Post – 2018-10-14

#भेदनीति के प्रयोग -2

एक पराजित देश और समाज का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह नहीं होता कि वह सत्ता से वंचित हो जाता है। उससे बड़ा दुर्भाग्य यह होता है कि वह अपना आत्मविश्वास खो बैठता है। वह मान बैठता है की विजेता की हर चीज उसके अपने प्रतिरूप से श्रेष्ठ है। वह अपने हीरे की पहचान भूलकर उसे फेंकने और विजेता के कांच को भी हीरा समझकर जुटाने और गले लगाने लगता है।

हमारे समाज में ऐसे शिक्षित और संभ्रांत माने जाने वाले लोगों की कमी नहीं है जो यह मानते हैं कि अंग्रेजों ने भेदनीति का बहुत सफलता पूर्वक प्रयोग किया और हमें हमेशा के लिए बांटने में सफल हो गए। कुछ तो यह भी मानने को तैयार हो जाएंगे कि यह नीति मूलतः उनका ही आविष्कार थी।

इस नीति का सफल प्रयोग तब माना जाता जब वे अपनी सत्ता को इस प्रयोग के द्वारा अधिक सुदृढ़ कर पाते, और हम आज भी उनके अधीन बने रहते। भले आपस में लड़ते हुए ही क्यों नहीं। परंतु हुआ इसके विपरीत। इसका अर्थ यह है, नीति उन्होंने अपनाई, परंतु इसका पालन कैसे किया जाता है इसका पता उनको न था। इसमें विफल हुए। लाभ की अपेक्षा सब की हानि हुई और जो कुछ वे हासिल करना चाहते थे उसे हासिल न कर सके। इससे केवल सर्वनाश हुआ और जिनको इसका सबसे अधिक मूल्य चुकाना पड़ा उनको यह भ्रम तक हो सकता है कि वे हर तरह से लाभ में रहे।

नीति के साथ नैतिकता का प्रश्न जुड़ा हुआ है। दंड विधान के साथ भी उसके प्रयोग की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि दंडित व्यक्ति यह अनुभव करे कि उसने गलत काम किया था और इसलिए दंड तो उसे मिलना ही चाहिए था। दंड का एक पर्याय है, शिक्षा। यदि शिक्षा न मिली तो दंड परपीड़न में बदल जाता है। यदि दंड अपेक्षा से अधिक हुआ उत्तेजना पैदा करता है, यदि कम हुआ तो उस प्रवृत्ति को रोकने की अपेक्षा बढ़ाता है। तुल्य दंड अपराधी को शिक्षित करता है और समाज अपराधियों को रोकने में समर्थ होता है। तीक्ष् दंडो हि भूतानां उद्वेजनीयः, मृदुदंडः परिभूयते, यथार्ह दंडः पूज्यः।

कोई किताब हाथ लग जाने से आप उसका सही अर्थ ग्रहण कर लें यह भाषाज्ञान से अधिक मनोवृति पर निर्भर करता है। भारतीय मूल्य प्रणाली का निर्वाह पश्चिमी जगत वहां भी नहीं कर पा रहा है जहां इसका दावा करता है, उदाहरण के लिए, राष्ट्रसंघ।

हम यह कह सकते हैं कि इसके तरह तरह के प्रयोग करने में उन्होंने असाधारण धैर्य का परिचय दिया, परंतु विफलता मिली क्यों? इस पर ध्यान नहीं दिया या यदि दिया तो उस मनोवृत्ति को रोक नहीं सके जिसके कारण विफलता मिली। विफलता के बावजूद अंग्रेजों ने मुहम्मडन कॉलेज में नए प्रयोग करने की लगातार कोशिश की और यह कोशिश 1857 के बाद भी जारी रही, यद्यपि सफलता कभी न मिली। इसको हम हंटर के शब्दों में ही रखना चाहेंगेः
But on the more general and less tangible accusation of neglect I must say a few words. If we analyse this charge, we shall find that our unsympathetic system of Public Instruction lies at the root of the matter. The Bengal Musalmans can never hope to succeed in life, or to obtain a fair share of the State patronage, until they fit themselves for it, and they will never thus fit themselves until provision is made for their education in our schools….I propose to relate the one great effort we have made in this direction. The English in India have failed in their duty towards the Musalmans, but it is only fair to narrate the difficulties and discouragements which they have met with in trying to do it. … As the wealth of the great Muhammadan Houses decayed, their power of giving their sons an education which should fit them for the higher offices in the State declined pari passu. To restore the chances in their favour, Warren Hastings established a Muhammadan College in …1819 it was found necessary to appoint an European Secretary. In 1826 a further effort was made to adapt the Institution to the altered necessities of the times; an English class was formed, but unhappily soon afterwards broken up. Three years afterwards, another and a more permanent effort was made, but with inadequate results. During the next quarter of a century, the Muhammadan College shared the fate of the Muhammadan community. It was allowed to drop out of sight; and when the Local Government made any sign on the subject, it was some expression of impatience at its continuing to exist at all. (पृ.118-19)

इस नकली सहानुभूति के पीछे जिस सचाई पर परदा डाला गया वह हैंः
The neglect and contempt, with which, for half a century, the Muhammadan population of Lower Bengal has thus been treated, have left their marks deep in recent Indian literature.

यह भी इसका एक पक्ष है। उपेक्षा की बात की गई, अमानवीय उत्पीड़न और खुली लूट को ओझल कर दिया गया। यह छिपा लिया गया कि कोई न कोई बहाना बनाकर कंपनी किसी भी तरह की संपत्ति को लूटने की कोशिश करती रही, चाहे वह शिक्षा और धर्म के लिए ही क्यों न होः
For it is no use concealing the fact that the Muhammadans believe that, if we had only honestly applied the property entrusted to us for that purpose, they would at this moment possess one of the noblest and most efficient educational establishments in Bengal. In 1806 a wealthy, Muhammadan gentleman of Hugli District died, leaving a vast estate in pious uses. Presently his two trustees began to quarrel. In 1810 the dispute deepened into a charge of malversation, and the English Collector of the District attached the property, pending the decision of the Courts. Litigation continued till 1816, when the Government dismissed both the trustees, and assumed the management of the estate, appointing itself in the place of one trustee, and nominating a second one. Next year it let out the estate in perpetuity, taking a suitable payment from each of the permanent leaseholders. These payments, with the arrears which had accumulated during the litigation, now amount to £105,700,211 besides over £12,000 which has since been saved from the annual proceeds of the estate.

The Trust had, as I have said, been left for pious uses. These uses had been defined by the will, such as the maintenance of certain religious rites and ceremonies, the repair of the Imambadah, or great mosque at Hugli, a burial ground, certain pensions, and various religious establishments. An educational foundation came strictly within the purposes of the Trust, but an educational establishment on the Muhammadan plan, such as the founder would have himself approved. A College for poor scholars has always been considered ‘a pious use‘ in Musalman countries. But any attempt to divert the funds to a non Muhammadan College would have been deemed an act of impiety by the testator, and could only be regarded as a gross malversation on the part of the trustees. Indeed, so inseparable is the religious element from a Muhammadan endowment, that the Government had to carefully investigate the legality of applying a Trust, made by a gentleman of the Shiah sect, to the education of the Sunni Musalmans.

We may imagine, then, the burst of indignation with which the Muhammadans learned that the English Government was about to misappropriate the funds to the erection of an English College. This, however, it did. It devoted an estate left expressly for the pious uses of Islam, to founding an institution subversive in its very nature of the principles of Islam, and from which the Muhammadans were practically excluded. 112-13

इससे ही प्रकट है, तथ्यों की जानकारी के बाद भी हंटर उस घृणा के लिए केवल मुसलमानों को दोष देकर और कंपनी को बहुत उदार दिखाकर, वस्तुस्थिति का एकपक्षीय चित्र प्रस्तुत कर रहे थे। ईमानदारी के बिना नकली सद्भावना घृणा तो पैदा करेगी ही, उसकी व्याख्या भी प्रदर्शन बन कर रह जाने को बाध्य है।

अब इसके साथ भारतीय इतिहास के उस सच को देखें जिसमें भेदनीति का अनुप्रयोग करने वाला (वस्सकार) एक अपराजेय गणसंघ (लिच्छवि) पर विजय के लिए अपने राजा (अजातशत्रु) से अपमानित और निर्वासित किए जाने के बाद उसकी शरण में जाता है। धीरे धीरे अनेक परीक्षाओं से गुजर कर विश्वास अर्जित करता है। उस संघ की गोष्ठी के एक सदस्य को आवश्यक कार्य के नाम पर अलग ले जा कर कानाफूसी वाली आवाज में उसके घर परिवार का कुशल पूछता है और फिर दोनों सभा में लौट आते हैं। बाद में जब उसकी अनुपस्थिति में दूसरे सदस्य जानना चाहते हैं कि उसने क्या कहा था, तो सच बताने के बाद भी कोई विश्वास नहीं करता और इस तरु संदेह का आरंभ हो कर फूट कलह का रूप ले लेती है और उसके बाद के आक्रमण में वह गणसंघ पराजित हो कर उस राज्य का करद हो जाता है। इसी पर आधारित है पंचतंत्र की काकोलूकीय कहानी। यह बुद्ध के अपने जीवनकाल की घटना है। भेदनीति की कसौटी कार्यसिद्धि है, न कि विनाश।