#भारतीय_मुसलमानः आभिजात्य और इतिहास
कॉल देव को रंक को राजा और राजा को रंक बनाने का खेल कुछ अधिक पसंद है। किन्ही परिस्थितियों में रंक से राजा बने लोगों के दिन फिर जाने के बाद कभी की अमीरी की याद जितना विभोर करती है उतना अमीरी के दिनों के सुख भोग ने भी न किया होगा। दिवा स्वप्नों में उसे दोबारा हासिल करने की लालसा उल्लास से भरती भी है और साथ साथ उभरा वैसा कर पाने मे असमर्थता का बोध, ग्लानि से भरता भी है। विरोधी भावों का विपाक ही इस खेल का आनन्द बढ़ाता होगा। यह सोच कर लिखने की तैयारी कर रहा था कि इस दुर्भाग्य पर गर्व करने की आदत शेर बन गयीः
इसे भी देखिए है दर्ज यह भी आसमानों में
सितारे हमसे मिलते थे तो शरमा जाया करते थे।
हमारे पास शायद यही बचा है और इसी के चलते हम इतिहास को समझने की जगह इतिहास से प्यार करने लगते हैं, उससे मुक्ति की जगह उसमें लिप्त हो जाते है। लिप्तता के कारण समाधान तलाशते हैं और समस्याएं पैदा होती या बढ़ती हैं। हम चर्चा सैयद अहमद की कर रहे हैं जो अमीरों की दिनोदिन खस्ता हो रही हालत से चिंतित थे और जिनका भविष्य बंगाल के बर्वाद रईसों जैसा होने वाला था, जो किसी अंग्रेज के अपने इलाके में आने की खबर से ही घरों में छिप जाते थे, पर उनका गुस्सा उन अंग्रेजों के प्रति नहीं था, जिनके कारण उनकी यह दशा हुई थी, अपितु उन बंगाली हिंदुओं के प्रति था, जिन्होंने इस अवसर का लाभ ही नहीं उठाया था, अपितु जिनके बीच बढ़ती जागरूकता और अधिकार चेतना से अंग्रेज स्वयं घबराए हुए थे और सर सैयद का अपने औजार के रूप में इस्तेमाल करना चाह रहे थे और जिसके लिए वह अपनी ओर से स्वयं को समर्पित कर रहे थे, जिसका एक कारण अतीत की आसक्ति थी जिसे अंग्रेज अपनी ओर से उकसा रहे थे, और उसी अनुपात में इतिहास की समझ का अभाव था जो इस दशा में होना ही थाः
We are those who ruled India for six or seven hundred years.From our hands the country was taken by Govemment into its own. Is it not natural then for Government to entertain such thoughts? Is Government so foolish as to suppose that in seventy years we have forgotten all our grandeur and our empire?
हम उनकी महिमा का आदर करते हुए यही कह सकते हैं कि इस कथन में समझ का निरा अभाव था। इसे कायदे की चापलूसी तक नहीं कहा जा सकता। आत्मालोचन तो यह हो ही नहीं सकता, अपने समुदाय का प्रोत्साहन भी नहीं कहा जा सकता। भविष्य की दृष्टि, जिसे दूरदर्शिता कहा जाता है, उसका भी अभाव था। वह एक ऐसी शक्ति का विरोध कर रहे थे जिसको रोका नहीं जा सकता था। यह जागरूकता के बल पर लड़ा जाने वाला जनयुद्ध था, जिसे तलवार से दबाया नहीं जा सकता था। दूसरे सभी इसकी शक्ति को जानते थे जिनमें तैय्यब जी भी थे, अकेले सर सैयद इसे नहीं समझ सके।
जिन अंग्रेजों को अपना शोषक मान कर उनसे अधिकारों की मांग करते हुए स्वतंत्रता का युद्ध आरंभ हो रहा था, जिन्होंने ही सत्ता से वंचित करके ये दिन दिखाए थे, उनकी गुलामी हासिल करके अपने रईस वर्ग के लिए कुछ हासिल करने की लड़ाई आप लड़ रहे थे। भरोसा उन पर जता रहे थे जिनका अपनत्व दिखा कर दूसरों का इस्तेमाल करने और विश्वासघात करने का ही इतिहास था।
अपने समय की दो महान विभूतियों मिर्जा गालिब और सर सैयद अपनी खुद्दारी के लतीफों के बावजूद सुख और सम्मान की तलाश में जितने अंग्रेजभक्त हो गए थे, वह हैरान करता है। इनके विपरीत इनसे पहले हो चुके मीर राजनीतिक दृष्टि से अधिक सुलझे लगते हैं जो अपनी निजी परेशानियों से राहत से ही संतुष्ट न रह कर और नवाबों, रईसों, अवाम सबके जीवन में बढ़ रही परेशानियों और देखते हैंः
जिंदगानी हुई है सब पै बवाल
कुजड़े झींके हैं रोते हैम बक्काल।
पूछ मत कुछ सिपाहियों का हाल
एक तलवार बेचे है इक ढाल।
हैं ‘वजी-ओ-शरीफ सारे खवार।
लूट से कुछ है गर्मि-ए-बाजार।
गालिब और सर सैयद कहीं देश और अवाम से जुड़े लगते ही नहीं और उसके बिना न समाज की सही समझ पैदा हो सकती है, न इतिहास की। ऐसे लोगों को आसानी से गुमराह किया और इस्तेमाल किया जा सकता है। वही हुआ। ब्रिटिश कूटनीति ने माइनारिटिज्म सिंड्रोम उभार कर वह कर लिया। संख्याबल की समस्या विरोध की स्थिति में पैदा होती है, सहयोगी की भूमिका में नही। 1857 में अपने परिवार की दशा ने उनके मन में दहशत का रूप ले लिया जो भी उनके अपनी ऐतिहासिक भूमिका से चूकने का कारण बना।
यदि कोई जानना चाहे कि जिन रईसों की हैसियत और इज्जत बचाने की उनको इतनी चिंता थी क्या उन्हें बचा सके, तो इसका जवाब तक देने की जरूरत न होगी।
विशिष्ट बनने या दीखने के सभी प्रयोग एक साथ ही हमें समाज विमुख और पराश्रयी दोनों बनाते हैं। इसके अनुपात में ही ये हमें अ-स्वतंत्र और उसकी क्षतिपूर्ति के लिए अहंकारी और पंगु भी बनाते हैं परन्तु इस पंगुता को हम समझ नहीं पाते, उल्टे उस पर गर्व करने की आदत डाल लेते हैं। यदि आपके पास हर छोटे मोटे काम के लिए नौकर-चाकर हैं, तो यह जानने के लिए कि आप कितने पंगु हें एक दिन के लिए उन सबकी छुट्टी कर दीजिए या सिर्फ कल्पना कीजिए कि सभी ने एक साथ हड़ताल कर दी है। इसके साथ ही आप को यह भी पता चल जाएगा कि आप कितने स्वतंत्र हैं। गुलाम कौन किसका है, इसकी समझ और परिभाषा बदल जाएगी। जिन्हें हम बादशाह कहते हैं और जो दूसरों की स्वतंत्रता छीनने की शक्ति रखते हैं आरामतलब होने के बाद सबसे अ-स्वतंत्र होते हैं। कहते हैं बहादुरशाह जफर अपने को गिरफ्तार करने के लिए आ रहे अंग्रेजों से बच कर भागने की कोशिश तक नहीं कर सका क्योंकि उसे जूती पहनानेवाली आवाज देने पर भी हाजिर न हो सकी। सहायसाध्यं राजत्व। असहाय होने पर राजा ही असमर्थ हो सकता है। चाकर कोई दूसरा काम करके मुश्किल आसान कर लेगा। श्रम, अध्यवसाय और स्वायत्तता एक दूसरे पर निर्भर है, सुख और अकर्मण्यता मनुष्य और समाज को गुलाम बनाते हैं।