#भारतीय_मुसलमान : #माइनॉरिटी_सिंड्रोम (5)
दो
संख्यावृद्धि करते हुए अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक होने की कोई योजना विभाजन से पहले मुस्लिम लीग के पास भी नहीं थी। उस दौर में कई हिंदू महिलाओं ने मुसलमानों से विवाह किया था – कृष्णा हठी सिंह, लक्ष्मी सहगल, इंदिरा गांधी, अरुणा आसफ अली – परंतु उनमें ऐसा कुछ न था जिससे हिंदू भावना आहत होती। विभाजन के दौरान हुए उपद्रवों में हिन्दू स्त्रियों के साथ कई तरह की दरिंदगी के नमूने मिले, जिनमें एक अपहरण भी था। इसने हिंदुओं और विशेष कर इस अपमान को सहने वालों की संवेदनशीलता को बहुत गहरे प्रभावित किया। बहुत हो गया, अब नहीं सहन करेंगे। इसका एक नमूना था, दिल्ली में जहां कांग्रेस का एकक्षत्र राज था, एक हिंदू लड़की के मुस्लिम युवक (कम्युनिस्ट नेता के पुत्र) से विवाह के समाचार ने इतना विक्षोभ पैदा किया कि पासा पलट गया। पहली बार मदन लाल खुराना दिल्ली के प्रधान बने और तब से आज तक भाजपा दिल्ली में नं. 1 या 2 पर बनी रही है।
राष्ट्रवादी माने जाने वाले मुस्लिम नेताओं की सोच पहले भी संप्रदायवादी थी, परंतु उसकी सद्भावपूर्वक उपेक्षा की जाती रही। कम्युनिस्ट चोलाधारी मुसलमान मुख्यतः उन्हीं चिंताओं के कारण कम्युनिस्ट बने थे जिनसे ग्रस्त उनसे पिछली पीढ़ी के लोगों ने मुस्लिम लीग बनाई था, यह हम कह आए हैं। इन संगठनों से जुड़ने वाले मुस्लिम युवक हिंदू लड़कियों से मेलजोल बढ़ा कर निकाह करने को अपने सेकुलर होने के प्रमाण के रूप में दर्शाते रहे और हिंदू सेकुलर इसे इसी रूप में दरसते रहे जब कि हिन्दुत्व की रक्षा में कातर इसे भारत मे मुस्लिम इतिहास के आरंभ से ही हिंदुओं के अपमान की अटूट शृंखला से अलग देख नहीं पाते हैं और अपनी इस ‘संकीर्ण’ सोच के कारण अपने को खांटी सेकुलर सिद्ध करने को आतुर हिंदू सेकुलरिस्टों की भर्त्सना का शिकार होना पड़ता रहा है।*
{nb. * मेरा यह कथन कि सेकुलरिस्टों को सेकुलर सिद्ध करने की आतुरता पद-व्याघात प्रतीत हो सकता है, परन्तु हिन्दू सेकुलिरस्ट को अपने प्रत्येक कथन और कार्य से इसे उसी तरह प्रमाणित करते रहना होता है जैसे मिंट में काम करने वाले को रोज इस जांच से गुजरना होता है कि वह कुछ चुरा कर तो नहीं ले जा रहा है। ईमानदारी की एक परीक्षा काफी नहीं। मऩ वचन, कर्म से कहीं कोई चूक पाई जाने पर यह प्रमाणपत्र वापस ले लिया जाता है। इसका प्रभाव इतना आतंककारी है कि मैं जानता हूं मेरे अनेक सेकुलर मित्र जो मेरे विचारों से सहमत होते हैं, अपनी ‘हां’ – ‘ना’ की पसंद तक जाहिर नहीं कर पाते।
परीक्षा कितनी कठिन हो सकती है इसका एक व्यक्तिगत अनुभव यह कि मेरे अतिशय प्रिय और हितैषी मित्र एक मुस्लिम युवक के साथ मेरे घर पर आए। वह पूरे परिवार के आत्मीय थे और घर की सारी खबर रखते थे। मेरे मकान का पहली मंजिल का सूट खाली था। बताया कि उसे मुसलमान होने के कारण कोई किराये पर मकान नहीं दे रहा। यदि वह यह सोच कर आए थे कि किसी को मुस्लिम होने के कारण मैं इनकार न करूंगा, तो ठीक ही सोचा था। पर जब मैंने जानना चाहा कि जहां अभी रह रहे हैं वहां क्या परेशानी है तो पता चला उनका एक विवाहिता शिष्या से प्रेम हो गया है और उसके साथ रहना चाहते हैं। इस क्रम में यह भी पता चला कि ओडिशा में उनकी विवाहिता पत्नी हैं। मेरी मनस्थिति का अनुमान ही किया जा सकता है। मैने उन्हें किन शब्दों में विदा किया यह याद नहीं। मेरे मित्र कैंपस से दूर स्थित एक वोकेशनल कॉलेज में पढ़ाते थे, जब कि वह कैंपस के किसी कॉलेज में। संपर्क का कोई सूत्र नहीं। वह मुझे धोखे में नहीं रख सकते थे, उसके सामने ही स्थिति स्पष्ट कर दी। ऐसी दुस्साहसिकता की मुझसे अपेक्षा भी नहींं रखते रहे होंगे, फिर भी किसी के द्वारा सेकुलर सिद्ध होने की इस परीक्षा में डाल दिए गए थे। उनके सेकुलर पहचान पर तो असर न पड़ा होगा, मैं अवश्य इसमें फेल हो गया।
मैने सेकुलरिज्म की कसौटी पर सही सिद्ध होते रहने की यातना और इसी प्रयत्न में रोज कुछ विचित्र, पर सेकुलर दायरे में ’क्या खूब कही, क्या बात कही’ की हर्षध्वनि से स्वागत की जाने वाली फिकरेबाजियां करने वालों के विषय में अपनी धारणा एेसे कई अनुभवों के बाद बनाई है। यदि ऐसी घटनाएं इस पृष्ठभूमि से अलग सुनाई पड़तीं तो मैं इनकी नोटिस नहीं ले पाता।}
राष्ट्रीय स्तर पर पहले के अधिक प्रभावशाली दलों को हाशिए की ओर ठेलते हुए, नगण्य सी हैसियत वाली भाजपा के एक मात्र विकल्प बनते जाने के कारणों की गहराई से कभी पड़ताल नहीं की गई। अंधेरे में तीरंदाजी काफी आसान होती है। पर मुसलमानों की विविध सवालों पर प्रतिक्रियाएँ, सेकुलर मुखौटे वाली सांप्रदायिक सोच का उसके साथ जुड़ाव, हिंदुत्ववादी सोच के क्रमिक विस्तार लिए रास्ता तैयार करता रहा है, यह मानना गलत न होगा।
स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान, जिन्ना की रट के बाद भी भारतीय मुसलमानों की चेतना में दूर दूर तक अपनी असुरक्षा का भाव पैदा नहीं हुआ था? इसका एक कारण तो यह था कि भारतीय मूल के मुसलमान अपने काम-धन्धे में लगे हुए लोग थे। जब तक उनका काम-धंधा प्रभावित नहीं होता, तब तक उनको इस बात से फर्क नहीं पड़ता था कि राज किसका है। भारतीय ग्रामीण मानस का वही सामान्य भाव उनमें भी था जिसे तुलसीदास ने ‘कोउ नृप होय हमैं का हानी, चेरि छोड़ि नहि होउब रानी’ द्वारा व्यक्त किया है।
धर्म परिवर्तन जिन भी कारणों से हुआ हो कुछ पेशे जिनके बिना हिंदुओं का काम न चल सकता था, मुसलमानों के हाथ में थे और उनकी रोजी-रोटी हिंदू गाहकों से चलती थी। इस ताने बाने में आपसी निर्भरता के कारण ऐसा जुड़ाव था कि तनाव की बात सोची न जा सकती था। यह शहरी समस्या थी।
परंतु वे लोग जो अपनी सुरक्षा की चिंता से शहरों में बसे थे, जो किसी काम धंधे से नहीं जुड़े थे, कोर्ट-वकालत कर लेते थे, मनोरंजन के लिए शिकार कर लिया करते थे, पुरानी गौरव गाथा में तलवार के जोर की बात किया करते थे और इस प्रयत्न में रहते थे कि उनका संबंध ईरान से या अरब से से जुड़ सके, असुरक्षा की भावना और और हैसियत लेकर चिंता उनके मन में प्रबल थी। वे ही ब्रिटिश काल में सत्ता के समर्थन से उपद्रवों के माध्यम से हिंदुओं को आतंकित करते हुए निश्चिंत होना चाहते थे फिर भी हो नहीं पा रहे इसलिए साथ रहने को असंभव बनाते हुए एक अलग देश की मांग को जायज ठहरा रहे थे। सचाई यह है कि वे हिंदुओं से नहीं मध्यकाल के अपने ही कारनामों से और उसकी काल्पनिक परिणति से डरे हुए थे और इसके बाद भी उसी मध्यकाल को वापस लाना चाहते थे जिसके लिए उन्हें एक अलग देश की जरूरत थी। अली सरदार जाफ़री ने लिखा तो किसी काल्पनिक यथार्थ को लेकर है परंतु मध्यकाल का इससे सुंदर चित्रण नहीं हो सकताः
तेग़ मुन्सिफ़ हो जहाँ, दार-ओ-रसन हों शाहिद
बेगुनाह कौन है उस शहर में क़ातिल के सिवा।
पाकिस्तान इसी कल्पना की देन था, और इसी ने उसको वहां पहुंचाया है जहां वह आज है।
चिंता नहीं माइनारिटीज सिंड्रोम से उबरने के लिए भारत में जो मुहिम चलता रहा है उसकी सच्चाई यह है मुसलमान जब तक किसी क्षेत्र में अल्पमत में रहता है असुरक्षित अनुभव करता है, यदि बहुमत में हो गया तो दूसरों को मिटाने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। उसकी क्रूरता तब तक बनी रहती है जब तक दूसरा पूरी तरह मिट नहीं जाता। वे अपनी सुरक्षा की चिंता करें यह भी उसे चुनौती जैसा प्रतीत होता है।
एक आलोचक ने कभी लिखा था इस्लाम रेगिस्तान का मजहब है और जहां भी पहुंचता है उसे रेगिस्तान में बदल देता है। पढ़ने पर लगा था टिप्पणी कठोर है और मुसलमानों के प्रति द्वेष से भरी हुई है, परंतु थोड़ा रुक कर सोचने पर लगता है कि सच्चे मुस्लिम का सबसे प्यारा पेड़ खजूर है, सबसे ठंडी छांव खजूर के नीचे मिलती है, सबसे सुंदर पंछी बुलबुल, क्योंकि शायद इसके सिवा वहां कोई दूसरा परदेसी पक्षी नहीं पहुंचता। जाहिर है, ऐसी अवस्था में सबसे प्यारा देश मरुस्थल ही होगा।
धर्म पर पर कुछ न कहेंगे। दुनिया के सभी धर्म ग्रंथ कुछ नैतिक और काफी सारे अनैतिक विधानों से भरे हुए हैं। दूसरे धर्मों की बुराइयां हमें सबसे पहले दीखती हैं। अपने धर्म या विश्वास की अच्छाइयों पर ही ध्यान जाता है। परंतु भौतिक जीवन के विषय में टिप्पणी अवश्य की जा सकती है। हिंदी में बहुत साहस करके फिल्म बनाई गई थी- बाजार। इसके माध्यम से अरब देशों के अधेड़ और बूढ़े सौदागरों के लिए कुछ समय के लिए निकाह करने, या लंबे समय के लिए जोरू बनाए जाने के पूरे संजाल का चित्र खींचा गया था, जिसमें दलाल से लेकर काजी तक का हाथ था। पाकिस्तान में ‘सरेआम’ नाम से एक तहलका मचाने वाले टीवी चैनल ने एक मोहल्ले का नक्शा पेश किया था जिसके विषय में उसका दावा था कि उस इलाके में जानकारी के लिए घुसने वाला व्यक्ति जिंदा वापस नहीं आ सकता, क्योंकि पुलिस भी उनसे मिली हुई है इस मोहल्ले में तस्करी करके लाई गई हर उम्र की लड़कियां व्यापार के लिए किसी भी देश को भेजने के लिए रखी घरों में कुछ संख्या में।
धर्म एक ही होते हुए, खरीदार और बिकने वालों की मानसिकता को आसानी से समझा जा सकता है। मजहब साथ नहीं देता। पैसा साथ देता है। अर्थव्यवस्था धर्म व्यवस्था से ऊपर है इस बात को समझने में मुसलमानों को कितने युग लगेंगे, वे ही समझ सकते हैं। अर्थव्यवस्था आदमी को दुनिया से जोड़ती है, समाज से जोड़ती है, दूसरे धर्मों के लोगों से जोड़ती है क्योंकि काम स से जोड़ती है, जमीन से जोड़ती है, देश से जोड़ती है, और जब जमीन की धूल माथे पर लगती है तब वंदे मातरम् पर भड़कने की जरूरत नहीं होती।