Post – 2018-12-04

डरते हुए (अगली कड़ी)
उसने मुझे हताश करने का एक नया तर्क ढूंढ़ लिया, “तुम कह रहे हो कि तुम पिष्टपेषण करने जा रहे हो। इस विषय पर पुस्तक पहले ही सुलभ थी, इसके बाद भी… ” उसने वाक्य को अधूरा छोड़ दिया। कुछ लोग समझते हैं कि अधूरे वाक्य प्रायः पूरे वाक्यों से अधिक असरदार सिद्ध होते हैं और चुप्पी जबान से काम लेने वालों पर भारी पड़ती है।
“कोई कथन या लेखन अदालती फैसला नहीं होता, मात्र एक विचार होता है। वह पेशे से पत्रकार थे और तुम जानते हो, पत्रकार पत्रकारों को दुनिया का सबसे प्रबुद्ध प्राणी मानते हैं, क्योंकि किसी भी घटना की जानकारी दूसरों से पहले उन्हें मिलती है। उन्होंने उर्दू तथा दूसरी भाषाओं में मुस्लिम लेखकों-पत्रकारों ने जो कुछ लिखा था उसी के आधार पर उनकी मानसिकता को समझ कर उन्होंने अपनी पुस्तिकाएं लिखीं।”
“इसमें गलत क्या है?”
“यह किसी समस्या को समझने का सबसे आसान और उतना ही सतही तरीका है। विशेषतः सामाजिक प्रश्नों पर और वह भी भारत में, जहां सामाजिक सवालों पर निजी सोच और सार्वजनिक कथन में काफी अंतर होता है। फिर किसी एक पक्ष के असंतोष या आरोप के आधार पर बनाई गई राय अपने इकहरेपन के कारण ही भरोसे की नहीं होती। फिर दूसरे पक्ष के विषय में यह मान लेना कि हम उस समुदाय के हैं इसलिए उसके बारे में सब कुछ जानते हैं, भ्रामक भी है, और उस समुदाय का अपमान भी, क्योंकि इसके साथ ही आप उसे समाज नहीं, यंत्र मानवों का कारखाना मान बैठते हैं।”
“मुसलमानों के साथ बनाकर रहने का सबसे सही तरीका यही है कि वे अपने बारे में जो कुछ मानते हों उसे ही उनका सच मान लो। वह किस नतीजे पर पहुंचे थे, यह बता सको तो बता सकता हूं कि वह ठीक थे या गलत।”
“उनका निष्कर्ष था, मुस्लिम अच्छे होते हैं. बुराई हिंदू समाज में है।”
उसने उसने मेरी पीठ पर धौल जमाते हुए कहा, “ठीक, बिल्कुल ठीक। मुसलमान कभी गलत नहीं होता। यदि विज्ञान किसी ऐसी बात को गलत सिद्ध करता है जिससे मुसलमान का भावनात्मक लगाव है तो भी मुसलमान गलत नहीं होगा, विज्ञान गलत हो जाएगा। और देखो, हिंदू तभी तक सही होता है जब तक वह मानता है, वही सारी बुराइयों की खान है। यही हमारी परंपरा है – मो सम कौन कुटिल खल कामी। मो सम बुरो न कोय। वह बाहर तलाशता है तो भी कोई बुरा आदमी दिखाई नहीं देता। यदि दीख गया पतितों में सर्वोपरि होने का उसका अभिमान चूर चूर हो जाएगा। जिस लेखक से तुम्हें शिकायत है कि हिंदू कुल का जनमिया हिंदू से अनजान, वह हिंदुत्व को तुमसे अच्छी तरह समझता था, जब कि तुम इसमें घुसपैठिए जैसे लगते हो।”

मैंने कहा, “ऐसा सोचने वाले वह अकेले नहीं हैं। मेरे दो अन्य मित्र जो पुलिस विभाग में उच्चतम पदों पर रहे हैं, वे भी अपने अनुभव से उसी नतीजे पर पहुंचे थे।”
“सचाई की परख ऊंचाई से नहीं होती। समाज की मानसिकता को समझने के लिए पद की ऊंचाई का कोई महत्त्व नहीं, या यदि है तो उल्टे क्रम में। एक गश्ती अफसर का लोगों के बीच अधिक घुलना मिलना होता है, अफसरों तक कम लोगों की पहुंच हो पाती है। जो पहुंचते हैं, वे रिश्तों, नातों, पहुंच और बटुए के साथ पहुंचते हैं और वे स्वयं कुछ नहीं कहते, बोलता वह है जिसके साथ पहुंचते हैं। उसमें सच्चाई को उजागर करने का भ्रम और सच्चाई पर पर्दा डालने का प्रयत्न अधिक होता है।”
उससे सहमत होने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं बचा था, “ठीक कहते हो । पर क्या किसी गश्ती सिपाही को रिपोर्ट लिखते देखा है?”
“तुम भले हो, पर गधे हो, यह न मानता तो हमारी दोस्ती कैसे निभती। कहते हैं, समझदार दुश्मन भी मूर्ख दोस्त से अच्छा होता है। इसीलिए हमारी किसी मसले पर पटती नहीं। मैं सच तक पहुंचने की चिंता में हूं, तुम सच के नाम पर कुछ पेश करने वालों के बहकावे में रहना चाहते हो।”
वह एक पल के लिए रुका। संभवतः मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिए। मैं चुप रहा।
“फिर भी बड़े पदों पर बैठे लोगों को यह विश्वास होता है कि उनकी सोच बड़ी है।, रपट और पुस्तक लिखने की योग्यता उनमें से ही कुछ के पास होती है। बड़ों की बात बड़ों ने किस्सों से लेकर मुहावरों तक में मानी है, इसलिए उनका निष्कर्ष लोग सिर माथे रखते हैं। पर देखना पेश करने से अधिक जरूरी काम है। किताब लिखने वाला, लिखी सामग्री पर भरोसा करेगा, भले ही उसे उसकी सत्यता पर संदेह हो, क्योंकि उसे अपने कथन के समर्थन में प्रमाण चाहिए। सच्चाई तक पहुंचने वाला देखने का प्रयत्न करेगा या देखने वाले के पास पहुंचेगा। उसके लिए पद नहीं, प्रत्यक्षदर्शी अधिक भरोसे का होता है।”
तभी मुझे याद आया, उन अफसरों की यह राय समाज को लेकर नहीं थी। वे पुलिस बल के संप्रदायीकरण की बात करते हैं। मैंने अपनी भूल स्वीकार की तो वह ठहाका मारकर हंसने लगा, “हवा में बात करते हो और लिखते भी हवा का रुख देख कर हो । तुम्हारा जवाब नहीं। लेकिन यह समझ लो कि वे दोनों अफसर अपने विभाग का इतिहास तक नहीं जानते। सशस्त्र बलों को सांप्रदायिक बनाने की कोशिशें औपनिवेशिक युग की देन हैं। उनको समाज को बांट कर रखना था, पुलिस और फौज के बल पर ही शासन करना था, इसलिए इसका गठन भी नस्ली और सांप्रदायिक आधार पर करते रहे। इससे एक से खतरा लगे तो दूसरे का इस्तेमाल करते रहते थे । इसे बदलने की कोई कोशिश स्वतंत्र भारत में भी नहीं हुई। वे समझते हैं कि यह प्रवृत्ति अभी हाल में पैदा हुई है। रपट लिखने वाले समस्या से अधिक अपनी जरूरत की समझ रखते हैं। तुमने पता लगाया, उन्हें इसकी प्रेरणा कहां से मिली थी? जैसे दादी की कहानियों के दानव के प्राण दूर देश के किसी सुग्गे में बसते थे, उसी तरह कुछ लेखकों के प्राण दूर देश या पराए समाज की आकांक्षाओं में बसते हैं जिसे वे प्रेरणा कहते हैं। देव और दानव का एक मामूली सा अंतर है। एक के प्राण उसकी छाती में होते हैं जिसका दूसरा नाम अपना समाज है और दूसरे के दूर या अपरिचित देश के ऐसे कमजोर प्राणी में जिस तक पहुंच सको तो वह न अपना टेंटुआ बचा सके न दानव की जान।” मुझे कोई जवाब न सूझा और इसका लाभ उठा कर वह फिर चालू हो गया, “टेंटुआ का मतलब जानते हो न । वह कंठ जिससे टें टू की आवाज ही निकलती हो, बाकी सब मालिकों का पढ़ाया हुआ जुमला हो।”
मैं फिर भी चुप रहा। या यदि कुछ कहा तो वह भी चुप्पी का ही एक रूप था, “मुझे इसकी जानकारी नहीं।”
“जानकारी तुम्हें नहीं, उस विषय पर लिखने से पहले, इसकी जानकारी उन्हें होनी चाहिए थी। और अब जब तुम उन्हें प्रमाण मानकर कुछ लिखने चले हो तो इसकी जानकारी तुम्हें भी होनी चाहिए। इतिहास पूर्ण वर्तमान है, प्रेजेंट परफेक्ट। चालू वर्तमान अपूर्ण वर्तमान है, परिणाम क्या होगा, भविष्य की दिशा और दशा क्या होगी निश्चित नहीं। हमारा भविष्य भी अपूर्ण वर्तमान के परिणाम का अनुमान ही है।”