#भारतीय_मुसलमान: काऊ बेल्ट
बात आज से बीसेक साल पहले की होगी । मैं सप्ताह में एक दिन काफी हाउस चला जाया करता था। पहली बार इस शब्द का प्रयोग अपने एक मुस्लिम मित्र के मुंह से सुना।
संदर्भ बनारस में हुए एक संप्रदायिक फसाद का था। सिल्क के बुनकरों का मालिकों से झगड़ा हो गया था जिसमें उन्होंने तीन दूकानदारों की हत्या कर दी थी। इस बवाल पर काबू पाने के लिए पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई में दस बारह बुनकर पुलिस की गोली से मारे गए थे। मित्र को मलाल था कि सिर्फ तीन मारे गए थे पुलिस ने बारह को मार दिया। तर्कशृंखला इस समय याद नहीं परंतु मित्र काे शिकायत थी कि पुलिस को बदले की कार्रवाई नहीं करनी चाहिए थी। वस्तुपरक ढंग से सोचें तो चाहिए और न चाहिए की कई कड़ियां तैयार होती है।
1. व्यापारियों को कारीगरों को भुगतान करने में इतनी हेरा फेरी या बेईमानी से काम नहीं लेना चाहिए था कि वे आजिज आकर हिंसा पर उतारू हो जायं।
2. यदि व्यापारी बेईमानी कर रहे थे तो भी कारीगरों को कानून अपने हाथ में लेकर सीधी कार्रवाई पर उतारू नहीं होना चाहिए था।
3. यदि हत्या हो गई तो इसे दंगे का रूप नहीं लेना चाहिए था। इसकी रपट थाने में दर्ज कराई जानी चाहिए थी।
4. पुलिस को दंगे में दूसरे तरीके आने चाहिए थे गोली नहीं चलानी चाहिए थी।
5. और हमें इसका निष्पक्ष भाव से मूल्यांकन करते हुए इस समस्या पर विचार करना चाहिए था न कि हिन्दू या मुसलमान के रूप में।
आदर्श वस्तुपरक चिंतन के लिए आदमी को वस्तु बन जाना पड़ेगा। आदमी रहते हुए, प्रयत्न करने के बाद भी, वह प्रकट या गुप्त पूर्वाग्रह का शिकार हुए बिना नहीं रह सकता। इसलिए वस्तुपरकता एक भुलावा है। हम प्रामाणिक होने का प्रयत्न करें और उनसे जो नतीजा निकलता है उस पर भरोसा करें यही हमारे लिए पर्याप्त है।
यह वह दौर था जब कांग्रेस खालिस्तानी कार्ड पर मात खाने के बाद हिंदू कार्ड आजमाते हुए भाजपा को विफल करने का प्रयत्न कर रही थी और जिस दौर में भागलपुर से लेकर मेरठ और मलियाना तक कई उपद्रव हुए थे जिनमें मुसलमानों को पुलिस की भागीदारी के कारण बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी और इसलिए कोई भी घटना जिसमें पुलिस द्वारा मुसलमानों को निशाना बनाया गया हो किसी भी सोचने विचारने वाले व्यक्ति के लिए चिंता की बात थी।
एक दूसरी प्रवृत्ति जो दिखाई पड़ रही थी वह यह कि हर मामले में हिंसात्मक कार्यवाई मुसलमानों की ओर से हुई थी और पुलिस ने बदले की कार्रवाई करते हुए उन्हें भारी क्षति पहुंचाई थी। मेरा सुझाव यह था कि जो स्थिति बन चुकी है उसमें किसी को हिंसा की कार्यवाही करते हुए किसी शिकायत को दूर करने का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए, पुलिस में इसकी रपट करनी चाहिए। मैं ऐसा कहते हुए भी पूरे विश्वास से अपनी बात नहीं कर पा रहा था क्योंकि मुझे लगता था मुसलमानों का पुलिस से भरोसा उठ गया है। पुलिस की भ्रष्टता, पक्षधरता को देखते हुए यदि कोई मान बैठे कि उसे न्याय नहीं मिलेगा साथ ही वह अन्याय सहने को तैयार न हो तो, जो समझे कर बैठने का विकल्प बहुत स्वाभाविक प्रतीत होता है।
यदि अपनी अल्पसंख्यकता के कारण उत्पन्न असुरक्षा की भावना के चलते उसने चुपके से असला जमा कर रखा हो, तो संभवना और भी बढ़ जाती है। यह ऐसा दुष्चक्र है जिसके लिए हम प्रशासनिक विफलता और प्रशासन के इरादे को अधिक दोषी मान सकते हैं बनिस्बत व्यक्तियों के।
यदि लोग घरों में निषिद्ध हथियार इकट्ठा करते हैं तो उसे भी रोक न पाना उसकी अक्षमता में ही गिना जाएगा ।
इसमें संदेह नहीं कि पुलिस का संप्रदायीकरण हुआ है। यह संप्रदायीकारण भी नया नहीं है। यदि नया कुछ है तो सिक्के का उलट जाना। औपनिवेशिक काल में पुलिस की मदद से दंगों को फैलने और भड़कने दिया जाता था। इसी प्रयोजन से पुलिस बल में मुसलमानों की संख्या अनुपात से बहुत अधिक हुआ करती थी।
स्वतंत्र भारत में पुलिस में मुस्लिम अनुपात घटा और हिंदू अनुपात बढ़ा है। पुलिस प्रशासन को बदलने का कोई सार्थक प्रयत्न नहीं किया गया। विभाजन ने सांप्रदायिक चेतना को और विस्तार दिया। पुलिस के क्रमिक सांप्रदायिक करण के पीछे एक बहुत बड़ा कारण यह है छोटी से छोटी तकरार या अफवाह पर मुसलमान सीधी कार्रवाई पर उतर आते हैं और इसका परिणाम होता है हिंदुओं का मारा जाना। हिंदू सामान्यतः हिंसक कार्रवाई में पहल नहीं करते। मुसलमानों की सीधी कार्रवाई के पीछे उनके मन में बैठा यह विश्वास भी एक बड़ा कारण है कि पुलिस उनसे सहानुभूति नहीं रखती और उल्टे उन्हें ही दोषी सिद्ध करने को तैयार रहती है। अल्पसंख्यकता जन्य असुरक्षा के कारण हथियार जुटाने की प्रवृत्ति पनपी, और हथियार हैं तो आवेश में आने पर उन पर हाथ जाना मोटर ऐक्शन जैसा है। इस तरह एक दुश्चक्र बनता है जिसमें अपराधी को चिन्हित कर पाना आसान नहीं होता।
कॉफी हाउस की बहसें कॉफी हाउस की ही बहसें हो सकती है जो कुछ समय तक साथ बैठने का बहाना होती हैं, किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए नहीं की जातीं। परंतु इस प्रसंग में उस मित्र द्वारा हिंदी प्रदेश के लिए काउबेल्ट का प्रयोग मुझे इसलिए बहुत विचित्र लगा कि वह स्वयं हिंदी का समादृत लेखक था।
यह जानता था कि इसका प्रयोग अंग्रेजी के लोग हिंदी से अपनी खीझ मिटाने के लिए करते हैं। उसका कारण भी है। हिंदी अंग्रेजी के प्रभुत्व को चुनौती देती रहती है। सामान्य व्यवहार में अशिक्षित और अल्पशिक्षित भारतीयों के बीच संपर्क की भाषा हिंदी है, न कि अंग्रेजी। इसलिए उनकी मनोग्रंथि को समझते हुए लिए मैंने यह जानते हुए भी कि यह एक तरह की गाली है, इसको कभी महत्व नहीं दिया था। परंतु हिंदी का एक लेखक हिंदी भाषी क्षेत्र के लिए स्वयं इसका प्रयोग करे, यह एक अलग बात थी। इसके पीछे उसकी चेतना में हिंदी प्रदेश को हिंदू प्रदेश के रूप में देखने की विवशता थी।
इसमें संदेह नहीं कि कुछ अपवादों को छोड़कर औपनिवेशिक काल से आज तक हिंदी प्रदेश में सांप्रदायिक उपद्रव अधिक होते रहे हैं। पहली नजर में उसकी प्रतिक्रिया वहीं थी जिसमें हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान तीनों को सांप्रदायिक रंग में रंग कर देखा और दिखाया जाता रहा है।
गालियों का व्याकरण नहीं होता न उनका अर्थ विज्ञान होता है सभी का अर्थ केवल उस व्यक्ति का या संस्था का अपमान करना होता है जिसके लिए इसका प्रयोग किया जा रहा है। प्रयोग बदल सकते हैं प्रयोजन एक ही रहता है। फिर भी अर्थ तो होता ही है। काउबेल्ट का एक अर्थ है, पिछड़ी मानसिकता का प्रदेश। आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ प्रदेश। उद्योग धंधों से रहित प्रदेश। गोधन की रक्षा के लिए तत्पर प्रदेश। जड़ता का प्रदेश, सांप्रदायिक उपद्रवों का प्रदेश। कुछ और भी हो सकता है, पर होगा निंदापरक ही।
परंतु वह कौन सी विशेषताएं हैं जिन के कारण मध्य काल से पहले तक और उसके बाद भी कुछ समय तक ज्ञान और चिंतन का केंद्र माने जाने वाला क्षेत्र अज्ञान का क्षेत्र बन गया। शांति और सद्भावना का संदेश देने वाला क्षेत्र दंगों का क्षेत्र बना दिया गया। समृद्धि की दृष्टि से अपनी उर्वरता के कारण विश्व का सबसे उपजाऊ माना जाने वाला क्षेत्र निर्धनता के लिए जाना जाने लगा। इस बीच घटित क्या हुआ जिनका वह परिणाम दिखाई देता है जो इस गाली में ध्वनित है।
वह क्षेत्र जिसे पहले मध्यदेश कहा जाता था, और जिसे तुर्कों ने हिंदुस्तान की संज्ञा दी और जो बंगाल और पंजाब दोनों को हिंदुस्तान के रूप में दिखाई देता रहा है यही वह क्षेत्र है जो लगातार मुस्लिम शासन में बना रहा है। यही वह क्षेत्र है जहां कुछ भागों मे लगान के रूप में दो तिहाई तक की वसूली की जाती रही। यही क्षेत्र है जहां अपनी जमीदारियां मुसलमान सरदारों ने अधिक कायम कीं, इसी ने 1857 के विद्रोह में दूसरों से बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और इसलिए अंग्रेजों ने इसे सभी दृष्टियों से वंचित कर के रखने का निश्चय किया। यही वह क्षेत्र है जिसके कामकाज में फारसी का सबसे लंबे समय तक प्रयोग जारी रहा। यही वह क्षेत्र है जिसे अपनी लिपि के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी, और यही व क्षेत्र है जो स्वतंत्रता संग्राम की धुरी बना रहा। इसी में रईसों की पार्टी मुस्लिम लीग सबसे अधिक सक्रिय रही,और इस बात की धमकी देती रही कि हमारे अनुसार न चलोगे तो दंगे किए जाएंगे। दुर्भाग्य से वैचारिक जगत पर इस क्षेत्र में वामपंथी सोच सबसे प्रबल रही जब कि राजनीतिक गतिविधियों में वामपंथ इस क्षेत्र में लगभग गायब रहा। यही वह क्षेत्र है जिसमें इतने कटु अनुभवों के बाद भी कभी क्षेत्रीय संकीर्णता नहीं आई और दुर्भाग्य से यहीं के कम्युनिस्टों ने रईसों के मुस्लिमलीगी मंसूबों को पूरा करने के लिए लीग को जनान्दोलन का रूप देकर देश का विभाजन कराया। यदि इस क्षेत्र में सबसे कमजोर रहा तो वह है हिंदूवादी दक्षिणपंथ, फिर इसे वैभव क्षेत्र से काउबेल्ट मे बदलने के लिए जिम्मेदार कौन है?