#सर_सैयद और #भाषा_विवाद
#भेदनीति : समस्या लिपि की
लिपि की समस्या अधिक पेचीली थी। आक्रमणकारी अपनी जबान और उनमें जो शिक्षित थे वे अपनी एक लिपि लेकर आए थे। उनकी भाषाएं अलग थीं तो भी लिपि एक थी, जिसका आधार अरबी लिपि थी। फारसी की जरूरतों के अनुसार इसमें कुछ परिवर्तन किए गए थे जिन्हें यथेष्ट मान लिया गया था। हिन्दुस्तान में उससे काम नहीं चल सकता था। अत: अरबी-फारसी लिपि में कुछ और सुधार करते हुए इसे हिंदी (हिन्दुस्तान की) बोलियों के अनुरूप बनाया गया था, अत: इसे उसी तर्क से हिंदी या उर्दू लिपि कहा जा सकता था, जिससे नागरी को हम हिन्दी लिपि कहते हैं। यह याद दिलाने की जरूरत नहीं समझते कि यह ब्राह्मी का बदला हुआ रूप है।
परन्तु कुछ लोग इस तर्क से सन्तुष्ट नहीं होंगे। वे कहेंगे ब्राह्मी अक्षरों की बनावट बहुत अलग थी। नागरी या हिंदी लिपि की बनावट उससे अलग है। इसलिए इसका विकास भले ब्राह्मी से हुआ हो, लिपि भिन्न है। अरबी लिपि में ऐसा कोई विकास नहीं हुआ, कुछ अक्षरों में दोचश्मी हे या हकार जोड़ कर नए चिन्ह महाप्राणित ध्वनियों के लिए बनाए गए जैसे रोमन लिपि मे एच जोड़ कर बना लिए जाते हैं। इससे लिपि भिन्न नहीं हो जाती।
मुझे इस पर कोई बहस नहीं करनी। यह अवश्य याद दिलाना है कि यह तर्क उनको भी ठीक लगेगा जो यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उर्दू लिपि भिन्न भाषा परिवार की है और उसकी (व्यंजन प्रधान) अपेक्षाओं के अनुरूप है, परन्तु हमारी अपेक्षाओं पर पूरी नहीं उतरती, इसलिए त्याज्य है और उन लोगों को भी रास आती है जो इस लिपि को धर्म से जोड़कर विश्वइस्लामवाद की अभिन्न कड़ी मानते हैं।
हमारे लिए यह बात अधिक महत्वपूर्ण है कि विजेता किसी देश की शर्तें मानते हुए उस पर राज नहीं करता। अपनी शर्तें अपनी सत्ता के प्रतीक के रूप में उस पर लादता है, और पराजित समाज को उन शर्तों को मानना होता है।
विजेता अपनी भाषा से अपनी जरूरतें पूरी नहीं कर सकते थे, इसलिए व्यवहार के लिए उनको भारतीय भाषाएं सीखनी पड़ी, उनके निजी जीवन में ऐसी कोई विवशता नहीं थी, इसलिए घर परिवार में वे भाषाएं बोलते रहे जो उनके बाप-दादा बोलते थे । यदि बाजार का काम लिखित रूप में ही होता तो उन्हें स्थानीय लिपि भी सीखनी पड़ती। इसकी जरूरत सरकारी कामकाज के लिए थी और इसे अपनी लिपि में ही कर सकते थे। इस तरह एक साथ दो लिपियों का चलन हुआ। एक सरकारी कामकाज की लिपि और दूसरी जनसामान्य की अपनी लिपि जो पहले से व्यवहार में थी।
शिक्षित और सरकारी दफ्तरों अदालतों में नियुक्ति की आकांक्षा रखने वाले लोगों को अरबी लिपि सीखनी पड़ी। विदेशी मूल के मुसलमान अरबी लिपि में काम करते रहे और शेष लोग सुविधा के अनुसार हिंदी या उर्दू में या कहें फारसी लिपि में अपना काम करते रहे। यह सुविधा और जीविका से जुड़ा हुआ प्रश्न था जिसमें पूरे इतिहास में कभी कोई टकराव नहीं पैदा हुआ। हिंदी या नागरी लिपि के कई रूप थे। भू राजस्व से जुड़े कायस्थ थे जिनकी लिपि को कैथी की संज्ञा मिली थी और दूसरी व्यापारियों की लिपि जिसमें शिरोरेखा और मात्राओं का कम प्रयोग होता था जिसे मुड़िया कहा जाता था । फारसी लिपि के दो रूप जिनमें से एक को शिकस्ता कहा जाता था।
एक ऐसे समाज में जिसमें औपचारिक शिक्षा और साक्षरता की कमी हो उसमें अपने व्यावसायिक एकाधिकार के कारण साक्षरों को निरक्षरों में बदलने की कला का ही दूसरा नाम था शिकस्ता, मुड़िया और कैथी । इसके विस्तार में हम यहां नहीं जाना चाहते।
कहना केवल यह चाहते हैं कि सोची-समझी शरारत के बावजूद जो व्यक्ति जिस लिपि में काम करना चाहे कर सकता था। हानि लाभ का विचार या कहां पर किस लिपि का व्यवहार होता है, इसका ध्यान उसे रखना था ।गद्दी पर मुनीमी मुड़िया जाने बिना नहीं संभव, अदालत में पुलिस में और दफ्तरों में फारसी भाषा और फारसी लिपि जाने बिना काम नहीं चल सकता था।
न उचित अनुचित का विचार था, न किसी बदलाव की संभावना । यह सभी प्रश्न बाद में भी नहीं उठे । सत्ता बदलने के बाद पुरानी सत्ता की भाषा सीखने का कोई लाभ न था। उससे मिली सुविधाएं नई सत्ता की भाषा से ही मिल सकती थी। इसलिए बंगाल में पहली बार यह मांग उठी कि कंपनी या तो अपनी भाषा लागू करे जिससे पुराने उत्साह से उसकी भाषा को सीख कर वे उसमें अवसर की तलाश कर सकें या व्यर्थ हो चुकी भाषा और लिपि सीखने के बोझ से मुक्ति मिले। इसमें स्वतंत्रता और सम्मान जैसी कोई बात नहीं थी। यह शुद्ध व्यवहारिकता मांग थी।
मुसलमानों ने इसका प्रभावशाली विरोध इसलिए नहीं किया की दफ्तर से लेकर अदालत तक उनका प्रभाव समाप्त किया जा चुका था। बिहार में अदालतों में कैथी लिपि की मान्यता का भी तीखा विरोध नहीं हुआ। परंतु उत्तर प्रदेश में अदालतों में फारसी लिपि के चलन के कारण शिक्षा में पिछड़ने के बाद भीनौकरियों में मुसलमानों का लगभग एकाधिपत्य था। मांग अदालतों मे और शिक्षा में फारसी लिपि को हटा कर नागरी लिपि को रखने की नहीं, अपितु नागरी को भी स्वीकार करने की थी। इतने से ही मुसलमानों का आधिपत्य समाप्त हो जाता था इसलिए सर सैयद की हिंदुओं से मिलजुल कर रहने की जो पहली शर्त थी वह यह कि वे ऐसी कोई मांग न करें जिससे मुसलमानों का यह एकाधिकार समाप्त होता हो, दूसरी शर्त थी कि वे कांग्रेस में सम्मिलित न हों जिसे वह अंग्रेजों की शह पर बंगाली हिंदुओं की संस्था इसलिए कहते थे कि उसके शक्तिशाली होने पर प्रतिनिधित्वमूलक शक्तिसंतुलन की नौबत आएगी जिसमें एक तो मुसलमानों में भी ऐरे गैरे रईसों की बराबरी करने लगेंगे। उन पर हुक्म भी चला सकते हैं। फिर तो मालिकों को ताबेदारों की ताबेदारी करनी होगी और दूसरी, इससे भी खतरनाक, यह कि बहुसंख्यता के बल पर हिंदू मुसलमानों पर राज्य करने लगेंगे। जब कल्पना संभावना के इतने निकट हो ताे इसे नकारना संभव नहीं रह जाता।
जो भी हो साम्प्रदायिक सद्भाव की उनकी कसौटी यही थी और इसी की सीमा में वह हिंदुओं मुसलमानों दोनों के हितैषी होने का दावा करते थे जो नागरीलिपि को भी स्वीकृति मिलने के साथ ही समाप्त हो गया और नागरी की मांग करने वाले उन्हें सांप्रदायिक लगने लगे।* उन्हें लगने लगे, यह उतनी हैरानी की बात नहीं है जितनी यह कि धर्मनिरपेक्षता की भी यही पहचान बनी रही है और आज भी हिंदुओं पर गुजरी यातनाओं तक पर हमदर्दी दिखाने वालों को सांप्रदायिक सिद्ध करने का अभियान चलाया जाता है इसलिए यह बीती बात नहीं, वर्तमान में इतिहास की सतत उपस्थिति की समस्या है।
{nb. *Communal violence broke out as the issue was taken up by firebrands. Sir Syed Ahmed Khan had once stated, “I look to both Hindus and Muslims with the same eyes & consider them as two eyes of a bride. By the word nation I only mean Hindus and Muslims and nothing else. We Hindus and Muslims live together under the same soil under the same government. Our interest and problems are common and therefore I consider the two factions as one nation.” Speaking to Mr. Shakespeare, the governor of Banaras, after the language controversy heated up, he said “I am now convinced that the Hindus and Muslims could never become one nation as their religion and way of life was quite distinct from one another.”}
यहां हम पहलेे की दो भ्रांतियों को दूर कर दें ।
यह दावा कि रईस मुस्लिम परिवारों में शुद्ध उर्दू बोली जाती थी, गलत है वहां फारसी बोली जाती थी जिसमें केवल इतना अंतर आया था कि वाक्य रचना और क्रिया पदों में नौकरों-चाकरों के प्रभाव से स्थानीय बोली ने जगह बना ली थी बाकी मामलों में वे हठपूर्वक उस भाषा का प्रयोग करते थे जिसे वे अपने पुरखों की भाषा के रूप में बचाए रखना चाहते थे। कहें, शुद्ध मानी और बताई जाने वाली भाषा की प्रकृति विदेशी थी, विदेसीपन की रक्षा संचार की व्यापकता से अधिक जरूरी थी। जो भाषा परिवार की हद में रह कर भी अपनी शुद्धता बचा कर संतुष्ट थी, उसकी जरूरत संचार नहीं कुलीनता की रक्षा थी।
विभिन्न नामों से गुजरते हुए उर्दू नाम से रूढ़ होने वाली जबान इसके ठीक विपरीत जनसाधारण से जुड़ाव के प्रयत्न में विकसित हुई थी, संचार को व्यापक और प्रभावशाली बनाने के उद्देश्य से विकसित हुई भाषा थी। विकास का श्रेय जाता मुसलमानों को, सच कहें तो सूफियों को है। जहां कुलीनों की विदेशी पहचान के लिए चिंतित भाषा का जोर तलफ्फुज या उच्चारण की सर्वशुद्धता और अरबी पदबंध पर था, वहां इसका जोर रवानगी या प्रवाह पर था। जहां जोर पहली में दुर्बोध अरबी फारसी प्रयोगों पर था, वहां इसका लोकोक्तियों, मुहावरों और वचनभंगी पर था। यदि यह रईसों की उच्छिन्नमूल उर्दू के दबाव से मुक्त रह पाई होती तो यह भारतीय व्यवहार की सबसे जीवन्त और सर्वमान्य भाषा होती।
एक दूसरा भ्रम उच्चारण की शुद्धता के निर्वाह को ले कर है। विदेशी अपेक्षाओं के अनुरूप किसी भिन्न भाषिक परिवेश में शुद्ध उच्चारण संभव ही नहीं। इसके कारण उर्दू का जितना अहित हुआ है उसे इस दुर्भाग्यपूर्ण सचाई से समझा जा सकता है कि पहले देश बंटा, फिर पाकिस्तान बंटा, फिर बंटे पाकिस्तान के अवाम इससे नफरत के कारण अपनी बोलियों के लिए उठ खड़े हुए। इसे तारिक़ रहमान के माध्यम से हम देख आए है। उर्दू के लिए अपनाई गई लिपि पर उनकी टिप्पणी ध्यान देने योग्य हैः
Although in his grammar of Urdu Abdul Haq pointed out that ‘Urdu is a purely Indian language of the Indo-Aryan family. Arabic, on the other hand, is from the Semitic family. Thus it is not at all appropriate for the grammarians of Urdu to follow the rules of Arabic.’
उच्चारण की शुद्धता पर भारत से लेकर पाकिस्तान तक बवाल करने वाले कौन हैंः
School grammars, based upon medieval Persian models, specialize in taxonomy. Parts of speech are divided into sub classes which have Persian and Arabic names which must be memorized. Pluralization follows Arabic or Persian rules leading to absurdities. While this is an irritant to school children the urge for prescriptivism in Urdu and English can sometimes be offensive. The Urdu speaking people from UP even now pride themselves upon their linguistic refinement.
पर हम यह सवाल भी करना चाहते हैं कि शुद्धता के पीछे भाषा का सत्यानाश करने वालों मे कितने है जो उच्चारण मे ऐन और अलीफ में फर्क कर पाते है, से, साद, सीन के सही उच्चारण जानते है। ले देकर ये सभी सीन जैसे हो जाते हैं जिनका शीन से फर्क समझ में आता है। ते और तोव के बीच, जे, ज़े, जीम, ज़ोव, के बीच वही समस्या। अब रह जाता है काफ, के, गाफ और ग़ैन, आदि के बीच का फर्क जिसको ले कर जितनी तकरार की जाती है उतना ही भाषा का अपकार।