Post – 2018-11-28

मैं आजकल जो लिख चुका हूं उसका संपादन कर रहा हूं। इस क्रम में कुछ बदलाव आते हैे। उनकी एक बानगी इस प्रकार हैः

अविश्वास की विरासत
भारत के पूरे इतिहास में, राजाओं, सामंतों, मठाधीशों के बीच लड़ाइयां होती रही हैं। कहें जिनके पास सत्ता या संपदा रही है वे उसका विस्तार भी चाहते थे और इसके चलते उनमें एक दूसरे से ठनती रही है। जनता या मतावलंबी आपस में लड़ने लगें यह इस्लाम के आने के बाद भी मुसलमानी शासन काल में भी कभी नहीं हुआ। यह अंग्रेजी कूटनीति की विरासत है जिससे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नीतिगत बदलाव से मुक्ति पाई जा सकती थी, परंतु कुर्सी पर बैठने वाले बदले थे। नीति, नियम, न्याय, मिजाज और भाषा कुछ नहीं बदली। यदि बदलाव की सुगबुगाहट आरंभ हुई तो 1967 में अधिकाश राज्यों में कांगेस की हार के बाद। परंतु बांटो और राज करो की नीति पर अधिक निर्द्वंद्व होकर अमल जारी रखा गया। इस नीति से कांग्रेस को अपने वोट बैंक तैयार करने में ही मदद नहीं मिली, विरोधी दल यदि कभी सत्ता में आए तो उनके भीतर कनिष्ठों की महत्वाकांक्षाएं जगा कर इसी नीति से तोड़ने और सत्ता से बाहर करने और वापसी करने में भी सफलता मिली।
यदि हम ईस्ट इंडिया कंपनी की भेद नीति की तुलना कांग्रेस की भेदनीति से करें तो यह समझने में मदद मिलेगी कि कांग्रेस ने भारत की खोज में भले चूक की हो, कंपनी की तिकड़मों की खोज में कोई चूक नहीं की और इंदिरा जी के समय से जितनी कुशलता से इसका प्रयोग किया गया उतनी कुशलता से नेहरू जी भी नहीं कर पाए थे। परंतु यह भी याद रखना होगा कि शासक अपनी प्रशासनिक वैधता जिस अनुपात में खो चुका होता है, भेदनीति का प्रयोग उतना ही अधिक होता है। इसका एक ही उदाहरण काफी होगा।

कंपनी को लगान वसूली का अधिकार मिल चुका था पर बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला था। गद्दी पर नया नया बैठा युवक । पता चला फ्रांसीसी और अंग्रेज दोनों नवाब से इजाजत लिए बिना अपने किले बना रहे हैं । सिराजुद्दौला ने फर्मान जारी किया कि वे ऐसा नही कर सकते। फ्रांसीसियों ने आदेश का पालन किया पर अंग्रेजों ने जो पहले से ही शासन को खिलौना समझ रहे थे, अपना काम जारी रखा। सिराजुद्दौला ने इस बेअदबी पर उन पर हमला कर दिया। उनके किले को नष्ट कर दिया। अंग्रेज भाग खड़े हुए । पर उनके पास नौचालन का बल था इसलिए वे चालीस दिन तक बंगाल की खाड़ी में रुक कर मीरजाफर को फोड़ने और मद्रास से मदद आने का इंतजार करते रहे। इसके बाद दुबारा उन्होंने जब आक्रमण किया तो उनके सैन्यबल ने नहीं मीरजाफर और अमीचंद के विश्वासघात के चलते उसके अपने सैनिकों ने आक्रमणकारियों का साथ दे कर हराया था। सिराजुद्दौला को अंग्रेजों ने नहीं, मीर जाफर के बेटे मीर कासिम ने मारा था और फिर मीर जाफर का जो कुछ किया था वह केवल इतिहास का पाठ है। अंग्रेजों ने केवल प्लासी के निर्णायक युद्ध में विजय पाई थी। विजय भी कैसी – कहीं नहीं है कहीं भी नहीं लहू का निशान।
अब यदि इसकी तुलना कांग्रेस की हार, जनता शासन और चरण सिंह अथवा एक अन्य स्थिति में वी.पी. सिंह और चन्द्रशेखर की महत्वाकांक्षा से और ठीक आजकल लामबंद हो रहे विकल्पों पर ध्यान दें तो आगे कुछ कहने की आवश्यकता न होगी। इसका विस्तार करके परिवार-शासित प्रजातंत्र के भाग्य को समझा जा सकता है ।

बांटो और राज करो का अनिवार्य सिद्धांत यह है कि जो कमजोर है उसको इतना समर्थन दो कि वह भौतिक, नैतिक, सामरिक जिस भी दृष्टि या जिन भी दृष्टियों से कमजोर पड़ता है, उन दृष्टियों से सबल या प्रबल के मुकाबले को तैयार हो सके। इसके लिए कुछ प्रकट और परोक्ष रिआयतें और सुविधाएं देनी होती हैं। इनमें से एक होती है गुनाहमाफी। इसका ही एक रूप है, अल्पसंख्यक के संख्याबल की कमी को दुस्साहस से पूरा करना। इसकी सूत्रबद्धता जिन रूपोंमें दिखाई देती है उनमें से एक का पाठ है – ‘अल्पसंख्यक की सांप्रदायिकता सांप्रदायिकता नहीं होती।’ इसका विस्तार – ‘अल्पसंख्यक का अपराध अपराध नहीं होता’ को रोक लिया जाता है। इसका प्रवाह इस रूप में होता है कि अल्पसंख्यक के साथ अधिसंख्यक के सभी व्यवहार अल्पसंख्यक पर अत्याचार होते हैं। इसका निष्कर्ष दबा रह जाता है या कहें उस कानून के पारित होने पर सामने आने वाला जिसमें किसी हिन्दू और अल्पसंख्यक के बीच विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर जांच से पहले ही हिन्दू को अपराधी मान कर कार्रवाई की जाएगी। पर साहित्य में यही मुखरित होता है।

उर्दू की, विशेषकर स्वाधीनता के बाद की, कविता का एक बड़ा हिस्सा हिंदुओं के प्रति शिकायतों और सताए जाने की पीड़ा का इजहार है। मुशायरों में ऐसी कविता को कुछ खास पसंद किया जाता है। ये सचाई को उलट कर पेश करती हैं, आत्मप्रक्षेपण होती हैं। जो शिकायत उन्हें हिंदुओं से है, वहीं अधिक सटीक रूप में हिंदुओं को उनसे रही है। जिम्मेदार दोनों हैं परंतु दूसरे को जिम्मेदार ठहरा कर अपने अपराधबोध को कम करना चाहते हैं। अदायगी की नफासत पर दाद दिए बिना रहा नहीं जाता। मिसाल के लिए, ‘ ये नए मिजाज का शह्र है, जरा फासले से मिला करो।’ पद्य में जो नया लगता है, गद्य में वह पुराना है। मुस्लिम समुदाय इसी पर अमल करता रहा है। एक ओर से भाई-भाई की रट लगती रही, तो दूसरी ओर फासले बना कर रहने की चेतावनी दी जाती रही है, मिले तो मिटे, विलीन हुए।

जिस कवि की ये पंक्तियां हैं उसी की एक कविता के अनुसार हिंदू मरने के बाद जला दिया जाता है, उसकी राख बहा दी जाती है, जो नदी से होकर समुद्र में चली जाती है, मुसलमान मरने के बाद भी इसी जमीन में दफ्न होता, इसी मिट्टी में मिल जाता है, इस पर मुसलमान का हक हिंदू से अधिक है। जबान की चुस्ती की दाद देते हुए भी यदि इसके पीछे काम करने वाली चेतना पर ध्यान दें , और फिर वैसी ही चुस्ती का परिचय देते हुए यदि कोई कहे कि “हां, मुसलमान जिसे जीते जी अपनी मां नहीं मानता वही धरती जीते जी भी उसका पालन करती है और मरने पर भी अपने अंक में संभाल लेती है। कुपुत्रो जायेत, क्वचिदपि कुमाता न भवति। हिंदू जीते जी उसकी सेवा और पूजा करता है, मरने के बाद भी उस पर भार नहीं बनता।” तो चुस्ती का स्तर तो वही रहेगा, परंतु आनंद लेने वालों की संख्या में कमी आ जाएगी और माहौल कुछ गरम हो जाएगा, क्योंकि हम एक तरह की चुस्तजबानी को अपने रसबोध का हिस्सा बना चुके हैं। . दूसरा रस भंग करता और कर्कश प्रतीत होता है। भदेस लगता है। ठीक उसी तरह जैसे आइक्नोक्लास्ट, बुतशिकन, मूर्तिभंजक को इस्लामी और ईसाई मूल्य-व्यवस्था आत्मसात करने के कारण यह गिनाना भी चाहें कि किस बुतशिकन ने कितनी प्रतिमाओं का ध्वंस किया तो इसे भी आपराधिक संकीर्णता का प्रमाण मान लिया जाएगा।

लंबे समय तक दबाव में रहने को बाध्य मनुष्य दासता के मूल्यों को अपना लेता है। इस स्वीकार्यता से अपने आप सांस्कृतिक स्वामि-सेवक भाव पैदा हो जाता है। स्वामिमन्य समुदाय की भाषा में दासता से समायोजित मनुष्य के लिए गालियों तक का प्रयोग संप्रेषण के प्रभाव को बढ़ाता है, इसलिए श्लाघ्य नहीं तो सह्य माना जाता है, जब कि दूसरे का यह पूछना तक विद्रोह प्रतीत होता है कि ‘हुजूर आप ने मुझे गाली किस खता के लिए दी?’ तो इसे भी अशिष्टता, यहां तक कि विद्रोह मान लिया जाता है और उसी रूप में उससे निपटा जाता है। सामाजिक स्तरभेद से ‘ऊंची’ जातियों के, अपने से ‘नीची’ जातियों के साथ व्यवहार की भाषा से इसे आसानी से समझा जा सकता है। ठीक ऐसा ही भेद अनेक दूसरे कारणों से पैदा होता या बना रहता है।

जिन समाजों में सामाजिक स्तरभेद, लैंगिक श्रेष्ठता-कनिष्ठता का भाव नहीं है, या सिद्धांततः मान्य नहीं है, भले व्यवहारतः देखा जाता है, वे अपने काे उन समुदायों से ऊंचा मानते हैं जिनमें यह है। जो जातियां शासक रह चुकी हैं या शासक हैं वे खुल कर इसे कहें या न कहें, अपने को शासितों से ऊंचा मानती हैं और शासितों की चेतना में भी यह बोध बना रहता है। कला, विज्ञान, दर्शन, क्रीड़ा, आदि के क्षेत्र में आगे बढ़े और इस बढ़त को बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील क्षेत्र, देश या समुदाय और इन दृष्टियों पिछड़ जाने वाले क्षेत्रों, देशों, समुदायों की चेतना में भी इसे विद्यमान पाया जा सकता है। ये भाव लोकतंत्र-विरोधी हैं और लोकतंत्र के मजबूत होने के साथ कमजोर पड़ते हैं, फिर भी कई अवसरों पर प्रच्छन्न या प्रकट रूप में दिखाई पड़ जाते हैं, इसलिए हमारे सामाजिक संबंधों में एक झिझक या दुराव बना रहता है।

हिंदू और मुस्लिम संबंधों में इसके कई रंग समय समय पर देखने को मिलते हैं और हमारे व्यक्तिगत या सामाजिक आचरण को प्रभावित करते हैं । अपने ही समाज के पिछड़े तबकों के साथ विविध संदर्भों उसके आगे बढ़े तबकों के व्यवहार में इसका चरित्र अलग होता है और पूरे समाज के दूसरे समाज से व्यवहार में अलग। कोई हिंदू या मुसलमान होने के नाते ही किसी का भरोसा नहीं जीत लेता, फिर भी यदि किन्हीं परिस्थितियों हमें किसी व्यक्ति के विषय में और कुछ न पता हो, केवल मजहब का पता हो और चुनाव हमारे हाथ में हो तो नब्बे प्रतिशत मामलों में हमारा निर्णय अपने मजहब, क्षेत्र, जाति, आर्थिक स्तर, आदि के पक्ष में होगा। यह छोटे दायरे से लेकर बड़े दायरे तक, अपने और पराए के जुड़ाव और दुराव के तार मकड़जाल बनाता जाता है, अन्य से सभी स्तरों पर क्रिया प्रतिक्रिया करता है।

प्रचार के साधनों और संगठनों से अस्मिता के सीधे और चक्राकार सूत्रों में से किसी को निर्णायक महत्व देकर इतर सूत्रों से काट कर अलग ही नहीं किया जा सकता है अपितु शत्रुता में बदला जा सकता है। दुनिया के मजदूर एक हैं तो मजदूर को अपने ही देश के विरुद्ध खड़ा किया जा सकता है। मजदूर दल अपने उपनिवेश को मुक्त करने को तैयार हो सकता है। क्रांति का सपना देखने वाला क्रांति में सहायक शत्रु देश के साथ, और अपने देश का शत्रु हो सकता है। अस्पृश्यता का शिकार अपनी धर्म सीमा तोड़ कर दूसरे अस्पृश्यता या इससे मिलती जुलती कुरीतियों का सामना करने वालों को अपना सगा मान सकता है। ये संबंध परख-नली में नहीं चलते इसलिए खिंचाव और तनाव के दूसरे धागे इन निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं। यदि अस्पृश्यता से मुक्त होने का दावा करने वालों में अस्पृश्यता के चलन का प्रमाण मिलता है तो निर्णय बदल जाता है और टकराव और जुड़ाव का रूप बदल जाता है। मनुष्य यंत्र-चालित नहीं है इसलिए ये परिवर्तन सभी में एक समान नहीं होते। अपनत्व के भ्रामक रूप वास्तविक से तरंग न्याय से उठते-गिरते जल-धारा से बंधे, तलहटी के उठान-गिराव से अनुकूलित और वायुवेग से ऊंचाई और दिशा से प्रभावित होते रहते हैं।

हम इनमें से किसी को सही या गलत ठहराना नहीं चाहते। हम केवल यह कहना चाहते हैं कि जनांदोलन अपना काम सही ढंग से नहीं कर पाता है तो अपने लिए समस्याएं ही नहीं खड़ी करता है, अपना जनाधार भी गंवा देता है। मुस्लिम लीग मुसलमानों की पार्टी नहीं थी, वह मुस्लिम अमीरों की पार्टी थी। उसका निकट का संबंध अमीर हिंदुओं की पार्टी हिंदू महासभा से था और इनका अपनापा नवाबों और राजाओं से। ये सभी देश की स्वतंत्रता स्वतंत्रता के विरुद्ध, अंग्रेजी राज्य और सामंती व्यवस्था को बनाए रखने के लिए, काम कर रहे थे। जनवादी दलों द्वारा इसे इस रूप में प्रचारित किया जाना चाहिए था, कि मुसलमानों और हिंदुओं की दासता से मुक्ति के रास्ते में उनके शत्रु हिंदू या मुसलमान नहीं है, गुलामी को स्थाई बनाने वाले हैं। उनके बीच समझौता है, इसलिए मुस्लिम लीग को अपना शत्रु हिंदू महासभा और संघ में कभी दिखाई न दिया। उसका शत्रु वह काग्रेस थी जो दोनों को मिला कर रखना चाहती थी, जिसके सामने समाजवाद का चित्र तो बहुत साफ नहीं, परंतु जिससे जमीदारों, राजाओं, नवाबों और विदेशी शासकों को खतरा था। वे हिंदू, मुसलमान और ईसाई होते हुए भी साथ थे। देश और समाज को तोड़ने को, सांप्रदायिक भावनाएं भड़का कर, संदेह, घृणा और हिंसा का विस्तार करने को अपना हथियार उन्होंने बनाया था। मजदूरों और मजबूरों की पार्टी से अधिक सही समझ उस जनता को थी जिसने 1940 तक न तो मुस्लिम लीग का साथ दिया था, न हिंदू महासभा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का। मजदूरों और मजबूरों की पार्टी ने मजदूरों और मजबूरों का साथ छोड़ कर रईसों की राजनीति करने वाले और देश को बांटने वाले मुस्लिम लीग का साथ दिया।

क्रांति का नारा देने वालों ने भ्रांति के पथ का विस्तार किया और स्वतंत्रता को हिंदुओं के राज की स्थापना के रूप में देखने वालों का साथ देते हुए देश को सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, भौगोलिक और मनोवैज्ञानिक सभी दृष्टियों से खंडित किया। मजदूरों और मजबूरों की पार्टी ने रईसों की पार्टी का साथ क्यों दिया और वैचारिक स्तर पर अशिक्षित जनता से भी पिछड़ी क्यों सिद्ध हुई, इसे उसने तब भी समझने और समझाने का प्रयत्न नहीं किया जब उसने स्वीकार किया कि यह उसकी भूल थी। अपनी भूल समझ में आने के बाद भी उसने अपना रास्ता नहीं बदला। प्रगतिशीलता का नारा लगाने वालों ने नव स्वतंत्र भारत में राष्ट्रीय पूंजीवादी विकास का विरोध करते हुए एक ओर तो सामन्ती व्यवस्था का साथ दिया और दूसरी ओर भारत के उद्योग धंधों को, रोजगार के अवसरों को नष्ट करते हुए औद्योगिक देश से विश्वपूंजीवाद का बाजार बना दिया और फिर भी इनमें से किसी की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं।