Post – 2018-12-03

डरते हुए
मैंने बताया, मैं भारतीय मुसलमान की मानसिकता पर लिखना चाहता हूं तो मेरे मित्र के मुंह से निकला, “कोई और विषय नहीं है, लिखने को?”
“मैंने उत्तर देने की जगह प्रश्न किया, “यदि किसी अन्य विषय पर लिखता, तो भी, क्या तुम यही प्रश्न नहीं कर सकते थे? कुछ न करने वालों को कोई भी काम शांति में खलल मालूम होता है।”
“तुम जानते हो, यह विषय बहुत संवेदनशील है।”
“जानता हूं। यह भी जानता हूं कि तुम्हारी इसी सोच ने इसकी संवेदनशीलता को संवेदनहीनता तक पहुंचाया है।”
मेरी बात उसकी समझ में न आई।
“किसी समाज को पूरा का पूरा, किसी सांचे में ढाल कर देखना, सबको एक मिजाज का मानना और उनकी निजता को नकारना एक तरह की क्रूरता है। तुम उसे आदमी नहीं, हिंस्र प्राणी के रूप में देखते हो। तुम उससे बच कर रहना चाहते हो, चेतना के स्तर पर उसे मिटा देते हो। इस तरह तुम्हारे सटे पास हो कर भी ज्ञान और संवेदन के स्तर पर उसका अस्तित्व तक नहीं होता। तुम उसे अपनी आंखों से नहीं देखते, अपने डर से देखते हो । इस नासमझी के कारण तुम्हें उसके जिस व्यवहार का सामना करना पड़ता है, उसके आगे पीछे के तर्क को नहीं समझ पाते। किसी को अतिसंवेदनशील मान कर उससे बचना, उससे परहेज करना, उसके चरित्र से अधिक तुम्हारे चरित्र को सामने लाता है। यह अपने से भिन्न लोगों को समझने मे तुम्हारी असमर्थता को प्रकट करता है और उसे भी वैसा बनने में या बने रहने में योगदान भी करता है।“
उसने सुना। एक एक शब्द का अर्थ उसे पता था। उसका ध्यान भी मेरी बात पर था, इसके बाद भी, वह मेरी बात नहीं समझ पाया। कहा कुछ नहीं, सूनी आंखों से मुझे देखता रहा। उस सूनेपन में कई प्रश्न थे। कई हताशाएं। हताशा और प्रश्न एक दूसरे के पर्याय बन गए थे। मुझे अपने विषय को लेकर कोई चिंता नहीं थी, परंतु उसकी पस्ती ने मुझे चिंतित कर दिया।
मेरा मानना है कि हम जिनके साथ रहने को बाध्य हैं उनकी गतिविधियों की ओर से असावधान नहीं रह सकते, वे अपने परिवार के सदस्य ही क्यों न हों। इस तरह की उदासीनता उनके अस्तित्व का निषेध है। कुछ स्थितियों में यह उन्हें अपमानजनक लग सकती है। इससे अपने सगे भी विद्रोही हो सकते हैं। यदि उन्होंने कोई ऐसी छूट ली है जिसके विषय में उन्हें विश्वास है कि वह तुम्हारी नजर में अक्षम्य है, और यह भी पता है कि इसका पता आपको चल चुका है, तो तुम्हारे आपत्ति न करने को अपनी उपेक्षा मान कर केवल स्वाभिमान के तकाजे उसे दुहराते हुए तुम्हारे धैर्य की परीक्षा लेते हुए इतने बिगड़ सकते हैं कि जब तक तुम कुछ करने की सोचो तब तक स्थिति संभाल से बाहर हो जाए। जिन लोगों ने वर्ड्सवर्थ के प्रकृतिवाद का कायल हो कर अपने बच्चों को बिना किसी हस्तक्षेप के स्वतंत्र विकास के प्रयोग किये हैं, उन्होंने उनको बददिमाग, स्वार्थी, पितृद्रोही और परजीवी बनाने में स्वयं उनकी मदद की है। उनका जीवन बर्वाद करने के लिए वे स्वयं उत्तरदायी हैं। यह प्रकृतिवाद भी नहीं है। सभी प्राणी अपने शिशुओं को सिखाते और चूक होने पर दंडित करते हैं, भले वह दंड चेतावनी के लिए हो, पीड़ित करने के लिए नहीं। किसी से मित्रता के लिए उसको खुश रखने की कोशिश में अपनी ओर से वह सब करते जाना जो आपके खयाल से उसे पसंद है, उसकी आदत बिगाड़ना भी है, उसे अपने अपमान के लिए उकसाना भी है, मित्र से हट कर दास की भूमिका में आना भी है, और जाहिर हैं, मैत्री को खोना भी है। यह आपकी मनोरुग्णता – आत्मपीड़न – का प्रमाण भी है। मित्रता की अनिवार्य शर्त है, समकक्षता। रियायत देने वाला विजेता को जीत के आह्लाद से ही वंचित नहीं करता, आरंभ से ही प्रतिभट को कनिष्ठ मान कर उसका तिरस्कार भी करता है। इसकी क्षतिपूर्ति वह उसका अपमान करके ही कर सकता है।
“जब हम भारतीय मुसलमान की बात कर रहे हैं तो हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि इसके निर्माण में हमारी क्या भूमिका रही है। हम इस पर अपनी राय पेश करने की जगह सभी से आत्म-निरीक्षण का अनुरोध ही कर सकते हैं।
“पर कुछ ऐसे भी संबंध होते हैं, या उनके कुछ ऐसे पहलू होते हैं, जिनके विषय में हम अधिक जानने से बचते हैं, कुछ जान भी गए तो उसे स्वीकार करने से बचते हैं। हाल यह है कि लोग अपने स्वास्थ्य की पूरी जांच कराने से भी डरते हैं कि कहीं किसी ऐसी बीमारी का पता न चल जाए जो जानलेवा हो। हम सभी के भीतर एक शुतुरमुर्ग छिपा होता है जो आपदा का सामना आंख बंद करके करना चाहता है। अर्जित और विवशतालभ्य अज्ञान के परस्पर काटने वाले दायरों के बीच जो थोड़ी सी जगह बचती है, वही हमारी जानकारी का अपना दायरा होता है जिसमें ज्ञातव्य के भी अधिकांश से हम अनजान या असावधान होते हैं।
“इसी का परिणाम है कि लगभग एक हजार साल से एक दूसरे से रगड़ खाते हुए जीने के बाद भी हिंदू मुस्लिम समाज से कई तरह के लगावों के बाद भी, कुछ पहलुओं के बारे में, उतना भी नहीं जानते जितना पश्चिमी समाज के बारे में। कारण, हम मानसिक और भावात्मक परदों के साथ मिलते है, विश्वास के क्षणों में भी आशंकाओं को छिपाते हुए मिलते हैं। पश्चिमी समाजों में तर्कवादी दौर के बाद जो खुलापन आया वह हमारे भीतर नहीं आ पाया। अज्ञान और असावधानी से हम उन दुष्परिणामों से नहीं बच पाते जिनके डर से उनको और उनके कारण को जानने से डरते हैं। इस अज्ञता के चलते वे अपेक्षा से पहले और अधिक उग्र रूप धारण करके आते हैं, जब बचाव के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। जानना मुक्त होना है, यह मुहावरा पुराना है। आदमी मुक्त होने से भी डरता है, यह एक सचाई है।”
मुझे अध्यापन का अवसर नहीं मिला इसलिए अवचेतन में बसी मेरी इस अतृप्ति के शिकार अक्सर मेरे मित्रों को होना पड़ता है, “मुसलमानों के साथ हमारा व्यवहार कुछ कुछ ऐसा ही रहा है। इस अपरिचय को दूर करने के लिए एक मित्र ने भारतीय मुसलमान नाम से पुस्तिकाएं लिखी थी । उसका कितना स्वागत हुआ यह जानने का अवसर तो हिंदी के प्रकाशक देते ही नहीं, पर यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि किसी ने उसका बुरा नहीं माना। हमें संवाद बनाए रखने के लिए, सबसे पहले, लंबे समय से चली आ रही, चुप्पी को तोड़ना होगा।”