Post – 2018-11-10

#भारतीय_मुसलमान: वतनपरस्ती

मुझे कुछ बातों को समझने में कठिनाई हुई है। विभाजन के18साल बाद भी सियालदह स्टेशन के पास पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की आबादी बहुत दयनीय दशा में थी। विभाजन से पहले नोआखाली में भयंकर और लंबे समय तक चलने वाला सांप्रदायिक उपद्रव हुआ था। कोलकाता में सीधी कार्रवाई का प्रयोग हुआ था। पश्चिमी हिंदुस्तान में पहले वैसा कुछ नहीं हुआ था। जो भी हुआ विभाजन के अंतिम दिनों पर हुआ। परंतु बंगाल में सांप्रदायिक भावना पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों में भी न थी, जबकि पश्चिमी पाकिस्तान से दिल्ली आकर रच बस चुके शरणार्थियों में यह भावना बनी हुई थी। पूर्वी पाकिस्तान के हिंदुओं का क्या अनुभव था कि उनके मन में सामाजिक सौहार्द कम नहीं हुआ था?

जिन मुसलमानों ने नोआखाली के दंगे किए थे और जिस का व्यापक प्रभाव पड़ा था, उन्होंने बांग्ला भाषा और साहित्य को इस तरह अपनाए रखा मानो बीच में कुछ हुआ ही न हो। भाषा प्रेम के कारण उन्होंने पाकिस्तान से विद्रोह कर दिया। जब नया देश बनाया तो उस नए देश का राष्ट्रगान रवींद्रनाथ की कविता को बनाया।

उत्तर प्रदेश का मुसलमान अपने को अपनी जमीन से नहीं जोड़ पाता है। इस्लाम के आने से पहले के इतिहास से अपने को जोड़ नहीं पाता है। धर्मांतरित होने से पहले के अपने पुरखों से अपने को आधे अधूरे रूप में जोड़ता है, क्योंकि विरल अपवादों को छोड़कर उपाधियां पुरानी हैं, परंतु इतिहास सचेत रूप में भुला दिया गया है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी इसी क्षेत्र के मुसलमानों के प्रभाव में रही और उन्हीं का काम करती रही है। भारत के प्राचीन इतिहास को नष्ट करने की योजना पर मार्क्सवादी मुखौटा लगाए भाववादी इतिहास लिखने वाले काम करते रहे हैं। उनके प्रभाव के कारण हिंदी प्रदेश का भद्र मुसलमान अपनी जमीन, अपने देश, इसके सम्मान के प्रति उदासीन रहा है। यूपी के मुसलमान और कम्युनिस्ट राष्ट्रगान से बिदकते पर इंटरनेशनल गाते रहे हैं। वे, नेशन को, देश को, देश की संस्कृति को, इसकी भाषा को संकीर्णता का प्रमाण मानते रहे हैं। उनका बस चले तो इसे सचमुच टुकड़े-टुकड़े करके रख दें, इसकी घोषणा वे खुलेआम करते रहे हैं।

इसके विपरीत 2000 में बांग्लादेश के दो मुस्लिम कम्युनिस्ट मुझसे मिलने आए। इनका नाम था समसुज्जोहा मानिक और समसुल आलम चंचल। उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी The Aryans and the Indus Civilization जो 1995 मैं, अर्थात् उसी वर्ष इस वर्ष मेरी पुस्तक The Vedic Harappans प्रकाशित हुई थी। उन्होंने मोहम्मद रफीक मुगल के छोलिस्तान रेगिस्तान के पुरातात्विक काम का भी हवाला देते हुए अपनी बात की पुष्टि ही नहीं की थी, अपितु रफीक मुगल को पुस्तक की एक प्रति भी भेजी थी, जो उनकी समझ में नहीं आई थी, क्योंकि उन्हें अपनी खोज के सही संदर्भ का स्वयं ही पता नहीं था। मैं इन लेखकों के विचारों से कुछ असहमति रखता था, परंतु मोटे तौर पर उनकी स्थापना सही थी और उनकी समझ से यह एक क्रांतिकारी काम था, क्योंकि तब तक वे मेरे काम से परिचित नहीं थे। उनकी पुस्तक की समीक्षा मैंने हिस्ट्री टुडे अंक एक 2000 में की थी।

मैंने पूछा मुस्लिम होते हुए आप लोगों ने वैदिक परंपरा से अपने को कैसे जोड़ा ? उनका उत्तर था, हमने मजहब बदला है, पूर्वज नहीं बदले हैं। हमारा इतिहास यही है और इस पर हमें गर्व है। मैंने कहा, भारतीय कम्युनिस्ट तो प्राचीन इतिहास के प्रति नकारात्मक रुख रखते हैं। उनका उत्तर था, यदि हम अपने इतिहास से नहीं जुड़ सकते तो अपने समाज से कैसे जुड़ सकेंगे ?

अब इन परिस्थितियों में बांग्लादेश का आज जो हाल है, जिस बांग्लादेश की तस्वीर तस्लीमा नसरीन की आप बीती से सामने आती है, और उग्रवादियों द्वारा हिंदुओं की जिस तरह की हत्याओं के समाचार सुनने को मिलते हैं, ये सभी मिलकर एक ऐसी भूल भुलैया की सृष्टि करते हैं जिसमें मनोवृत्ति, धर्म, शिक्षा, जाति अभिमान और गुमराह करने वाली शक्तियों के बीच के कारनामों को समझे बिना किसी को अच्छा या बुरा कह देना, दूसरों के लिए जितना आसान है, मेरे लिए नहीं।

धर्म के मामले में वे लेखक कुछ दूर तक किताब और रवायत की पाबंदी से मुक्त कहे जा सकते हैं, परंतु उन पाबंदियों से मुक्त भारतीय कम्युनिस्ट मुसलमान संस्कृति की आड़ में उतनी ही कट्टरता और नकारात्मकता से काम लेते हैं जितनी मुल्ला-मौलवी। मुल्लों और मौलवियों का भी सबसे अधिक प्रभाव उत्तर प्रदेश में है। देवबंद और बरेली दोनों इसी के भीतर। उत्तर प्रदेश का मुसलमान दुनिया के कट्टर मुस्लिम देशों की तुलना में भी सुधार के मामलों में अधिक कट्टरता से काम लेता है और बाहर उसी कट्टरता और संकीर्णता का विस्तार करने के लिए आत्मघाती कदम उठाने को तैयार हो जाता है। इन पहेलियों को समझने के लिए हमें कोई भी सरलीकरण काम का नहीं दिखाई देता। सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक शक्तियों के बीच खींचतान की प्रवृत्ति को समझने के लिए इन सवालों का कोई समाधान होना चाहिए।

कुरान मेरा अध्ययन बहुत गहन नहीं है। केवल एक बार आदि से अंत तक पढ़ा है और बीच बीच में जहां तहां से उलटता पलटता रहा हूं, इसलिए अपेक्षित झिझक के साथ ही दावा कर सकता हूं कि मेरी नजर में ऐसी कोई आयत नहीं मिली जिसमें कृतघ्नता की हिमायत की गई हो, चाहे वह व्यक्ति के प्रति हो या समाज या देश के प्रति। कृतज्ञता से शून्य वही व्यक्ति हो सकता है जिसकी अंतरात्मा मर गई हो, जो किसी कीमत पर केवल अपना हित साधने वालों में पाई जाती है।*
{NB * स्पैनियर्ड्स ने अमेरिकी आदिवासियों के साथ यही किया था। अलाउद्दीन से लेकर मीर जाफर तक अनेक सुल्तानों और नवाबों ने यही किया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसका भी सहारा लिया। परंतु सामाजिक व्यवहार के मामले में ऐसा आचरण कुछ अपराधी माने जाने वाली जातियों में, ठगों और उठाईगीरों में ही पाए जाते हैं। मुस्लिम समाज को इनमें नहीं रखा जा सकता है, न ही उसके धर्म ग्रंथों में मुझे इस तरह का कोई संकेत कहीं दिखाई पड़ा। खुदा की बंदगी अपनी जगह है, उसकी तुलना में रखकर किसी दूसरे की वंदना नहीं की जा सकती, इसके बाद भी सलाम बंदगी तो चलता ही है ।}

जो देश हमें आहार से लेकर आवास और सुरक्षा तक सब कुछ प्रदान करता है उसके प्रति कृतघ्नता का प्रकाशन धर्म प्रेरित तो नहीं पर हीनता ग्रंथि से प्रेरित अवश्य माना जा सकता है। ऐसी ही हीनता ग्रंथि का प्रचार मध्य देश के मुसलमानों ने अन्यत्र भी अपनी धौंस कायम करने के लिए किया। ‘हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्ताँ हमारा’ को पाकिस्तान में पहुंचकर ‘मुस्लिम है हम, वतन है सारा जहां हमारा’ करने वाले वे ही थे। उनका तेवर था कि पाकिस्तान उन्होंने बनाया है इसलिए पाकिस्तान पर उनका राज रहेगा, उनकी भाषा राज करेगी (Urdu had been a symbol of Muslim identity during the Hindu-Urdu controversy, .. Muslim league leaders who formed the government still associated it with Islamic and Pakistani identity. T. Rahman) उन्होंने पाकिस्तान बनाया नहीं, हिंदुस्तान को तोड़ा और पाकिस्तान को तोड़ते रहे, क्योंकि उन्हीं की सूझ थी कि मुसलमान का कोई देश नहीं होता, पूरी दुनिया होती है। दूसरे सभी मानते रहे कि मुसलमान का अपना देश और अपना इतिहास ही अपना होता है। बांग्लादेश इसी का उदाहरण था। सिंध देश का नारा लगाने वाले मुसलमान तो हैं पर अपने देश की जमीन और अपने इतिहास से जुड़े हुए हैेः
The conditions of East Pakistan parallel those of Sindh. Like Seikh Mujibur Rahman, the nationalist leader Bangladesh, G.M. Syed, the nationalist leader of Sindh, also advocated the creation of the independent state of Sindhu Desh (Amin 1988:147, cited by Rahman).

सिंधियों की तरह ही पख्तूनों के राष्ट्रीय स्वाभिमान से हम परिचित हैं After the 1930s, the ruling elite promoted Pashto as a means of creating nationalism and unity among tribes which were divisive and understood only the extended kinship system and tribal loyalty. उनके साथ मुहाजिरों के द्वारा की जाने वाली दमन और उत्पीड़न की दर्दनाक कहानियां संचार माध्यमों से सुनने मे आती रहती हैं।

पख्तूनों की तरह ही बलूचियों ने अपनी राष्ट्रीय अस्मिता की घोषणा बहुत पहले कर दी थीः
There is, however, a Balochi language movement since 1951 which aims at preserving the Baloch cultural identity. Baloch identity is expressed by coining words of Baloch origin (Jahani,1989: 233 ) and, indeed, by writing in a language which has little official patronage.

सिराइकी का आंदोलन अपनी उपेक्षा का परिणाम हैः
The southern part of the Punjab is under developed and the leaders of this area blame the Punjabi ruling elite for this underdevelopment. From the nineteen sixties they call their language Siraiki and have standardized it for purpose of writing. The Choice of the term Siraiki from the 1960s meant that the people of southern Punjab could identify with one identity instead of calling their language by local names such as Multani, Derewali, Riasati, and so on. After the famous conference in Multan in 1975 (Kamal 1975: 19-20) a number of institutions – like the Siraiki Lok Sanjh (लोक संझ)– have been promoting the language ..(वही, 230).

और तो और पंजाबी ने भी अपनी गर्दन तान ली और जिंदगी भर अरबी-फारसी गर्भित उर्दू में लिखने वाले फैज को जिन्दगी के आखिरी मोड़ पर यह अहसास हुआ कि उनकी अपनी जबान तो पंजाबी है और वह खामखा उर्दू में लिखते रहे। भूल सुधारते हुए उन्होंने उसके बाद पंजाबी मे ही लिखा।
While the Siraiki movement is clearly a response to perceived Punjabi domination and internal colonialism, the Punjabi language movement is hard to understand. The Punjabis occupy most of the powerful positions in the apparatus of the state: the federal government, legislature, and specially army and bureaucracy and oppose the use of Punjabi even in primary schools… The Activists of the movement claim that the price of Punjabi domination over Pakistan is the denial of the Punjabi ethnic identity. In fact by teaching only English and Urdu to the Punjabi elite, Punjabi language and culture have been suppressed (Qaiser & Pal 1988; Kammi 1988: 15-44). This cultural shame, they feel, should go; Punjabis should learn to be proud of their Punjabi identity. This is only possible if the state uses Punjabi in the Domains of power. (वही, 230-31)।

हम केवल इतना ही याद दिलाना चाहते हैं कि देश और समाज से बिलगाव उन रईसी दिमागों की उपज था जो मुगल सल्तनत के बर्वाद हो जाने के कारण भी थे, उसी खुमार में दूसरों से अलग और ऊपर रहना चाहते थे, और इसलिए किसी की बराबरी पर रहने को तैयार न थे। उन्हें लोकतंत्र स्वीकार न था, वे किसी के प्रति, यहां तक कि स्वयं अपने प्रति भी ईमानदार नहीं रह सकते थे।मुसलमानों को इस आत्मवंचना से बाहर निकलना होगा। तभी वे समाज के सार्थक और उपयोगी अंग बन कर सम्मान और विश्वास दोनों हासिल करके कलाम की तरह जी सकेंगे और दूसरे भी प्रगति के मार्ग पर अधिक आत्मविश्वास से बढ़ सकेंगे।