Post – 2018-11-17

आदमी को क्रोध क्यों आता है
यह बहुत वाहियात सवाल है, कुछ कुछ अध्यात्म का कारोबार करते हुए, अपने वाग्जाल का शिकार होने वालों का दायरा बढ़ाते हुए, अपने को स्वयं संत, महात्मा, यहां तक कि भगवान बनाने वालों और अकूत संपदा का जुगाड़ करके राजनीति से लेकर समाज तक को विकृत करने वालों की कतार में खड़े होने की तैयारी का आभास देने वाला व्यर्थ प्रश्न। व्यर्थ इसलिए कि समझदार लोग जानते हैं कि प्रत्येक क्रोध करने वाला जानता है कि उसे कौन की बातें नापसंद हैं, जिन पर उसे क्रोध आता है। और पहले से इसका ध्यान न रखे तो भी वह समझता है कि उसे किस बात पर और क्यों क्रोध आया था। इस पर किसी तीसरे को प्रवचन करने की जरूरत नहीं।

क्रोध के पक्ष में कुछ दलीलें भी दी जा सकती हैं। यह काम, लोभ, द्वेष, पाखंड की तरह सर्वथा अनैतिक नहीं है। इसका एक नैतिक आधार है। जो गलत है, अन्याय है, असह्य है उस पर क्रोध तो आना ही चाहिए। यहीं से उसे मिटाने का संकल्प पैदा होता है। इसलिए जिसे क्रोध नहीं आता, वह या तो मृतप्राय है, या पाखंडी या पतित। इस नजरिए से क्रोध करना नैतिकता का प्रमाण बन जाता है। इसमें केवल यह जोड़ना शेष रह जाता है कि घृणा के पक्ष में यही तर्क दिया जा सकता है। अहंकार को भी आत्माभिमान कह कर बचाव तैयार किया जा सकता है। विरोधों के बीच करकंगन न्याय- सबसे अधिक निकटता होते हुए भी विरोधी ध्रुवों जैसी अधिकतम दूरी – भी होता है।

क्रोध के विषय में एक मजेदार प्रसंग याद आ गया। गांधी जी से एक व्यक्ति ने अपने क्रोधी स्वभाव की बात स्वीकार करते हुए उससे बचने का उपाय जानना चाहा। उन्होंने पूछा, आप को किस बात पर क्रोध आता है। उन्होंने बताया, लोग कोई काम ठीक करते ही नहीं। गांधी जी का सुझाव था, आप उस काम के लिए उन पर निर्भर न रहें, खुद कर लिया करें। गांधी जी के इस उत्तर से जो लोग असंतुष्ट हों उन्हें दुबारा इस समस्या पर सोचना चाहिए कि आप को क्रोध इसलिए आता है कि लोगों को सही सही काम करना चाहिए, पर आपके पास यह अधिकार होना चाहिए कि आपके पास कुर्सी तोड़ते हुए उसके सही या गलत होने का फैसला करने का अधिकार होना चाहिए। आप स्वयं निकम्मे हैे। काम करने वाले को क्रोध करने के लिए समय ही नहीं मिलता।

गांधी जी एेसा कह सकते थे क्योंकि उन्होंने गीता को अपना जीवनादर्श ही न बनाया था अपितु प्रयोग से उसे जीवन में आत्मसात कर लिया था। गीता एक ऐसे युग की रचना हैे जिसने अपने समय की तकनीकी सीमाओं के भीतर मनोविज्ञान के शिखर को पा लिया था और आज मनोविज्ञान अनेक दृष्टियों से उससे बहुत आगे निकलकर भी कुछ मामलों में उससे पीछे रह गया है।

उसमें जिन कारणों से शिथिल चिंतन मे क्रोध को उचित बताया जाता है उन्हीं कारणों से वर्जित आवेगों सें सबसे खतरनाक बताया गया है, इसकी जड़ों और परिणति को एक श्लोक में समेटा गया है। व्याख्या निम्न प्रकार हैः

क्रोध का कारण यह नहीं है कि गलत हुआ या हो रहा है, अपितु यह कि आप किसी परिणति से अधिक आसक्त होते हैं, चाहते हैं ऐसा किसी कीमत पर हो, पर प्रयत्न की अपेक्षा दूसरों से रखते हैे। इस आसक्ति के कारण आप में सम्मोह अर्थात विवेकहीनता की स्थिति आ जाती है। इससे दिमाग होते हुए भी काम करना बंद कर देता जिससे बुद्धि का नाश हो जाता है और इससे हमारा सर्वनाश हौ जाता है। श्लोक की तलाश करें पर यह न भूलें कि समरभूमि में भी, शत्रुनाश के संकल्प के बाद भी, क्रोध से बचने की सलाह दी जा रही है। आंदोलन में बदहवास इससे कुछ सीख सकते हैे और सीख सकते हैं गांधी के नाम से बिदकने वाले भी। वह अकेला हिंदू रहा है और मारा गया है।
संगात् भवति सम्मोहः, सम्मोहात स्मृतिविभ्रमः।
स्मृति भ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणस्यति।।