मैने आगे जोड़ा, “एक अन्य मित्र हैं, जिन्होंने 19वीं शताब्दी में हिंदी को लेकर हुई खींचतान का विवेचन करते हुए यह नतीजा निकाला कि नागरी लिपि की वकालत करने वाले भारतेंदु और दूसरे लोग सांप्रदायिक थे और अरबी लिपि और फारसी अरबी बोझिल उर्दू (शरीफों की जबान) के प्रचलन की वकालत करने वाले सर सैयद अहमद खान सेक्युलर।”
“अरे यार, तुम यह क्यों नहीं देखते कि भारतीय बुद्धिजीवियों – अध्यापकों, पत्रकारों, लेखकों में से भी अधिकांश की राय इसी से मिलती जुलती है। उनके बीच समझदार माने जाने की अनिवार्य शर्त है कि आप उनके निष्कर्ष से सहमत हैं। वे सोचते हैं, जिस आदमी की समझ में इतनी मोटी बात न आती हो कि हमारी दशा दूसरे समाजों से अधिक बुरी है, और इस समाज का बहुसंख्यक हिंदू है, इसलिए उसके बुरा हुए बिना यह संभव नहीं, उससे अधिक नासमझ कौन हो सकता है। यदि वह नासमझ नहीं है, तो पाखंडी है। ऐसे लोगों से संपर्क रखना, उनकी बातें सुनना, या संवाद करना तक गुनाह है। बौद्धिक अस्पृश्यता का यह नया संस्करण भारतीय सेकुलरिज्म की एकमात्र उपलब्धि है।”
मैं सहमत हो गया, “तुम ठीक कहते हो। बौद्धिक जगत में स्वयंसिद्धि का रूप ले चुके इन विचारों से मेल खाती कोई जानकारी है तो ही वह प्रामाणिक हो सकती है। अनमेल है तो वह विद्वान, ज्ञान की वह शाखा, सूचना का वह माध्यम, वह अनुसंधान, वे प्रमाण सभी संदिग्ध हैं। उदाहरण के लिए पुरातत्व हिन्दुत्ववादी है, जनगणना के वे आंकड़े जिनसे यह सिद्ध होता है कि आबादी में मुसलमानों की जन्म दर में होने वाली वृद्धि दूसरे समुदायों की तुलना में अधिक है वह हिंदू संप्रदायवादियों का दुष्प्रचार है। हिंदू संप्रदायवाद कितनी तेजी से बढ़ता हुआ संस्थाओं में भी प्रवेश करता जा रहा है इसका यह प्रमाण है। कोई दूसरा चारा न होने पर यदि मान लें कि वह सही है, तो भी उसे सही मानना हिंदुत्ववादियों के हाथ में खेलने जैसा है, इसलिए जो अकाट्य है, वह भी, सच होकर भी, मान्य नहीं है। सजदावादी बौद्धिकता का ऐसा नमूना विश्व इतिहास में ढूंढ़े न मिलेगा।
“हमारे शिक्षित और बुद्धिजीवी वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसकी पैतृकता हिंदू है, परंतु वह अपने को हिंदू कहने में लज्जित अनुभव करता है। इसकी प्रतिक्रिया यह है कि हिंदुत्व की रक्षा के लिए चिंतित नेता हिंदुओं से अपने को गर्व से हिन्दू कहने को कहता है, और उपहास का पात्र बनता है। बनना भी चाहिए। वह यह तक नहीं जानता कि अपने को गर्व से हिंदू या मुसलमान कहने का मुहावरा किसका है? वे यह भी नहीं जानते कि इसका इस्तेमाल जिन्ना ने अपने मुसलमान होने के सन्दर्भ में किया था। वह सच्चा मुसलमान होने की कसौटी खरे नहीं उतरते थे, पोर्क से उन्हें परहेज न था। इसलिए अपने को गर्व से मुसलमान कहना उनकी जरूरत हो सकती थी । गांधी को चुनौती देते हैं कि जैसे वह गर्व से अपने को मुसलमान कहते थे, उसी तरह गर्व से वह अपने को हिंदू क्यों नहीं कहते। गांधी ने कभी अपने हिंदू होने की बात को छिपाया नहीं । राम राज्य की बात तो वह पहले से ही करते आए थे। जिन्ना का उद्देश्य कांग्रेस को हिंदू संगठन सिद्ध करने का था, न कि हिंदू या मुसलमान होने पर गर्व करने का।
“स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से आज तक हमारी मुख्य समस्या शैक्षिक और आर्थिक विकास की न रह कर सामाजिक मेलजोल की बनी रही है। आज इसकी मांग इतनी बढ़ गई है कि कुछ लोगों को लगता है कि जब तक इसका समाधान नहीं हो जाता दूसरी समस्याएं रुकी रहें। वे छोटी से छोटी घटना को एक सुर से इतना विस्फोटक बना देते हैं कि अधिक जरूरी समस्याओं की ओर ध्यान ही नहीं जाता। केवल भाव तेजी से बढ़ने पर महंगाई, अराजकता बढ़ने पर शांति और व्यवस्था, चुनाव आने पर रोजी-रोजगार को समस्या बनाया जाता है। इकहत्तर वर्षों के इस वर्णांध अभियान में समस्या का समाधान निकालने की कोशिशों के साथ हम गलत दीवारों से टकराते हुए समाधान के नाम पर भी अपना सर ही फोड़ते रहे हैं।
“हम भी यही कर रहे हैं इस पर सोचना होगा। इस पर बहस की जरूरत नहीं है। बहस का कोई मतलब तक नहीं रह गया है। सभी के पास समझाने को बहुत कुछ है, समझने को कुछ नहीं। विचार इतने ठोस हो चुके हैं, कि उन्हे पत्थर की तरह चला कर विरोधी का सिर फोड़ा जा सकता है, पर समझाया नहीं जा सकता। कुछ भी लिखो, न कोई ध्यान देने वाला है, न कोई अंतर आने वाला है । हां, तुम्हारे नाम से एक और किताब अवश्य तैयार हो जाएगी। और कुछ नहीं होने वाला।”
“मेरी समझ इससे ठीक उल्टी है । हमने लंबे समय तक आंदोलन करते हुए बौद्धिक निर्वात पैदा कर लिया है जिसमें प्रतिबद्धताओं के खूंटे दिखाई देते हैं, विचारों की प्राणवायु नहीं। हमने संप्रदायों की राजनीति की है, उनको समझने या उनका विश्लेषण करने का प्रयत्न नहीं किया। हमारे आंदोलन में ही एक तरह का कामचलाऊपन था। इसके कारण ही विकृतियां पहले से अधिक उग्र हुई हैं। गांधी जी ने सिर्फ एक अवसर पर छात्रों की राजनीतिक भागीदारी की अपेक्षा की थी आज छात्रों के लिए पढ़ने की जगह राजनीति करना अधिक जरूरी हो गया है। समझदार कहे जाने वाले अध्यापकों का भी मानना है कि छात्रों को कूप मंडूक बनने से बचाने के लिए उनको राजनीति में झोंकना जरूरी है ।”
वह मुझसे सहमत न था, “लोकतंत्र में सबको मताधिकार मिला है इसलिए इसकी जिम्मेदारी को समझने के लिए राजनीतिक चेतना और शिक्षा जरूरी है। सच कहो तो राजनीति की समझ, उसकी जिम्मेदारी का बोध राजनीतिज्ञों तक में नहीं है, क्योंकि उन्हें इसकी शिक्षा मिली ही नहीं।”
“छात्रों को शिक्षित नहीं किया जा रहा है, उनका राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसी राजनीति ऊंची शैक्षिक योग्यता के अभाव में अधिक सफलता से की जा सकती है। सबसे बड़ी राजनीति है अपने को समर्थ बनाना, और यह अपने विषय के आधिकारिक ज्ञान से ही संभव है। राजनीति का दूसरा काम है यदि स्वतंत्र नहीं हैं तो स्वतंत्रता प्राप्त करना, यदि स्वतंत्र हो चुके हैं तो उसकी रक्षा करना। हम पांवों की बेड़ियां तोड़ चुके हैं, पर दिमाग की बेड़ियां पहले की तुलना में अधिक मजबूत हुई हैं। बौद्धिक परजीविता के चलते हम बौद्धिक विकलांगता के शिकार हो चुके हैं जिसमें हमारे संवेदी तंतु तक इतने कुंद हो चुके हैं कि विकलांगता को विकलांगता नहीं मानते, अपनी उपलब्धि मानते हैं। हमें गहराई में उतर कर इस बात की पड़ताल करनी होगी कि शिक्षा का हुड़दंगीकरण किसी साजिश के तहत तो नहीं किया जा रहा है? इस गिरावट का वास्तविक आधार क्या है?”
”तुम इतनी सारी समस्याओं का निपटारा करने जा रहे हो तो नाम भी उसी जैसा धाकड़ होना चाहिए था। खैर, यह भी भारतीय परंपरा में खप जाएगा। यहां तो गजानन की सवारी चूहा है, यह विद्रूप तक किसी को हैरान नहीं करता।”
मैंने उसकी फिकरेबाजी पर ध्यान नहीं दिया, “सबसे पहले हम उस निष्कर्ष को सही मानकर उसका परिणाम देखें जिसका कई रूपों में प्रचार किया जाता रहा कि सारा दोष हिंदुओं का है। यदि यह हिंदू के कारण है तो इसका एक आसान उपाय यह है कि भारत को हिंदू या हिंदूबहुलता से मुक्त कर दिया जाए। परिणाम क्या होगा ? हमारी दशा बांग्लादेश या पाकिस्तान जैसी हो जाएगी। परंतु तब वे भी कहेंगे कि हिंदुओं के न होने या अल्पसंख्यक होने के कारण भारत की दशा पाकिस्तान या बांग्लादेश जैसी होती जा रही है।”
वह चुप रहा।
“अर्थात् वे भी मानते हैं कि इन देशों की दशा भारत की तुलना में बहुत बुरी है और अपने काल्पनिक प्रयोग में हमने पाया हिंदू को हटाते ही या उसके अल्पसंख्यक होते ही ही हमारी दशा उन देशों जैसी हो जाएगी जिनसे देश को बचाने की चिंता उनको भी है। वे भी मानते हैं यदि भारत की दशा वैसी नहीं है तो इसका एकमात्र कारण यह है कि यहां हिंदू बहुमत में है।
“हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर गए बिना भी नहीं रह सकता कि इस श्रेणी में आने वाले वाचाल लोगों में अधिकांश प्रसादग्राही रहे हैं, अथवा इसकी जुगत में रहे हैं। उन पर अधिकस्य अधिकं फलं का नियम भी लागू होता है, जो उनके उत्साह को कायम और आवाज़ को बुलंद रखने में सहायक रहा है। हम उनके निर्णय को मानने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमारी समस्याएं उल्टी सोच के कारण हैं। इसके ही कारण मुस्लिम समाज में असंख्य विकृतियों के होते हुए भी यह मानसिकता पैदा हुई है कि वे विकृतियां नहीं धर्माचार हैं और मुस्लिम कट्टरपंथी को यह प्रमाणपत्र मिल जाता है कि हिंदू बुद्धिजीवी भी उन्हें विकृति नहीं मानते और स्वीकार करते हैं कि सारी विकृतियां हिंदू समाज में हैं।
भारत पर तलवार से आक्रमण करके मुसलमानों को उतनी बड़ी विजय कभी न मिली जितना बड़ी विजय स्वतंत्र भारत में प्रसादग्राहियों के कारण मिली है। हिन्दू यशप्रार्थियों को सेक्युलर का प्रमाणपत्र वह बांटता या वापस लेता है जो हिंदू नहीं है। सेक्युलर छवि को बचाने को चिन्तित मित्र कुछ भी कहने या लिखने से पहले यह सोचते हैं कि उसके परिचित मुस्लिम मित्रों की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी। अर्थात् वह उनका conscience keeper बन चुका है।
कुछ मुसलमान भारत में बाहर से आए, शासन किया यह इतिहास का सच है परन्तु यह भारतीय मुसलमान स्वतंत्र भारत के प्रसादग्राहियों, सहमकर सोचने वालों और समवेत आतंक के आगे घुटने टेकने वालों की रचना है जो कट्टर इस्लामी देशों मे आए सुधारों का भी विरोध करता है।