#भारतीय_मुसलमानः माइनॉरिटी सिंड्रोम
किसी देश में बसे हुए तरह तरह के लोग, वे वहीं के मूल निवासी हों या कहीं बाहर से आकर बसे हों, संख्या में कम या अधिक होने के कारण कभी अल्पमत या बहुमत की श्रेणियों में रखकर अपने या दूसरों के बारे में नहीं सोचते। कोई नहीं जानता कितने सौ या हजार साल पहले आभीर और गूजर इस देश में आकर पशुचारी जीवन जीते हुए विचरते रहे, आज तक कुछ उसी अवस्था में हैं, जब कि दूसरे अनेक जत्थों ने यहां कई क्षेत्रों में अपनी सत्ता कायम की। हजारों या लाखों यहूदी आकर बसे थे। पश्चिम का कोई देश नहीं जहां वे चैन से रहने पाए हों, जहां उनसे नफरत न का जाती रही हो, भारत में वे ऐसे रहे कि किसी को पता ही न चला कि वे किसी से अलग हैं, जब कि वे अपने धर्म रीति नीति का बेरोक टोक पालन करते रहे। पारसी आकर बसे और अपनी रीति-रिवाज, धर्म का पालन करते रहे उन्हें किसी तरह की असुविधा न हुई, जब कि सिनेमा में, जिसे भारतीय भाषाई यथार्थ को भूलकर उर्दू सिनेमा बनाने की कोशिश की जाती रही और जिसमें कथालेखन का काम मुसलमान लेखकों ने संभाल रखा था, उनका चित्रण कंजूस, धोखेबाज, काइयां रूप में किया जाता रहा। ईसाई या ऐंग्लोइंडियन चरित्रों में महिलाएं ही – सस्ती, बाजारू और तस्करी आदि करने वाली – स्थान पाती रहीं। इनके साथ तो संख्याबल का भी प्रश्न न था। फिर सामान्य भारतीय आचार के विपरीत इन लेखकों ने उन्हें अपमानित करने का लगातार प्रयत्न क्यों किया?
उच्चारण और टीका चंदन को ले कर दक्षिण भारतीयों का उपहास तथा हिंदुत्व सूचक लक्षणों और प्रतीकों – चोटी, चुटिया, चंदन, यज्ञोपवीत को इसी क्रम में रखा जा सकता है परन्तु हिन्दू तो बहुसंख्यक थे। उनके साथ इस तरह की छेड़छाड़ क्यो? किसलिए? माइनारिटी मेजारिटी को तिरस्कृत कर रही है या माइनारिटी का रोना रोने वालों ने अपने से भिन्न किसी समाज और मूल्यव्यवस्था को गर्हित सिद्ध करने की जिद पाल रखी है? इसका संदेश क्या है ? जो कुछ इस्लाम सम्मत नहीं है वह निंदनीय है और अपमान तथा गर्हणा का पात्र है।
ऐसा क्यों है कि हिंदू समाज इस तरह नहीं सोचता यद्यपि वह किसी को अपना बनाता भी नहीं। सबको अपने ढंग से जीने और अपने रीति रिवाज का निर्वाह करने की छूट देता है। भारत का आम मुसलमान भी इन मामलों में हिन्दुओं की तरह ही सोचता है, भिन्नता का आदर करता है, अकारण किसी का अपमान नहीं करता। उसकी प्रतिक्रिया हिंदुओं से अलग नहीं होती इसका कारण यह है कि वह उसी समाज का हिस्सा है। फिल्मी कथा लेखन करने वाले मुसलमान, आम मुसलमानों से ऊंचे दर्जे के हैं या इसका दावा करते हैं। इनकी जड़ें इस देश से बाहर हैं, यहां ये अमरबेल की तरह समाज और मूल्य व्यवस्था पर छा जाने वाले उपजीवी वर्ग का होने पर गर्व करते है। मानसिकता का यह भेद और इसका अंदरूनी टकराव समझे बिना हम भारत की सामाजिक बेचैनी को सही ढंग से नहीं समझ सकते।
हम जिस बात पर बल देना चाहते हैं वह यह कि आक्रमणकारी होकर भारत में आने वाले और यही बस जाने वाले अलग से पहचाने नहीं जा सकते, परंतु आक्रमणकारी हो कर आने वाले, और इस आधार पर अपने को स्थानीय जनों से भिन्न मानते हैं कि उनको उन्होंने परास्त किया और उन पर शासन किया, इसलिए उनको अपनी बराबरी पर नहीं रख सकते। बइस फर्क को बनाए रखने की चिंता जिनमें प्रधान है वे ही अल्पसंख्यता सिंड्रोम के शिकार हैं जो सब कुछ खो जाने के डर से अपना रुतबा, और उस रुतबे से जुड़ी हर चीज को बनाए रखने के लिए तरह-तरह के तरीके अपनाते और समस्याएं खड़ी करते रहे हैं।
18वीं शताब्दी के मध्य तक उनकी मनो रचना ऐसी नहीं थी, उनका कुछ लुटा नहीं था। वह अपनी स्थिति से संतुष्ट थे और अपनी जमीन से जुड़ने के लिए प्रयत्नशील थे। नव्यन्याय के संरक्षण का काम मुख्यतः उन्होंने संभाला था। १७५७वर्ष मुस्लिम इतिहास में एक दुर्भाग्यपूर्ण काल के रूप में उपस्थित हुआ। एक ओर प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की हार, दूसरी ओर दिल्ली पर अहमद शाह अब्दाली के एक पर एक हमले जिनमें सबसे भयंकर १७५७ का कत्ले आम था । इस दुहरी चोट से मुस्लिम सत्ता अवध से लेकर दिल्ली तक भी खोखली हो गई ।
विनाश का आभास और आत्मरक्षा की चिंता इसी समय से आरंभ हुई। इससे उबारने के नाम पर मुसलमानों को अपना औजार बनाने के लिए उनमें अपने जैसा विदेशी होने का भाव, शासक होने का भाव, शक्ति के बल पर अल्पसंख्यक होते हुए भी सत्ता अपने हाथ में रखने की काबिलियत, क्षति पूर्ति के रूप में मुसलमानों की चेतना में उतारने का काम उन्होंने आरंभ किया जिन्होंने उनका सब कुछ लूट कर उन्हे भिखारी बना दिया था।अन्यथा अपने रीति रिवाज विश्वास और धर्म को लिए वे दूसरों की तरह इस देश के सपूत बन कर किसी भी अलगाववादी भावना से मुक्त होकर रह सकते थे। अपनी इस योजना में उन्होंने किन युक्तियों और संस्थाओं का उपयोग यह हमारी जानकारी में नहीं है । परंतु जो कुछ पहली बार देखने में आया वह कुछ तो हम पहले बयान कर आए हैं और कुछ प्रसंग वश याद कराए जा सकते हैं जिनमें से एक है सबसे प्रबुद्ध वर्ग में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना पैदा करके धार्मिक कट्टरता का प्रकारांतर से समर्थन करते हुए अपने वजूद को बनाए रखने का तरीका।
गालिब को अपनी कविता पर जितना गर्व था उससे अधिक इस बात पर कि सौ पुश्त से उनके पुरखे तलवारबाजी या सिपहगरी करते रहे हैं, कविता की नजाकत पर जितना गर्व था उससे अधिक भाषा को फारसी बनाने पर था। उनके जन्मशती पर उनकी वंश परंपरा की संभवतः अंतिम निशानी एक वृद्धा कह रही थीं कि उनके खानदान में शादी के रिश्ते ईरान से ही किए जाते रहे हैं। फैज प्रगतिशील कवि थे पर गुरूर इस बात पर कि वह सुल्तानी बू सुल्तानी छिन जाने के बाद भी आज तक बची हुई है – सरे खुशरू से ताजे कज कुलाही छिन भी जाती है, कुलाहे खुशरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती। यह बू उन्नीसवी शताब्दी के बाद की उर्दू कविता में ही नहीं तथारचित उर्दू सिनेमा और उसके मुस्लिम अदाकारों में लक्ष्य किया जा सकता है। वे ही अपनी संतान का नाम तैमूर रखने या गजनी की याद ताजा करने पर गर्व कर सकते हैं।
हमने आज तक जो कुछ देखा है उसमें किसी समाज में रहने के दो तरीके हैं एक निबाह का दूसरा टकराव का। पहले से समाज की समझ पैदा होती है या कहें पहला समाज की समझ से पैदा होता है, हम साथ रहते हैं एक दूसरे के गुणों को पहचानते हैं, और उनमें जो सर्वश्रेष्ठ होता है उसका सहज भाव से सम्मान करते हैं। इसमें संख्या से विशेषता का निर्धारण नहीं होता बल्कि दूसरों की अपेक्षा अधिक योग्य सिद्ध होने से ही लोग किसी व्यक्ति को किसी काम के अधिक उपयुक्त मान लेते हैं । कीर्तिमान स्थापित करने वाले खिलाड़ी, साहित्यकार, पत्रकार, चिंतक, वैज्ञानिक, समाजसेवी और राजनेता के सम्मान मे संख्या बल काम नही करता है। राजनीति पर कुछ लोग आशंका कर सकते हैं पर रफी अहमद किदवई का नाम याद आते ही उनका सुर सही हो जाएगा।
सर सैयद अहमद से पहले मुसलमानों की आबादी का अनुपात वही था जो उनके बाद, परंतु इससे पहले अपने कड़वे खट्टे अनुभवों के बावजूद भारतीय समाज में अल्पमत और बहुमत की चेतना नहीं थी। यह संभवत है सर सैयद में भी आरंभ में न रही हो। उनमें पैदा की गई और इसके लिए हम अंग्रेजों की कूटनीतिक दक्षता की सराहना कर सकते हैं। यह बोध उनकी चेतना में इतने गहरे उतार दिया गया कि आगे के सभी निर्णयों में यही केंद्रीय बना रहा।
टकराव का यह रास्ता अनेक विकृतियों में प्रकट हुआ। वास्तव में जो लोग किसी समाज पर आक्रमणकारी बनकर विजयी हुए हों उनकी समझ में निबाह का तरीका आता ही नहीं । वे उन प्राचीनतम अवस्थाओं के बारे में भी आक्रमणकारी और आक्रान्त की सीमा में चीजों को देखना और समझना चाहते हैं जब राज्य संस्था का जन्म ही नहीं हुआ था और मनुष्य स्थाई निवास तक नहीं अपना सका था। जब सारी दुनिया पूरे मानव समाज की थी और उसके जत्थे अपनी सुविधा के अनुसार कहीं भी जा सकते थे। भारत में नीग्रोसम जन बहुत पहले से थे उन पर मध्येशिया से मुंडारी भाषियों ने आक्रमण किया और उन्हें परास्त करके भारत पर अधिकार कर लिया। उसके बाद उसी क्षेत्र से जहां से उन्होंने आक्रमण किया था निकल कर द्रविड़ों ने मुंडारियों पर आक्रमण करके उन्हें परास्त किया और उत्तर भारत से भगाकर स्वयं अधिकार कर लिया। उसके बाद आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और द्रविड़ों को भगा दिया और उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया।
बदहवासी की हद होती है, सोची समझी बदमाशी की नहीं। ऐसी बदमाशी के शिकार हुए समझदारों ने ऐसा सर्वनाश किया जिसमें जो जहां भी है, दुःस्वप्न जैसे यथार्थ का सामना कर रहा है और अपनी ऊर्जा और संसाधनों का आधा पारस्परिक विनाश करते और विनाश से बचाव के उपाय करते जी रहा है।