#भारतीय_मुसलमान: माइनारिटी सिंड्रोम (२)
माइनारिटी सिंड्रोम की पहली अभिव्यक्ति श्रेष्ठताबोध था ।
यह बताते चलें कि श्रेष्ठताबोध श्रेष्ठता का द्योतक नहीं होता, इसके अभाव का, इसमें विश्वास की कमी का, द्योतक होता है। श्रेष्ठ व्यक्ति को अपनी श्रेष्ठता कह कर बतानी नहीं होती। अपने अतीत की याद करते हुए अपना कीर्तिगान गिरावट के दिनों में ही किया जाता है, यह पीछे हम देख आए हैं। यदि कोई व्यक्ति कद में दूसरों से ऊंचा है तो उसे यह कह कर बताना नहीं होता। होने के बाद कहने की जरूरत नहीं रह जाती, वह सबको दीखता है और सहज भाव से मान्य होता है। हमने देखा इंशाअल्ला से लेकर फैज तक सभी अतीत की जुगाली करते हुए अपनी श्रेष्ठता की बात कर रहे हैं। यह एक तरह की क्षतिपूर्ति है, इसलिए श्रेष्ठताग्रन्थि हीनताग्रन्थि की सहेली है।
पर इसमें इसी कारण अन्तर्विरोध भी होता है। सर सैयद एक ओर तो रईसों की हैसियत की याद दिलाते हुए इस बात से इन्कार कर रहे थे कि वे कभी ऐरों गैरों के ICS होने के कारण उनके हुक्म मानेंगे, दूसरी ओर स्वीकार कर रहे थे कि वे दिन दूर नहीं हैं। ऐसा होने वाला है। एक ओर रईसों की काबिलियत की डींग हांक रहे थे, दूसरी ओर मान रहे थे कि प्रतियोगिता में वे ठहर नहीं सकते। बहुसंख्य हिन्दुओं की तुलना मे अल्पसंख्य मुसलमानों को उनका इतिहास याद दिलाते हुए ढाढस बंधा रहे थे कि कम संख्या के होते हुए भी उन्होंने हिंदुस्तान फतह किया है और योग्यता के मामले में स्वयं स्वीकार कर रहे थे कि कार्यदक्षता में हिन्दुओं का मुकाबला नहीं किया जा सकता।* हम इसको सही या गलत न मानें, केवल दलील तक सीमित रहें तो भी श्रेष्ठता का दावा तो इससे खंडित होता ही था। योग्यता का एक ही तर्क बचता था कि हमने बादशाहत की है, इसका हमें अनुभव है, इसलिए शासन हम ही कर सकते हैं। लेकिन अनुभव बादशाहत खोकर भिखारी बनने का भी था जिसकी दहशत इस दिलासा के पीछे थी।
इस ग्रंथि के कारण ही लोकतंत्र विरोधी, शिक्षा और प्रतियोगिता विरोधी, तानाशाही का स्वर सभी मुस्लिम नेताओं में या ‘विचारकों’ में पाया जाता है। इक़बाल जब कहते है सितारों से आगे जहां और भी हैं तो सितारे दिखाना स्वतंत्रता और लोकतंत्र है और उससे आगे का जहां तानाशाही। वह जमहूरियत को ऐसी व्यवस्था मानते हैं जिसमें बंदों को गिनते हैं, तौलते नहीं। तौल मे भारी पड़ने वाले की हुकूमत का समर्थन करते हैं और यह भारी पड़ना किसी योग्यता या प्रतियोगिता से तय नहीं हो सकता, दुस्साहसिकता या परबाजी से तय होगा (तू बाजी है परवाज है काम तेरा तेरे सामने आसमां और भी हैं) जिसका संदेश बहुत अच्छा नहीं है, न इक़बाल के अपने मिजाज के अनुरूप है, इसलिए इसे घबराहट या बौखलाहट की देन कहा जा सकता है। पर इसने उनकी चेतना को ही बदल दिया था। यह घबराहट सर सैयद के साथ ही आरंभ हो जाती है।** जिन्ना भी इससे मिलते जुलते सुर में लोकतंत्र से असहमति प्रकट करते हैं***। ये सभी इस तरह की बातें यह जानते हुए करते हैं कि स्वयं ब्रिटेन की परंपरा और भावी संभावना इसके विरुद्ध है। वे इसकी व्यर्थता जानते हुए भी आखिरी दाव चलते ही हैं कि ब्रिटेन की बात अलग है और जो कुछ वहां सफलता के साथ अमल में लाया गया है वह यहां संभव नहीं है।****
{nb. *Now, I ask you to pardon me for saying something which I say with a sore heart. In the whole nation there is no person who is equal to the Hindus in fitness for the work. I have worked in the Council for four years, and I have always known well that there can be no man more incompetent or worse fitted for the post than myself.मेरठ
**We do not live on fish, nor are we afraid of using a knife and fork lest we should cut our fingers. Our nation is of the blood of those who made not only Arabia, but Asia and Europe, to tremble. It is our nation which conquered with its sword the whole of India, although its peoples were all of one religion. ….A second error of Government of the greatest magnitude is this: that it does not give appointments in the army to those brave people whose [[21]] ancestors did not use the pen to write with; no, but a different kind of pen — (cheers) — nor did they use black ink, but the ink they dipped their pens in was red, red ink which flows from the bodies of men.मेरठ
***Democracy of the kind with which the Congress High Command is enamoured would mean the complete destruction of what is most precious in Islam. Lahore address, 1940
****I do not think it necessary for me on this occasion to discuss the question why the competitive examination is held in England, and what would [[9]] be the evils arising from its transference to India. But I am going to speak of the evils likely to follow the introduction into India of the competitive principle.मेरठ
यहां हम श्रेष्ठताबोध के साथ जुड़े अन्तर्विरोध, व्यर्थताबोध के साथ एक अन्य विशेषता को भी लक्ष्य कर सकते हैं। यह है आत्मरक्षा की चिंता में जानते हुए भी कि तुम गलत हो, व्यर्थ हो चुके हो, तुम्हारे पास किसी मान्यता, रीति या कार्य के लिए उचित कारण, या नैतिक आधार नहीं है फिर भी तुम उसे गलत नहीं मानोगे, इससे तुम्हारी श्रेष्ठता का दावा कमजोर होगा। अपने समाज की वर्तमान या अतीत की खूबियों को तो गिनाओगे परंतु खामियों को स्वीकार नहीं करोगे। दूसरे इसकी ओर ध्यान दिलाएंगे तो भी उनकी ओर ध्यान नहीं दोगे। इसके विपरीत दूसरों की खूबियों को भी, जो तुममें नहीं हैं, खराबी के रूप में पेश करते हुए उनकी निंदा करोगे जिससे तुम्हारी खराबियां खराबी न लगें बल्कि उपलब्धि प्रतीत हों।
मैं यह समझता था कि अपनी संवेदनशीलता और सर्जनात्मक क्षमता होते हुए भी मुस्लिम लेखक और कलाकार मुस्लिम समाज की विकृतियों पर उंगली इसलिए नहीं उठाते हैं कि ऐसा करते ही मुल्लों के फतवे या भर्त्सना का सामना करना होगा। सेकुलर कहे जाने वाले हिंदू पत्रकारों लेखकों और विचारकों को उन्हीं बुराइयों पर चुप्पी साधते देख कर, लगता था कि वे भी किसी अनिष्ट की चिंता से डर कर इसका साहस नहीं जुटा पाते हैं। परंतु मुल्ले पुरातन पंथी होते हुए भी उतने खतरनाक नहीं है, इसे सानिया मिर्जा ने अपनी दृढता से प्रमाणित कर दिया है। अधिक से अधिक वे अपनी असहमति प्रकट कर सकते, किसी तरह का कठोर कदम नहीं उठाते दिखाई देते।
इसके विपरीत स्वयं बुद्धिजीवियों ने, और इनमें सेकुलर होने का दम भरने वाले ऐसे बुद्धिजीवी भी रहे हैं जो सीता राम की सगी बहन थीं जैसी कहानियों को इतिहास का सच बताते हुए इसे पाठ्यक्रम शामिल करते रहे हैं, जिन्होंने सलमान रश्दी की पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने का अभियान चलाया था, जो तस्लीमा नसरीन को आश्रय देने को तैयार नहीं रहे हैं और उनकी भर्त्सना में व्यक्ति के रूप में, संगठन के रूप में, और सरकार के रूप में कुछ भी उठा नहीं रखा।
मैंने कभी ऐसे प्रश्नों पर भारतीय मुल्लों को पहल करते नहीं देखा, यह दूसरी बात है एक बार इनको मुद्दा बना देने के बाद वे भी कठोर कदम उठाने का समर्थन करने को बाध्य हो जाते हैं।
यह अन्तर इसलिए है कि देवबंद और बरेली दोनों की उस चिंता धारा से आरंभ से ही असहमति रही है जिसका प्रतिनिधित्व सर सैयद अहमद,मुस्लिम लीग, और जिन्ना करते रहे हैं और जिसकी परिणति देश का विभाजन रहा है। दारुल उलूम परंपरा वादी होते हुए भी, अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त श्रेष्ठता ग्रंथि से कातर और इनका ग्रंथि को छिपाने के लिए आतुर बुद्धिजीवी वर्ग से इस माने में प्रगतिशील रहा है उसमें उस तरह की आत्म वंचना नहीं पाई जाती न ही हिंदू समाज के प्रति उस तरह की नफरत देखने में आती है जो मुस्लिम बुद्धिजीवियों और सेकुलर वादियों का चरित्र बन चुका है।
अब हम लौट कर अब तक के सबसे सशक्त संचार माध्यम सिनेमा में मुसलमानों को छोड़कर दूसरे सभी समुदायों के चरित्र, वेश, जीवनशैली और प्रतीकों पर आक्रामक मुद्रा में प्रहार करने वाली स्क्रिप्टों पर ध्यान दें। इनके पीछे वही पराजित मानसिकता काम करती दिखाई दे सकती है। यथार्थ, तर्कसंगत और उचित के विरोध में कोई भी बौद्धिक आयास एक एक कदम पर, पहाड़ की चढ़ाई जैसी अशिथिलता की मांग करता है। कहीं तनिक भी फिसले सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जाएगा और आप वहां से गिरे तो रसातल में ही पहुंचेंगे।
इसलिए उन्हें एंग्लो इंडियन परिवार की महिलाओं को शिक्षा, कला, वेशभूषा में प्रतिबंधों की कमी देखकर उनसे डर लगता है और इन्हें चरित्रहीन के रूप में चित्रित किया जाता रहा है, उन लड़कियों को बाजारू, तस्करी आदि में लिप्त दिखाकर उनके वितृष्णा पैदा की जाती रही है तो प्रकारांतर से मुस्लिम पर्दा प्रथा की हिमायत की जाती रही है और सांकेतिक रूप में हिंदू समाज में महिलाओं को मिल रही छूट को भी गर्हित सिद्ध किया जता रहा है। एक पत्थर से दो शिकार। इतना ही नहीं पर्दा प्रथा से बाहर आ चुकी हिंदू बालिकाओं को साफ्ट टार्गेट मानने और उन्हें बहकाने के पीछे भी यही मानसिकता काम करती दिखाई देती है जो निरंतर बढ़ती चली गई है। यदि इससे किसी को फर्क नहीं पड़ता तो वे है अपनी पहचान सेकुलर बताने वाले बुद्धिजीवी, जिनके पास बुद्धि के स्थान पर नारे बचे रह गए हैं और जो धूर्तता को भी राजनीतिक परिपक्वता का प्रमाण मानने लगे हैं।
इस परिरक्षणवाद के चलते तरक्कीपसन्दी का दावा करने वालों ने हिजाब से लेकर हलाला तक का इतनी कलाकारी से बचाव किया कि किसी को इनकी त्रासदी की कानोंकान खबर तक न लगे। तरक्की मुस्लिम कट्टरता की की जा रही थी?