Post – 2018-10-23

#सर_सैयद और #भाषा_विवाद – 9

मैं इस बात की याद दिलाते हुए आगे अपनी बात रखना चाहता हूं कि मैं जो लिखता हूं उसे मानना आपके लिए जरूरी नहीं है, न अपने से असहमत लोगों को मैं, असहमति के कारण अपने से नासमझ या अनैतिक मानता हूं। मैं केवल चाहता हूं कि इन पहलुओं पर विचार किया जाए, और जो गलत लगे उनकी आलोचना की जाए। यह काम हो नहीं रहा है, इससे तोष की जगह असंतोष बना रहता है।

हम यह बात पहले कह आए हैं कि सर सैयद अहमद सामाजिक भेदभाव के जनक नहीं थे उनके शिकार थे जो यह भेदभाव पैदा कर रहे थे और जिन्होंने यह लक्ष्य कर लिया था कि वंशपरंपरा, हैसियत और पद के कारण उनमें इसके बीज थे और उनके लिए जमीन तैयार करने की योग्यता थी।

भाषा-विवाद भी उन्होंने पैदा नहीं किया था, यह पहले ही ब्रिटिश कूटनीति और जनता की मांग से आरंभ हो चुकी थी। उन्होंने इसके फंदे में अपना पांव रख दिया था, क्योंकि यह फंदा उन्हें रास आता था।

उनकी अपनी प्रतिबद्धता रईस जमात से थी। असबाबे बगावते हिंद के विषय में जितनी हमें जानकारी है उसकी सीमा में यह दावा किया जा सकता है कि उन्होंने केवल यह सिद्ध किया था कि रईसों ने अपनी छीनी गई रियासतों का बदला लेने के लिए न इसकी योजना बनाई थी, न काम किया था। गरज कि रियासत खोकर भी सरकार के वफादार बने रहे थे क्योंकि वफादारी उनके खून में है। सरकशी, जिसके लिए उन्होंने हरमजदगी का प्रयोग भी किया था, और नौकरों चाकरों से होने वाली मामूली चूक पर इसका प्रयोग करने के आदी रहे होंंगे, वे बने हुए मुसलमानों की जमात के लोगों से होती थी और उन्होंने की थी, जिनके खून में ही नमकहरामी है, यद्यपि उनका भी इतना खयाल रखा था कि इसका कारण उनकी बेरोजगारी को बताया था। यह बेकारी कंपनी के अत्याचारों से और काम-धंधा छीन लिए जाने के कारण पैदा हुई थी, यह उन्होंने न कहा होगा क्योंकि खून में ही वफादारी होने के कारण जो लोग रियासतेो खोकर भी वफादारी नहीं छोड़ते वे एेसा आरोप लगाने की नमकहरामी नहीं कर सकते।

हम इसे रेखांकित करना चाहते हैं कि उनका रईसी नजरिया उसी धर्मसमुदाय के 80 प्रतिशत लोगों के विरुद्ध था, जैसे हिंदू अभिजनवादी नजरिया अपने ही 80 प्रतिशत के विरुद्ध रहा है और हिन्दू समाज की सामूहिक चेतना की विवेकशीलता की सराहना करनी होगी कि उसने इसे कभी नहीं खोया, जब कि मुस्लिम समाज अपने ही वर्गशत्रुओं का ग्रास बन गया जो वर्गशत्रुता को नकली और धर्मशत्रुता को असली सिद्ध करने में सफल रहा और भारत में कदम कदम पर वर्गशत्रुता की दुहाई देने वाले इस परिवर्तन पर तालियां ही नहीं बजाते रहे, पीछे से धक्का भी लगाते रहे और आज तक उनकी तालियां और जोर-लगाओ-हइसा जारी है।

भारत में आकर सभी परिभाषाएं बदल जाती है। कसूर उसकी जलवायु का है जो अंग्रेजाें के आने से पहले स्वर्गोपम देश और विश्व का सबसे समृद्ध देश था वह उनके कदम रखते ही ऐसी सड़ी हुई जलवायु का देश सिद्ध किया जाने लगा जिसमें दूसरी चीजें तो दूर दिमाग और ओजस्विता में भी फफूंद लग जाती है और तरोताजा दिमाग इसको सड़ने से बचाने के लिए, इस पर तरस खाकर, पश्चिम से इस पर हमला कर देता रहा है। वही दिमाग हमारे बुद्धिजीवियों और खास करके मार्क्सवादियों को मिला। फिर कोई चीज सही कैसे रह सकती है- स्मृति भ्रंशात बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात जो हो रहा है वह भविष्यति। मार्क्सवादी समझ का भी सत्यानाश यहीं होना था।

भाषा और लिपि का भी धार्मिक विभाजन करने का अपराध यहीं होना था। भाषा किसी देश या प्रदेश की होती है, धर्म की नहीं। धर्म की भाषा धार्मिक कृत्यों तक सीमित रहती है। जिनकी धर्मभाषा अरबी थी उन्होंने ही हाट-बाजार की जरूरतों से स्थानीय बोलियां सीखी थीं जिसे तरह तरह के नाम समय समय पर दिए गए जिनमें एक हिंदी भी था। इस क्रम में उनकी अक्षमता के कारण उनकी जबान के भी कुछ शब्दों का चलन में आ जाना स्वाभाविक था, वे चाहे तुर्की के हों या फारसी के। इस तरह बनी थी सत्ता से जुड़े लोगों के स्थानीय व्यवहार और बाजार की भाषा, जिसका सीधे जनसंपर्क से कटी, राजपिरवारों और दर्बारों की भाषा से कोई संबंध न था। इसके जितनी बोली क्षेत्रों में उनका प्रवेश हुआ, उतने रूप बने। इन्हीं का प्रयोग सूफियों ने अपने काव्योे में किया। सूफियों द्वारा प्रयुक्त बोलियों में एक दिल्ली के आसपास की बोली थी, जिसकी अपनी भाषाई पहचान कई बोलियों से प्रभावित थी इसलिए इसे अपने सही नाम के लिए भटकना पड़ा। इसी का एक समय में ‘रेख्ता’ -‘गिरी हुई’, ‘पड़ी हुई’- पड़ा जो अपभ्रंश का अनुवाद था पर आशय था जनभाषा। इसका प्रयोग भी सूफी कवियों ने किया। इसी के लिए मुसलमानों ने ही हिंदी शब्द का प्रयोग किया। इसको हिंदुओं की भाषा बनाने की जुगत किसकी थी यह पता जानकार लोग लगाएं, पर रेख्ता का अर्थ खड़ी करने वाला, और इस बोली को खड़ी बोली की संज्ञा देनेवाला अंगरेज या उसके संपर्क में रहा होगा जिसने correct, right, erect < rectसे भेद न कर पाने के कारण उस ''गिरी बोली का अर्थ खड़ी बोली कर दिया। और इसी बीच जाने किसकी समझ से हिंदी के स्थान पर 'ओर्दू' अर्थात 'फौजी छावनियों की भाषा' कर दिया गया और हिंदी का प्रयोग करने वाले सूफी उर्दूदां हो गए और खड़ीबोली वालों ने हिंदी शब्द को लपक लिया। जिसकी भी सूझ या चाल से ऐसा हुआ उसको पहचानने में मैं अक्षम हूं, पर जो भी भाषा का मजहबी विभाजन चाहता था या जिसकी भी नादानी से ऐसा हुआ, इसके लिए भी मजहब को दोष नहीं दिया जा सकता। मुझे लगता है इस अलगाव के पीछे मुसलमान नहीं हिंदू थे जिन्होंने सरकारी काम काज में अपनी पैठ सुनिश्चित करने के लिए, हिंदी में फारसी शब्द भरना आरंभ करके इसे जनभाषा से दूर कर दिया - संक्षेप में कहें तो ये खत्री और कायस्थ । नाम बदलने पर भी चरित्र नहीं बदला न ही व्यवहार मजहबी हुआ क्योकि इसका व्यवहार करने वालों मे हिंदुओं की संख्या कम न थी। यह कभी मुसलमानों की भाषा न रही न बनी, बनाने की कोशिश अवश्य लगातार बनी रही। आज भी मुख्य समस्या, भाषा और साहित्य के जन से जुड़ने, जुड़कर भी उन्नत और अनन्य होने और समाज से कट कर एलीट होने और समाज बहिष्कृत हो कर कहीं का न रह जाने और तमगे और ताबीज दिखाते फिरने के बीच चुनाव न कर पाने की है जिसका सही आकलन तक नहीं किया गया है।