पैदा नहीं किया जा सकता। विचार उन्हीं के भीतर से पेदा होते हैं। विचारक उन्हीं के नियमों को पहचानते हुए, उन्हीं से तैयार किए गए उपकरण से उसे बदलने का प्रयत्न कर सकता है। इसी का दूसरा नाम विज्ञान है।
विचार सही था या गलत इसका निर्णय उसके अमल के बाद उसके परिणामों से होता है। इकबाल के व्याख्यानों, लेखों और वक्तव्यों के संपादक को भी पता नहीं था कि इकबाल के चिंतन का परिणाम क्या होगा। परंतु, वह मानता था और ठीक मांनता था कि Iqbal stands in the front rank of Muslim thinkers of all times and the Indian Muslims cannot at this juncture afford to ignore or lose sight of anything that the great sage has said. वह महान तत्वदर्शी थे या असाध्य मनोरोगी यह इतिहास को तय करना था, जिस पर 1944 में संपादक की नजर भी नहीं जा सकती थी, क्योंकि परीक्षण काल अभी आया नहीं था। मुस्लिम समाज जोश में अवश्य था, और इतिहास में ऐसे मौके भी आते हैं जब जोश को ही उपलब्धि मान लिया जाता है, अन्यथा कुछ बातें, तार्किक संगति या असंगति से प्रयोग से पहले ही समझी जा सकती हैं।
उदाहरण के लिए, जब इकबाल जो, अपने लेखों आदि में 71 बार हिंदुस्तानी मुसलमान का जिक्र करते हैं, और सही सरोकारों के साथ याद करते हैं, यह कहते हैं कि हिंदुस्तानी मुसलमान को अपने को हिंदुस्तानी मुसलमान नहीं कहना चाहिए, क्योंकि मुसलमान का देश नहीं होताः The expression Indian Muhammadan, however convenient it may be, is a contradiction in terms: since Islam in its essence is above all conditions of time and space. Nationality with us is a pure idea; it has no geographical basis.
तो उनको इस बात का आभास तक नहीं होता कि वह जिनको इस कथन से उत्तेजित कर रहे हैं उसे घर से बेघर बना रहे हैं, अपने देश से निर्वासित तो कर रहे हैं पर इसकी एवज में कुछ दे नहीं रहे हैं। उसे अपनी ही धरती पर भार, उसके प्रति गैरजिम्मेदार परजीवी और लिःसत्व बना रह् हैं। मुसलमान का यथार्थ से निरे खयाल में बदल जाना, देश ही नहीं काल से भी बाहर निकल जाना, जीवन है या मृत्यु। गुजर जाने का मुहावरा मरने वालों के लिए ही होता है और वही अपने समय के साथ नहीं रह पाते। कालातीत केवल प्रेत होते है जिन का आवेश जिन पर होता है, उन्हें प्रेतबाधित कहा जाता है, और उनका आचरण स्वयं उनके लिए ही सबसे अधिक अनिष्टकर होता है, दुखी दूसरे भी होते हैं। आश्चर्य होता है यह सवाल उनसे किसी ने पूछा क्यों नहीं और पूरा समुदाय उनको तत्वदर्शी मानकर उनके बताए रास्ते पर चलता रहा।
अधिकांश लोगों को इकबाल से इस बात की शिकायत है कि उन्होंने देश के विभाजन की नींव रखी। यदि इससे हिंदुओं को जो भी क्षति होती, मुसलमानों का हित होता तो मुझे कोई शिकायत न होती। उल्टे उनके प्रति सम्मान बढ़ जाता, जैसे युद्ध में या खेल में पराजित होने के बाद भी विजेता के प्रति सम्मान बना रहता है।
मुझे शिकायत इस बात की है कि उन्होंने मुसलमानों के बारे में सोचना आरंभ किया, उनके अच्छे भविष्य की रूप रेखा तैयार करते रहे, परंतु उसके जो परिणाम आए वे सबसे अधिक मुसलमानों के लिए अनिष्टकर रहे और उनके संरक्षण में हिंदुओं को उत्पीड़ित होना पड़ा। वह देश के विभाजन के जनक ही नहीं रहे, उन्होंने मुसलमानों के स्वाभिमान को जगाते हुए उनकी भावनाओं को उग्र करते हुए जिस अंधी गली की ओर मोड़ दिया उससे बाहर निकलने का रास्ता वे तलाश भी करना चाहें, तो कर नहीं सकते। वर्तमान जितना भी कष्टकर, भविष्य जितना भी निराशाजनक हो, इतिहास में पीछे लौटने की गुंजाइश नहीं होती। पीछे लौटने पर भी कोई जगह है ही नहीं।
मैं हिंदू होने के नाते इस्लाम के इतिहास पर न तो बहुत सही ढंग से सोच सकता हूं, न ही, यदि मेरे विचार सही हों तो भी, कोई मुसलमान उन्हें सही मान सकता है और यदि सभी हिंदू सही मान लें तो भी आत्मविश्वास नहीं पैदा हो सकता। प्रश्न पाले का है ही नहीं, प्रश्न तार्किक संगति का है। इकबाल मानवीयता की बात करते हैं, और इंसानों की बड़ी बिरादरी से कटकर मुसलमानों के बीच मानवता तलाशते हैं, भारत के दूसरे लोग उनको नजर ही नहीं आते। उनके निम्न टिप्पणियों पर ध्यान देंः
Does the Indian Muslim possess a strong will in a strong body? Has he got the will to live? Has he got sufficient strength of character to oppose those forces which tend to disintegrate the social organism to which he belongs? 71
The life-force of the Indian Muhammadan, however, has become woefully enfeebled. The decay of the religious spirit, combined with other causes of a political nature over which he had no control, has developed in him a habit of self-dwarfing, a sense of dependence and, above all, that laziness of spirit which an enervated people call by the dignified name of ‘contentment’ in order to conceal their own enfeeblement. 71
Truly economic dependence is the prolific mother of all the various forms of vice. Even the vices of the Indian Muhammadan indicate the weakness of life-force in him. Physically too he has undergone dreadful deterioration. If one sees the pale, faded faces of Muhammadan boys in schools and colleges, one will find the painful verification of my statement. Power, energy, force, strength, yes physical strength, is the law of life. 72
पराधीनता और आर्थिक दुर्गति से क्या भारत के सभी निवासियों की यही स्थिति नहीं थी। वह समूचे भारतीय समाज में इसकी चेतना पैदा करने की जगह केवल मुसलमानों में पैदा करना चाहते थे, और फिर भी मानवीयता की बात करते थे। असलियत यह है कि वह आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं का समाधान उन क्षेत्र में न करके, धर्म के क्षेत्र में करना चाहते थे। कवि के 100 खून माफ होते हैं, वह तुक में अपनी बात करता है, महाकवि के हजार खून माफ किए जा सकते हैं, लेकिन उसके किए का फल तो हमें ही भोगना पड़ता है और भोगना पड़ा है।
मुसलमानों में एकता कायम करने के लिए उन्होंने जिस नए मुसलमान की बात की थी, वह गढ़ने और जोड़ने से अधिक, उन्हें तोड़ने, अभी जो कुछ है वैसा न रहने देने का संकल्प है। हम अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मुसलमानों के एक शुद्धतावादी समुदाय अहमदिया को ले सकते हैं। एक मुस्लिम राष्ट्र बनाने के लिए उनके सामने जो चुनौती थी वह इसमेंकिस रूप में प्रकट होती हैः
Personally, I became suspicious of the movement when the claim of a new
Prophethood, superior even to the Prophethood of the Founder of Islam, was definitely put forward, and the Muslim world was declared Kafir. Later my suspicions developed into a positive revolt when I heard with my own ears an adherent of the movement mentioning the Holy Prophet of Islam in a most disparaging language. Not by their roots but by their fruits will you know them.
हम उनकी सलाह मानते हुए इसीलिए उनके परिणामों से आंकना चाहते हैं। यदि इनके विचारों में परिवर्तन लाकर मुसलमानों के बीच, उन्हें एक रास्ता बनाने के लिए, एकता लाई जा सकती थी या इस दिशा में कोई कोशिश या नतीजा दिखाई देता तो मेरे मन में, एक चिंतक के रूप में, इकबाल के प्रति सम्मान पैदा होता । अहमदिया हों, या कादियानी, या शिया सुन्नी विभेद, उलकी कविता के दौर के इतने साल बाद भी तनाव में कहीं कोई कमी नहीं आई । इस्लामिक मानवीयता की इक़बाली योजना में हिंदू से मुसलमान हुए और फिर भी हिंदू समाज से कुछ नाते रिश्ते रखने वालों को अधिक कट्टर मुसलमान अवश्य बनाया गया। पहले के सद्भभाव को कम भेद को अधिक पुख्ता बनाया गया और फिर भी इकबाल को कोई नहीं कहेगा कि वह तबलीग के समर्थक, तालिबान के जन्मदाता और मुस्लिम समाज में असहिष्णुता बढ़ावा देते हैं।
एक वाक्य में कहें तो वह भारतीय समाज को और भारतीय भूभाग को बांटने में तो समर्थक हुए ही, मुसलमानों को पहले से अधिक बांटने का अपराध उन्हीं के सिर आता है।
मुसलमानों की अपनी समझ से उनके हिस्से में एक बड़ा भाग आ गया और जो बचा था उसमें बचे भी रह गए परंतु इंसान के रूप में उनको बचाने के लिए भारत की ही जरूरत थी जहां सभी मतों के मुसलमान सुरक्षित हैं जबकि उनके सपने के विश्वव्यापी इस्लाम में एक को छोड़ किसी दूसरे मुसलमान के लिए जगह नहीं है। पाकिस्तान में अहमदिया मुसलमान हैं मुसलमान नहीं माने जाते,
“But why did they declare you non Muslim? What were the pressures on them?”
“ you must ask Benazir Bhutto. Benazir will tell you why her father declared us non Muslims. he was very friendly with us and then he went and did that.” Mr. Sherwani, to V.S. Naipaul, Among the Believers, p.108
ईरान में सुन्नी और सुन्नी देशों में शिया मुसलमान नहीं माने जाते। कुर्दों को सुन्नी और शिया दोनों मिटाने पर आमादा हैं। अनीश्वरवादियों के लिए किसी मुस्लिम देश में जगह नहीं है। परंतु कड़वे और कषैले अनुभव के बाद भी भारत में सबके लिए जगह है। बिखरों को जोड़कर रखने की क्षमता, जिसे राष्ट्रीयता कहते हैं केवल भारत में भारतीय समाज के कारण है, हिंदुओं के कारण है। जिस उदार देशहीन राष्ट्रीयता की कल्पना पश्चिमी समाज नहीं कर पाता उस की संभावना ही नहीं उसका जीवन्त प्रमाण भारत में है जिससे पश्चिमी जगत ने भी कुछ सीखा है अन्यथा उनके सनकी राष्ट्रवाद और पवित्र ईसाइयत में संकटग्रस्त मुसलमानों को शरणार्थी बना कर रखने को भी दूसरा कोई देश भारत के संपर्क में आने से पहले तैयार नहीं होता।
इकबाल ने मुसलमानों को बेहतर मुसलमान बनाने की जगह कृतघ्न बनाया और ठीक उस मुकाम पर जब खनिज तेल से अर्जित संपन्नता से स्वयं को और दुनिया को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने की भूमिका निभा सकते थे, ऐसे जज्बाती मसीहाओं के हाथ में पड़ कर वह नई दासता का शिकार हो गया। दूसरे देशों में पिछड़ापन था भारत के मुसलमान अपनी संख्या और संस्कृति के बल पर उनको नई दिशा दिखा सकते थे परंतु, अपने कार्य भार को निभा नहीं सके।