#भारतीय_मुसलमान: न वे सुनेंगे न समझेंगे गुफ्तगू मेरी
हम अपनों के बीच नहीं रहते। जिस दुनिया में हम रहते हैं उसमें तरह-तरह के लोग रहते हैं जिनमें से कुछ ही लोग अपने संपर्क में होते हैं। संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के बीच कुछ लोग हमारे परिचित होते हैं। उन परचितों में कुछ लोगों को हम अपना या भरोसे का समझते हैं। भरोसे के लोगों में कुछ हमारे मित्र या प्रायः मिलने-जुलने वाले होते हैं। इन मित्रों के बीच सभी से हम अपने मन की बात खुलकर नहीं करते, ऐसे कुछ लोग ही होते हैं जिनसे अपना दुख-सुख बाँटा जा सकता है, जिन्हें हम अंतरंग मित्र कह सकते हैं। ये भी समय के साथ किसी मोह-भंग के शिकार हो सकते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं जिनके परिचितों का दायरा बहुत बड़ा हो, पर एक भी अंतरंग मित्र न हो, क्योंकि वे अपने सुख में भले सभी को साझेदार बना लें, अपने दुख को किसी के साथ नहीं बांटते, भले दूसरों के दुख में सहायता के लिए तैयार हो जाते हों। दुख के गरल को अकेले पी जाने वाले ये लोग सहिष्णु होने के साथ ही, ऊपर से नम्र दीखते हुए भी, भीतर से अहंकारी और इस अहंकार के अनुरूप ही अपनों की भीड़ में निपट अकेले होते हैं।
जो हमारे परिचय परिधि में नहीं होते हैं, प्रायः संज्ञान परिधि से बाहर होते हैं, होते हुए भी हमारे लिए वे नहीं होते। इस तरह विराट मानव जगत में हम सभी बहुत छोटे से संसार में रहते हैं, परंतु जीवन में ऐसे निर्णायक क्षण आते हैं जब हम बहुत बड़े समुदाय से, पूरी मानवता से, यहां तक कि मानवेतर प्राणियों और जीवेतर सत्ताओं और परिघटनाओं से भी जुड़ जाते हैं अथवा उनके प्रभाव- में आ जाते हैं। इनके दायरे कभी कतिपय संस्थाओं – परिवार, परिवेश, समाज, शिक्षा-केन्द्र, कार्यक्षेत्र या पेशा, धर्म, जाति, नस्ल, समुदाय, संगठन और समान भौतिक या नैतिक सरोकार – से जुड़े होते हैं। इनके आंतरिक तनाव भी हो सकते जिनके समाहार के प्रयत्न हमेशा आसान नहीं होते क्योंकि इनके अपने चरित्र, अनुभव या इतिहास होते हैं जो समस्या को हल करने मे ही नहीं, समझने तक में बाधक होते हैं।
इस तरह सतह पर आसान दीखता हुआ भी सामाजिक संबंध जटिलताओं और समस्याओं से भरे होते हैं।
हम इस चर्चा में भारतीय मुसलमानों को समझने का प्रयत्न करते रहे हैं। इसका कारण यह रहा है कि लगभग नव सौ साल से एक ही परिवेश में रहते हुए भी दुराव के सचेत प्रयत्नों के कारण हम मुस्लिम समाज की सामुदायिक चेतना से पूरी तरह अनभिज्ञ रहे हैं। जिस समुदाय के साथ रहना अपरिहार्य हो उसके विषय में नासमझी आत्मघाती है।
इसके साथ हिन्दू समाज की अपनी सामूहिक चेतना का प्रश्न भी आता है, जिसे उन्हीं संदर्भों में तुलना के लिए रखे बिना हम पूरा न्याय नहीं कर सकते। पर इससे बचने के दो कारण थे। एक तो तुलना के साथ आंतरिक बुनावट को समझा ही नहीं जा सकता था, जो हर मामले मे इतर से समानांतर नहीं होती, अपितु विशिष्ट होती है। उस प्रयत्न से विवेचन में सतहीपन अवश्य आ जाता। दूसरे भारतीय नृतात्विक अध्ययनों में लगातार हिंदू समाज की बनावट और आंतरिक विसंगतियों और टकराव के रूपों का अध्ययन इतनी निर्ममता से किया जाता रहा है कि इसकी आड़ में टकराव के नए मुद्दे तक ईजाद किए जाते रहे हैं।
हिंदू समाज में न जाने कब से आत्मज्ञान पर बल – आत्मानं विद्धि – दिए जाने के कारण आत्मालोचन की एक स्वस्थ परंपरा रही है। इसमें निजी और सामूहिक सीमाओं पर खुल कर चर्चा होती रही है, इसके बावजूद सांस्कृतिक उजड्डपन के शिकार अधपढ़ लोग भी इससे ही आत्मालोचन की मांग करते थकते नहीं रहे हैं और वह इसका बुरा मानने के लिए इसके लिए अपराधी भाव से तैयार हो जाता रहा है।
इसके बाद भी समाज की आधारभूत रचना के विषय में विशेषज्ञों द्वारा भी इतनी नासमझी की व्याख्यायें की जाती रही हैं कि उनसे समस्या का समाधान निकलने के स्थान पर समस्यायें अधिक असाध्य होती जाती हैं जिनका राजनीतिक या प्रसारवादी उपयोग करके सामाजिक ताने बाने को छिन्न-भिन्न किया जाता रहा है। वह विषय बिल्कुल अलग है और उस पर हमने अलग से लिखा भी है, इसलिए उसे समानांतर उठाते रहने का औचित्य न था।
चर्चा में हमने मुस्लिम समाज का एक मोटा विभाजन स्थानीय और विदेशी अस्मिताओं के रूप में किया है, जिसमें स्थानीय कोटि में उनको रखा है जो धर्म परिवर्तन के लिए विवश हुए। इनके धर्मांतरण की प्रक्रिया को गलत ढंग से पेश किया जाता रहा है, इसके बाद भी सही रूप ठीक क्या था इसका अनुमान हम भी नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए सल्तनत काल से ही कुछ बादशाह ऐसे रहे हैं जो अकाल के समय में मुफ्त खाने का प्रबंध किया करते थे। जाहिर है उसमें ऐसा आहार भी होता था जो धार्मिक दृष्टि से वर्जित था। दुर्भिक्ष में जब विश्वामित्र और वामदेव जैसे ऋषि तक जीवन रक्षा के लिए वर्जित भोजन करने को बाध्य हो जाते हैं, तो फिर साधारण भूखे लोगों को यह अवसर जीवित रहने का एकमात्र साधन था इससे इनकार नहीं किया जा सकता। मजारों पर खैरात बांटने वालों की भूमिका भी समझी जा सकती है।मुस्लिम समाज के आर्थिक दृष्टि से सबसे विपन्न तबका धर्मांतरित हिंदुओं का ही है। यह मात्र एक उदाहरण है।
इसी तरह संपन्न ब्राह्मणों और क्षत्रियों का धर्मांतरण जिन्होंने अपनी सामाजिक हैसियत को मुसलमान होने के बाद भी बचाने की कोशिश की, दंड-स्वरूप, बल प्रयोग से हुआ था। इनका अपने ही बंधुओं से जो ऐसे दंड से बच गए थे, शादी-ब्याह में उचित परहेज के साथ खान पान चलता रहता था, परंतु यह अपने को मुस्लिम समाज के अभिजात वर्ग में गिना करते थे और गिने जाते हैं। यह ब्राहमणों की अज्ञता या जड़ता थी कि उन्होंने आपद्धर्म का विधान होते हुए भी अपने समाज को बचाने का यत्न न किया, और इन्हीं जड़चेत ब्राह्मणों की औलादें आज भी हिन्दुत्व की रक्षा का दम भरती और आत्मघाती तरीके अपनाती हैं।
कुछ पेशे ऐसे थे जो पूरे के पूरे धर्मांतरित होने को विवश हुए परंतु अपनी आध्यात्मिक भूख योग और वेदांत से मिटाते रहे। स्थानीय से लेकर देशव्यापी स्तर पर तलवार के बल पर कितनों को धर्मांतरित किया गया, इसका कोई हिसाब किसी के पास नहीं है। जो है, उसे किसी न किसी बहाने, सद्भावना की रक्षा के लिए, छिपाने की तैयारी करते हुए पेश किया जाता रहा है।
हम इन जटिलताओं का उल्लेख इसलिए कर रहे हैं कि सभी धर्मांतरित मुसलमानों का इस्लाम से लगाव एक जैसा नहीं हो सकता था। मेवाती जो कुछ समय पहले तक हिंदू और परंपराओं का निर्वाह करते थे आज योजनाबद्ध रूप में कट्टर बनाए जा चुके हैं। यही हाल दूसरे समूहों का भी है जो विभाजन से पहले और कुछ बाद तक भी नाम मात्र को मुसलमान हुआ करते थे।
जहां योजनाबद्ध रूप में अलगाव पैदा करने की प्रवृत्तियां प्रबल हों, अमेरिकी कूटनीति के तहत मुस्लिम कट्टरता को अरब देशों के माध्यम से बढ़ाते हुए मुस्लिम समुदाय को मध्यकालीन सीमाओं से बाहर निकलने न दिया जा रहा हो, इससे हिंदुओं में भी प्रतिस्पर्धी प्रवृत्तियां पैदा करके उनकी जड़ता को भी बढ़ाने का परोक्ष प्रयत्न किया जा रहा हो, सामाजिक मेलजोल की बात करना एक उपद्रवकारी कार्य माना जा सकता है। ऐसे ही में हमारे इस विवेचन का ठीक वही लाभ नहीं हो सकता जिसकी हम आशा करते हैं।
मुझे पूरा विश्वास है कि जिनको इससे लाभान्वित होना है वे इसे पढ़ेंगे नहीं या पढ़ा तो इसे दोष-दर्शन मानकर इस पर ध्यान नहीं देंगे। इसके विपरीत झूठे बहाने तैयार करके यथास्थिति को बनाए रखने का प्रयत्न उनके द्वारा भी हो सकता है जो प्रगतिशीलता और वैज्ञानिकता का प्रयोग तकिया कलाम की तरह करते हैं।
इसके बावजूद हमारा यह प्रयत्न इसलिए जरूरी था कि जिनके साथ हमें रहना है उनकी मनोरचना को समझना अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जरूरी है। सामाजिक आत्मीयता और पराएपन की जटिलता को इसीलिए आरंभ में रखते हुए, इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि मित्रता, आत्मीयता एक दुर्लभ स्थिति है, समाज में यह सुलभ हो यह केवल हमारे बस में नहीं होता। अनेक घटक इसका निर्धारण करते हैं। हमारे अधिकांश संबंध कार्य साधक होते हैं और अपनी सीमा में वे अधिक खरे और टिकाऊ होते हैं। रावण के पुतले मुसलमान बनाता है दशहरा हिंदुओं का होता है। दशहरा न हो तो उसकी जीविका पर असर पड़ता है। यही हाल आतिशबाजी का है।
इसलिए मित्रता नहीं, जो अक्सर खतरनाक भी हो सकती है, अपितु आपसी समझदारी जरूरी है। हम उन जीव जंतुओं तक के स्वभाव और काम को जाने बिना सुरक्षित नहीं रह सकते, जिनमें से अधिकांश को हम खतरनाक मानते आए हैं, और खतरनाक होने के बाद भी जिनके बचे रहने में हमारा अपना बचाव भी है।
जिस बात पर हमने बल दिया है वह है विदेशी मूल और विदेशी पहचान। अपनी रियासत और रईसी का अधिक ध्यान रखने वाले ही हैं जो न अपने समाज से जुड़ पाते हैं, न जमीन से जुड़ पाते हैं, न परंपरा से जुड़ पाते हैं, न संस्कृति से जुड़ पाते हैं और आज तक जमीन जायदाद के मालिक बने रहकर भी खानाबदोसों की मानसिकता से ग्रस्त हैं। इनको ही इनका इतिहास और आपनी करनी हांट करती है और इसके बाद भी उसी को दुहराने की धमकियां भी देते हैं। इस दुहराव के कारण वे भग्नमनस्कता से ग्रस्त रहे हैं और भारतीय समाज में लगातार नई नई व्याधियाँ पैदा करते, समस्याएं खड़ी करते रहे हैं। इनको उनकी भूमिका से अवगत कराना भी जरूरी है, इस प्रवृत्ति का विरोध करना भी जरूरी है, और मुस्लिम समाज में यह चेतना पैदा करना भी जरूरी है यह तुम्हारे सगे नहीं हैं और और जिन को अपना सगा मानते हैं वे इन्हें अपना सगा मानने को तैयार न होंगे। हिंदुओं के हित के लिए नहीं अपने हित के लिए , भारतीय मूल के मुसलमानों को सच का सामना करना पड़ेगा, अन्यथा संख्या बढ़ाकर भी वे बीमारों की संख्या बढ़ाएंगे और अपने समाज को ही व्याधिग्रस्त करेंगे। घर वापसी के नाम पर शुद्धि कराने वाले भी यही करेंगे। आर्यसमाजियों का शुद्धि आंदोलन और तबलीग का कठमुल्लापन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।