मेरी पूरी सहानुभूति उन महिलाओ के साथ है जो मी टू का दर्द बयान करने का साहस जुटा पाईं, पर यह समझ में नहीं आता कि यह बरास्ता अमेरिका भारत क्यों पहुंचा जहा के कानून हमसे अलग हैं।
जिस अवसर पर इसे उठाया गया उससे भ्रम होता है कि यह ननों की त्रासदी से ध्यान हटाने के लिए प्रायोजित किया गया।
इसका फिर भी यह मतलम नहीं कि उनका बयान गलत है। यह इरादतन मानहानि का मामला नहीं हेै। इसके लिए अलग व्यवस्था होनी चाहिए। इसे महिला आयोगको पहल करनी चाहिए।
कानूनी कार्रवाई करने वाले संतोषजनकसफाई न देकर कानून की धौंस दे कर यह प्रमाणित कर चुके हैं कि वे अपराधी हैं. मान सम्मान अदालत से नहीं समाज में व्यक्ति की छवि से संबंध रखता है और इसलिए मुकदमा जीत कर भी वे समाज की नजर मे उठ नहीं सकते। यह बता कर कि किस असंतोष का इस रूप में लिया जा रहा है, वे ऐसा कर सकते थे।
जो भी हो यदि शिकायत करने वाली महिलाओं को किसी रूप में परेशानी झेलनी पड़ती है तो हमारा हाल उन देशों जैसा हो जाएगा जहां रेप सिद्ध करने के लिए पुरुष गवाहों की अपेक्षा की जाती है जो दुर्भाग्य की बात होगी।
प्रस्तुत मामलोे सें विलंब का लाभ देते हुए अपराधियों को प्रमाण के अभाव मे मुक्त और मुकदमों के आरोपियों को क्षमायाचना तक के लिए विवश न करते हुए उनकी असावधाना के लिए अदालत को स्वय झिड़क कर मुकदमे को खत्म करना चाहिए।