Post – 2018-10-17

अन्तर्विरोध

मैंने ‘Me Too के संदर्भ में जो टिप्पणी लिखी उस पर आई प्रतिक्रियाओं से ऐसा लगता है कि मेरे मंतव्य को सही संदर्भ में समझा नहीं गया, इसलिए इसको कुछ स्पष्ट करना जरूरी है। दूसरे पक्षों पर मुझे कुछ नहीं कहना।

हम सभी किसी अन्याय को देखते जानते और यहां तक कि सहते हुए भी चुप लगा जाते हैं क्योंकि प्रत्येक समाज में अनीति और कदाचार के इतने रूप घर परिवार से लेकर शीर्ष पदों और संस्थाओं तक में चलते रहते हैं कि गहन समीक्षा करने पर कोई व्यक्ति बेदाग सिद्ध ही नहीं हो सकता। इसलिए हमें कदम कदम पर संभल कर चलना और बच कर रहना होता है।

परन्तु किसी भी कारण से यदि कोई व्यक्ति इनमें से किसी के विरोध में उठ खड़ा हो तो दूसरे उसका समर्थन करना अपना नैतिक दायित्व मान कर उसके साथ खड़े हो जाते हैं। विरोध करने का किसी को साहस इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि उस दशा में वह उस कदाचार का समर्थक, या स्वयं लिप्त मान लिया जाएगा। इस तरह यह एक ऐसे विराट आंदोलन का रूप ले लेता है कि लगे (1) यही आज की सबसे ज्वलंत समस्या है, (2) कि इससे पहले यह थी ही नहीं, (3) कि जिस देश में आन्दोलन चल रहा है उसके अतिरिक्त अन्य किसी देश में यह विकृति है ही नहीं, और इसलिए (4) वह दुनिया का सबसे गिरा हुआ देश या समाज है। मैं पिछले कुछ वर्षों से दुनिया के सबसे बुरे देश को देखने का आदी हो चुका हूं, फिर भी अन्याय के सभी रूपों के साथ खड़ा रहना चाहता हूं, जैसे मैं छोटे बड़े सभी अपराधों का विरोध करता हूं।

परन्तु मैं कई बार लिख चुका हूं कि किसी घटना, क्रिया या कथन (अभिव्यक्ति के किसी भी रूप का) अर्थ उससे अधिक उसके सन्दर्भ – कब? किसने? किससे? कैसे? क्यों? आदि – में निहित होता है।

मैं इस अवसर पर उन लोगों का नाम न लूंगा जिनकी सूची से अपराधियों को मदद मिले। पर यह सवाल अवश्य करूंगा कि क्या आप ने ननों को संस्थाबद्ध रूप में खुलकर उत्पीड़ित और वहशियाना ढंग से उनसे पेश आने और इसे उचित ठहराए जाने के ठीक मौके पर इसे मुद्दा बनाए जाने के पहलू पर विचार करते हुए ठीक इसी अवसर को चुना? यदि हां तो आप स्वयं एक अति जघन्य अपराध का समर्थन कर रहे हैं और ऐसी दशा में अन्याय कथा सुनाने के बहाने अपराधियों के साथ हैं, संभव है लाभ, दबाव या ख्याति के लिए ऐसा करते हुए अपराध कर रहे हैं। यदि नहीं सोचा तो आपका इस्तेमाल कर लिया गया और आप भरोसे के काबिल नहीं।

क्या आपने ध्यान दिया कि रेप के मामले मे लांछना सिद्ध व्यक्ति को जमानत नहीं मिलती, पर नन के मामले में मिल गई। हमारी न्यायपालिका भी सांप्रदायिक चंगुल में है, यही उसका सोविधान संकट था।