Post – 2018-11-11

#भारतीय_मुसलमान: फैज की सांप्रदायिकता

फैज अहमद फैज (अर्थात् फै़ज़) उर्दू के प्रगतिशील कवि थे। कम्युनिस्ट थे। पाकिस्तान सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र के लिए उन्हें जेल की सजा भी हुई थी। भारत में उनके मुरीदों की संख्या पाकिस्तान से अधिक होगी और उनमें हिंदुओं की संख्या तय करना तो कठिन है, परन्तु नागरी में छपी उनकी कविताओं के पाठकों की संख्या अरबी लिपि में पढ़ने वालों की तुलना में कहीं अधिक है। प्रगतिशील होने से पहले वह मुसलमान थे। इसलिए फिलिस्तीन में मारे जा रहे मुसलमान बच्चों की मौत पर तो रोए थे परंतु पाकिस्तान में हिंदुओं की दशा पर उस तरह विगलित नहीं हुए थे जैसे तसलीमा नसरीन बांग्लादेश में उनकी दशा पर विगलित हुईं। पाकिस्तान के निवासी थे, इसलिए पाकिस्तान की ओर से कश्मीर के मोर्चे पर युद्ध में सक्रिय भाग लेने को तैयार थे। पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने का उन्हें मलाल था और एक बार यह कोशिश भी की थी कि वह फिर पाकिस्तान का हिस्सा बन जाय पर कोशिश बेकार गईः
हम केः ठहरे अजनबी इतनी मुलाकातों के बाद
खून के धब्बे मिटेंगे कितनी बरसातों के बाद।…
उनसे जो कहने गए थे फ़ैज़ जां सदका किए
अनकही ही रह गई वोः बात सब बातों के बाद।

इनमें कहीं कुछ भी छिपाने की नहीं और इन सबके बाद भी वह एक बड़े शायर हैं। मैं उनका सम्मान करता हूँ। भले मानवतावाद के मामले में वह तसलीमा नसरीन से छोटे पड़ें, शायर के रूप में उनका कद बहुत बड़ा है।*

यदि हिंदी हिंदू भाषा है, उर्दू सेकुलर भाषा है सब की साझी विरासत, और हिंदुस्तान हिंदुओं का देश है, तो भी उसके मकबूल शायर फैज हुआ करते थे, जिनकी उर्दू कुछ यूं हुआ करती थीः

जश्न है मातम-ए-उम्मीद का आओ लोगो
मर्ग-ए-अंबोह का त्यौहार मनाओ लोगो।
000
गुम हुई जाती है अफसुर्दा सुलगती हुई रात
धुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए-महताब से रात।
000
दिल के ऐवां में लिए गुलशुदा शम्ओं की क़तार
नूरे खुर्शीद से सहमे हुए उकताए हुए
हुस्न-ए-महबूब के सय्याल तसव्वुर की तरह
अपनी तारीकी को भींचे हुए, लिपटाए हुए

बाद में वह या तो हिंदू हो गए थे, या हिंदू संप्रदायवादियों द्वारा इस्तेमाल कर लिए गए थे क्योंकि वह लिखने लगे थेः
पंखी राजा रे पंखी राजा मीठा बोल
जोत जगी हर मन में
भँवरा गूँजा, डाली झूमे
बस्ती, वाड़ी, वन में
जोत जगी हर मन में
नदिया रानी रे
नदिया रानी मीठा बोल
घाट लगी हर नाव
रात गई सुख जागा
पायल बांधो, नाचो गाओ
घाट लगी हर नाव
नदिया रानी मीठा बोल

वह एक रोबीली और कम लोगों की बिसात वाली जबान को छोड़ कर सबकी समझ में आने वाली मीठी भाषा में लिखने लगे थे। और फिर याद आया कि वह अभी तक एक परंपरालब्ध खयाली भाषा में कविता करते रहे जो किसी क्षेत्र में न तो बोली जाती है न समझी। जिसमे न मिठास है न संचार क्षमता। मिठास तो प्रकृति और परिवेश के सान्निध्य में होता है- जैसा कि संस्कृत के कवियों ने अनुभव किया था – संस्कृत खारा कूप जल भासा बहता नीर, या भासा भणिति भूति भल सोई सुरसरि सम सब कर हित होई। वह सहज प्रवाह वाली जन भाषा की ओर मुड़े थे। और फिर यह बोध कि सरल भले हो, उन्होंने अपनी भाषा में तो लिखा ही नहीं सो जैसे हमने कहा था, वह पंजाबी की ओर मुड़े थे। यह है साधना से सिद्धावस्था की ओर की ओर उनकी काव्य यात्राः
लम्मी रात भी दर्द फिराक वाली
तेरे कौल ते असां वसाह करके
कौड़ा कुट कीती मिठड़े यार मेरे
मिठड़े यार मेरे, जानी यार मेरे
000
किधरे न पैंदियां दस्साँ
वे परदेसिया तेरियाँ
काग उड़ावा शगन मनावाँ
वगदी वा दे तरले पावाँ
तेरी याद आवे ते रोवाँ
तेरा जिक्र करें ता हस्साँ
वे परदेसिया तेरियाँ

जिस बात को समझने में विद्वानों को युग लग जाते हैं उसे आम लोग अपनी सहज बुद्धि से समझ लेते हैं। पाकिस्तान की विभिन्न भाषाओं ने, न केवल उर्दू की जगह अपनी बोलियों को अपनाया, उन्होंने नई तकनीकी जरूरतों के लिए भी उर्दू अर्थात् अरबी-फारसी के, यहां तक कि उर्दू में स्वीकृत अंग्रेजी के तकनीकी प्रयोगों को दरकिनार करते हुए अपने स्रोत से तकनीकी शब्द गढ़े। इनकी जो बानगी तीरिक़ रहमान ने दी है वह निम्न प्रकार है।
बलोची मेंः
किताब – वानगी
रेडेयो – वातगुस
दीन, मज़हब – नेहराह
खत या कागज़ – निमदी
ड्रामा – कसमंक
अदब (लिटरेचर) – लब्जंक
(वही, 282)

सिराइकी
इल्म (knowledge) – भूम
आलिम (intelectual) – भूमवाल
लिसानियात (linguistics) – बोली भूम
इन्तिखाब (election) – चुनार (चुनाव ?)
कु़तब शुमाली ( North pole) – उभीचर
क़ुतब जनूबी (South pole) – लीमूचर
रसम-उल खत (script) – लिखत रीत
टीवी – मूरत वाजा
रेडयो – सुर वाजा
ग्रामर- आखर मूल
दस्तखत – आखर हाथ
(वही, 278)

पंजाबी
लफ्ज – आखर
सैलाब – हर्ह
अकवामे मुत्तहिदा (United Nations) – इक मुठ कौमां
सालाना (yearly) – वर्हे वर
खुसूसी (special) -अच्छा
तकरीब – इकठ
भेजना – घलना
(वही, 276)

तारिक़ रहमान भी मुसलमान हैं। वह पाकिस्तान के निवासी हैं। अंतर केवल इतना है कि वह भाषाविज्ञानी हैं, भाषाविज्ञान के प्रोफेसर रहे हैं और उनके काम को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है। पाकिस्तान की भाषा समस्या पर उनको याद किया जाता है और उनकी पुस्तकें आक्सफर्ड यू. प्रेस से प्रकाशित हैं। राजनीति करने वालों की तरह वह भाषा समस्या को धर्म या राजनीति से घालमेल करके नहीं देखते। मेरे पास उनकी एक ही पुस्तक के नोट हैं और इसलिए मैंने उसी की सूचनाओं का उपयोग किया है। वह उर्उदू को आर्नयभाषा मानते हैं और साथ ही यह भी कि अरबी लिपि आर्यभाषा के लिए उपयुक्त नही है। ठीक इसी नतीजे पर डा. ताराचंद भी पहुंचे थे जिनको सेकुलरिस्ट सोच का दावा करने वाले भी सम्मान देते हैं। जब इस समस्या पर बहुत गर्म बहस चल रही थी उन्होंने सुझाया था (The Problem of Hindustani (1944) by Tara Chand) कि हिंदुस्तानी को अरबी-फारसी और संस्कृत प्रेमियों से बचाया जाना चाहिए और इसे नागरी लिपि में लिखा जाना चाहिए, जो इसके सर्वाधिक उपयुक्त है और इसी से इसकी उन्नति संभव है। पर यह बात आज भी बहुतों को समझाई नही जा सकती।

{nb. *यूं भी कम्युनिस्ट मानवतावादी नहीं होते। वे नरपिशाचों को लज्जित करने वाली क्रूरता कर सकते हैं। उनका मानवतावाद भविष्य में कभी साम्यवाद की स्थापना के बाद संभव हो सकता है, नरद्रोही प्रकृति से वह प्रस्फुटित हो पाएगा, इसे अभी तो देखा नहीं जा सकता। मार्क्सवादी हिंसा की अवधारणा यह है कि जब तक राज्यसंस्था है तब तक हिंसा है, इसके समाप्त होने के बाद शान्ति छा जाएगी। हमारा पौराणिक इतिहास कहता है, राज्यसंस्था की स्थापना अराजकता को, अशान्ति और कलह (मत्स्यन्याय) को दूर करने अर्थात् शांति और व्यवस्था कायम करने के लिए हुई। नृतत्वविद पिछली शताब्दी तक सभ्य जगत से कटे हुए भूभाग में अराजक कबीलों के परस्पर चलते रहने वाले संघर्षों के जो हवाले देते रहे हैं, वे भी इसकी पुष्टि करते हैं और हमारे ही देश के पूर्वोत्तर के जनों के हिंसा प्रतिहिंसा के कारण यह क्षेत्र उपद्रवग्रस्त क्षेत्र के रूप मे लगातार सेना के नियंत्रण में ही रहा है। अफ्रीकी सरदारों की निरंतर चलने वाली लड़ाइयों का लाभ उठाकर गुलामों का व्यापार किस तेजी से और कितने बड़े पैमाने पर चलता रहा हम जानते हैं। चरवाही पर पलने वाले कबीले भारत और चीन दोनों की शान्ति के लिए संकट पैदा करते रहे यह हमारे कई हजार साल का अनुभव है। इन विविध दृष्टांतोे में कुछ इकहरापन हो सकता है फिर भी इनका समग्र पाठ उस सुदूर और संदिग्ध अवस्था के प्रति आश्वस्त नहीं कर पाता। }