#भारतीय_मुसलमान : #माइनॉरिटी_सिंड्रोम (5)
एक
माइनॉरिटी सिंड्रोम की सबसे उलझी हुई समस्या, अपनी जनसंख्या में वृद्धि करके अल्पसंख्यता दूर करने की त्रासदी भरी सूझ है। इस बात पर बहस होती आई है कि इस तरह की समस्या काल्पनिक है या वास्तविक, दुष्प्रचार है या सचमुच चिंता का विषय। जिनके लिए यह चिंता का विषय है उनको झुठलाने के लिए हमारे पास यथेष्ट प्रमाण नहीं है। जो प्रमाण हैं, वे उनकी आशंका को सही सिद्ध करते हैं, परंतु जिस रूप में वे इसे देखते हैं, उसमें अवश्य इकहरापन है।
मुस्लिम समाज में जनसंख्या बृद्धिदर अन्य सभी देशों की तुलना में अधिक है। बहु-विवाह का चलन लगता है अब केवल मुसलमानों में ही बाकी रह गया है। मुसलमानों के शिक्षित मध्य वर्ग में यह अपेक्षाकृत कम है, परंतु जहां समाज को रास्ता दिखाने का काम करने वाले फिल्मी अभिनेता तक कई कई विवाह करते हो, वहां इस तरह का कथन, सच होते हुए भी, इससे घबराए लोगों के गले नहीं उतरता। इसमें भी इन अदाकारों का अपनी पसन्द की युवतियों का हिंदू पृष्ठभूमि से चुनाव कई तरह के अंदेशे खड़ा करता है जिनसे यह आभास होता है कि यह किसी योजना के तहत किया जा रहा है। बाजार में किसी उत्पाद की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए फिल्मी सितारों का उपयोग किया जाता है, यहां भी कुछ वैसा ही देखने में आता है, पर यह पता नहीं चल पाता कि इसके पीछे काम करने वाली ताकत कौन हे। यदि वही हो, जिसके पैसे पर, उसके कारनामों को मनोरंजक बनाने के लिए सभी तरह के अपराधों को केन्द्र में रख कर फिल्मों के स्क्रिप्ट लिखे जाते रहे, फिल्में बनाई जाती रहीं, ईमानदार पुलिस अधिकारियों की बर्वादी दिखाई जाती रहीऔर कपड़े उतारने वाली अभिनेत्रियों की होड़ होती रही और इन पर डरते डरते कैंची चलाने वाले सेंसर को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार करने वाला सिद्ध किया जाता रहा, तो आश्चर्य की बात न होगी। यह इस समस्या का एक पक्ष है जिसको लवजिहाद का प्रयोग और विज्ञापन दोनों कहा जा सकता है।
दूसरा पक्ष है पड़ोसी देशों से राजनीतिक कारणों से आबादी का आयात करके उसे संरक्षण देते हुए बसाने और बसाने वाले का वोट बैंक बढ़ाने की कोशिश, जो फखरुद्दीन अली अहमद के मुख्य मंत्रित्व के समय में असम से आरंभ हुई थी और जिसका विस्तार होता रहा और घबरा कर असम के छात्रों को हिंसक आंदोलन का रास्ता अपनाते हुए एक आतंकी संगठन में बदलना पड़ा। रोचक है सेकुलर सोच का दावा करने वालों का, इसकी याद दिलाने वालों को हिंदुत्ववादी मानसिकता का बता कर, सचाई से मुंह मोड़ना और इस पर अपने को दूसरों से एक सेंटीमाटर ऊंचा अनुभव करना।
एक तीसरा पक्ष धार्मिक कट्टरता का है जिसमें अपनी संख्या को अधिक से अधिक बढ़ाना और जो आपत्ति करे उसे मिटाना एक धार्मिक कर्तव्य बन जाता है। प्राचीन समाजों में परिवार नियोजन की न कल्पना थी न उपाय। आधुनिक काल में ही दूसरे सभी मतों के लोगों ने कुछ झिझक के बाद पुरानी मान्यताओं में संशोधन करते हुए परिवार नियोजन की युक्तियों को अपनाया और यथासंभव पालन किया, पर तार्किकता से परहेज करने के कारण मुसलमान धार्मिक दृढ़ता के साथ इन तरीकों का विरोध करते रहे और आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं के फल-स्वरूप शिशु मृत्युदर में कमी के कारण पहले की अपेक्षा और परिवार नियोजन पर अमल करने वालों की तुलना में अधिक तेज गति से बढ़ते रहे।
और अंतिम है गरीबी जिसमें पेट भर खाने के मोहताज भी अधिक से अधिक बच्चे पैदा करके बच्चों की कमाई से सुख सुविधा की कामना पूरी करना चाहते हैं या अपने बल बूते पलने और बढ़ने को छोड़ कर बहुत छोटी उम्र में एक खतरनाक दुनिया को सौप देते हैं।
कहें विविध कारणों से सभी मुस्लिम देशों में आबादी का विस्तार अन्य देशों की तुलना में अधिक तेजी से हुआ है। पाकिस्तान के एक टी.वी. संवाद में मैं यह सुनकर हैरान था की वृद्धि दर के नियंत्रण में यदि भारत को सफलता मिल सकती है तो पाकिस्तान को क्यों नहीं। बहस करने वालों ने शायद इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि पाकिस्तान की वृद्धि दर भारत से अधिक है इसका कारण यह है कि पाकिस्तान मुस्लिम देश है और भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं। पाकिस्तान से ही मिलती-जुलती या हो सकता है उससे भी कुछ ऊंची दर बांग्लादेश की होगी जो अपनी पूरी आबादी को संभाल नहीं सकता और वह चोर दरवाजे तलाश कर दूसरे देशों में पहुंचने की कोशिश में लगी रहती है, भले वहां जाकर छोटा से छोटा काम क्यों न करना पड़े।
उनका यह पलायन क्या साबित करता है? यह इस बात की घोषणा है कि देश के बंटवारे का प्रस्ताव मुसलमानों के लिए अधिक दुखद रहा है। भारतीय राजनीतिज्ञों ने जिस बात का पूर्वानुमान किया था कि बंटवारा विफल हो जाएगा वह गलत नहीं था, पर उन्होंने जो यह आशा की थी कि बांटनेवाले इस भूल को स्वीकार करेंगे और देश फिर एक हो जाएगा, इसलिए किसी को अपनी जगह से पलायन करने की जरूरत नहीं है, वह उनकी मूर्खता थी। वे मुस्लिम मिजाज को नहीं समझ सके थे। मुसलमान गलतियां करने के बाद भी गलती मानते ही नहीं, इसलिए कभी गलत होते ही नहीं। परंतु जिस देश में चोर की तरह भागकर किसी कीमत पर रहना चाहते हैं वह उन्हीं का देश था। उसमें वे पूरे अधिकार और सम्मान के साथ रहते थे और रह सकते थे और उस दशा में उन्हें अपने घर से भागने की भी जरूरत न होती। कारण हिंदुओं के जिस देश से वे अलग हुए उसी के लोगों को इस बात का अनुभव था कि अर्थव्यवस्था कैसे चलाई जाती है, उद्योग-धंधे कैसे चलते हैं। इस सच्चाई को दुखी मन से सर सैयद अहमद ने भी स्वीकार किया था।
वे रईस जिनके दल ने आम मुसलमानों को धोखे में रखकर राजा बने रहने के लिए देश का बंटवारा किया वे केवल मौज मस्ती करना जानते थे, दूसरों के खून पसीने पर पलते हुए वे उन्हीं को नमक हराम कहते हुए इस एक मामले में वे अपनी उपाधि को उन्हें सौंप कर गर्व अनुभव कर सकते थे। पाकिस्तान से लौट कर आने वाले बताते हैं कि आज भी पाकिस्तान में ऐसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी है। पाकिस्तान के भाग्य का फैसला वे करते हैं। आतंक उनके इशारों पर पलता है। परंतु पूरे देश का भाग्य उनके नेतृत्व में क्या हो गया है, वे इसकी जिम्मेदारी लेना नहीं जानते।
ऋग्वेद की एक अर्धर्च है – बहु प्रजा निर्ऋतिं आ विवेश। अधिक संतान पैदा करने वाला आफत मोल लेता है। इसके विपरीत सामी मतों का संदेश है अपनी संख्या अधिक से अधिक बढ़ाओ, प्रालिफरेट ऐंड डामिनेट। अंतर यह है कि ऋग्वेद के समय में भी भारत उद्योग-व्यापार में बहुत आगे बढ़ा हुआ था और परिश्रम को अपने लिए गर्व की बात समझता था- मा भेम मा श्रमिष्म – न डरें, न थकें। इसकी सृष्टि अवधारणा के साथ भी श्रम और तप और फिर थकान और उसके बाद फिर नई ऊर्जा से श्रम और तप करने की प्रक्रिया से आदि जल या ससार रस धरती में परिणत होता है। इसका कुछ प्रभाव भारतीय समाज की चेतना पर अवश्य पड़ा होगा। अनायास ही तो नहीं है कि बार बार लूटने के बाद भी यह देश दुनिया का सबसे समृद्ध देश माना जाता था और इसे लूट कर ले जाने वाले कुछ ही दिनों में मौजमस्ती के बाद कंगाल होकर भुक्खड़ों का जत्था जुटाकर फिर हमला करने आ जाते थे। जीते तो डट कर खाएंगे वरना मारे जाएंगे। काम करना उन्होंने भी नहीं सीखा, उनकी संतानों ने भी नहीं सीखा। माफिया डॉनों की तरह हत्या लूट और उसके बाद अपने गुप्त ठिकानों पर मौज मस्ती। इस मौज-मस्ती से अलग नैतिक, भौतिक, आर्थिक किसी भी दृष्टि से उन्नत जीवन की कल्पना तक नहीं कर सके और देश का इतिहास लिखने वाले लुटेरे, लुटेरों को बार-बार नई ऊर्जा लेकर आने वाला सिद्ध करते रहे और इस की जलवायु को लोहे से लेकर दिमाग तक में फफूंद पैदा करने वाला सिद्ध करते रहे। हमारे इतिहासकार इसी दृष्टि को अपनाकर मध्यकाल को भारत में सभ्यता के प्रवेश का युग सिद्ध करने के लिए अकादमिक दरिंदगी करते रहे। पराधीन समाज को कितनी मूर्खतापूर्ण बातें दिव्य ज्ञान के रूप में समझाई जा सकती है और, उसे समझ कर, वह गर्व अनुभव कर सकता है, इसका कोई अंत नहीं।